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शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

ज्येष्ठाश्रमी

"दूध का उबलना" एक सटीक बहाना होता था पत्नी को शहर अपने साथ ले जाने के लियें। कुछ लोंग हाथ जला लेते थे। मॉ-बाप पत्नी को साथ ले जाने की अनुमति दे ही देते थे किं ये समझते हुये कि ये बहाना बना रहा। 

कुछ तो मुँह ऐसा बना कर घर आते थे जैसे सालों से खाना न खाया हो। ये संकेत होता था लड़का व्याकुल है बाहर साथ ले जाने को।

मूलतः ये समस्या संयुक्त परिवार में ज्यादा होता था। बड़े-बुजुर्गो को भी डर लगा रहता था कहीं बच्चें बाहर जाकर बिगड़ न जायें। पाबंदी होती थी पर अभिनय में सफल में हो गये तो समझिये काम बन गया।

मेरे साथ तो सही में एक घटना हो गयी थी। पत्नी प्रयागराज थी। सुबह दूध गर्म करने को रखा था। अॉफिस निकलने के समय तक याद ही नही रहा। दूध, भगोने सब जलने लगे। मकान मालिक क्या करते बेचारे???तब मोबाइल फोन का चलन भी नही था। टेलीफोन डायरेक्टरी में एच. बी. टी. यू. का नं. खोजा गया। मेरे डायरेक्टर का फोन मिला। उनके पी. ए. को फोन पर सूचना मिला। मुझे व्यंगात्मक लहजे में बताया गया, "क्या गुरु, कहाँ भगोना जला रखे हो" मुझे मामला समझ आ गया। तुरंत घर आया। धुँयें से घर भर गया था।

तभी से लापरवाही का ठप्पा लग गया था। किचेन कार्य से मुक्ति भी मिल गयी थी।

खैर!!!! आप सभी ऐसा जोखिम न लीजियेगा....

@व्याकुल

बुधवार, 10 नवंबर 2021

अलगौझी

भैया बम्बई जबसे कमाने गये, भाभी के तो जैसे पंख लग गये। भैया गॉव छोड़कर कही नही जाना चाहते थे। वे खुश थे अपने बाप-दादाओं की जमीन पर। स्वाभिमान की रोटी खाना उन्हे पसंद था। कहते थे जितनी मेहनत हम दूसरों के लिये करेंगे उतना मेहनत अपने गॉव में रहकर करना पसंद करेंगे। 

भैया दर्शन शास्त्र से परास्नातक थे। विश्वविद्यालय स्तर पर गोल्ड मेडलिस्ट थे। पढ़ाई के बाद गॉव का मोह उन्हे खींच लाया था। 

भाभी को बहुत परेशानी थी। कहती रहती निठल्ले जैसे पड़े रहते हो। मेरे पिता ने किसी निठल्ले से शादी नही की थी। दिन भर ताना मारा करती थी।

अपने दोस्त सुरेश को देखिये। मुम्बई में बच्चे साफ-सुथरे कपड़े पहनते है। बाहर खाना खाते है और आप यही कथरी ढोते रहिये।

भैया मजबूत इच्छा शक्ति वाले थे। कोई फर्क नही पड़ता था उन्हे।पढ़ाई  के दौरान प्रो. रामकृष्ण ने कई बार उनसे कहा भी था, "निखिल बेटा, पी. एच. डी. भी कर लो।" पर निखिल कुछ और ही सोचे बैठा था।

आज सुबह से ही भाभी घर सर पर उठा रखी थी। बर्तनों को पटकने का दौर जारी थी। जिद्द पकड़ ली थी बाहर कमाने के लिये। बोली,  "मै इतने लोगों का खाना नही बना सकती।" भाभी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। डर के मारे पिता कुछ नही बोले थे। भैया बेचारे क्या करते!!!!!

अगली सुबह ही भैया बैग लटकाये बम्बईया ट्रेन से मुम्बई चले गये थे। भाभी के खुशी का ठीकाना नही था। सुरेश की पत्नी जैसा जीवन जीने का मौका मिलेगा उसे। 

निखिल भैया के मुम्बई जाने के बाद भाभी का जो मन होता वही करती।


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निखिल के मुम्बई जाने के बाद से ही पिता घर की कलह सह न पाने की वजह से चल बसे थे। छोटा भाई अखिल पर जैसे दुःखों का अम्बार टूट पड़ा था। भाभी भैया के एक-एक पैसे का हिसाब रखने लगी थी। पिता के जाने के बाद सारे परिवार की जिम्मेदारी अखिल पर आ गयी थी। भैया का परिवार से कोई मतलब नही रह गया था। 

अखिल सुबह 3 बजे उठ कर चौराहे पर पहुंच जाता था जिससे अखबार की फेरी लगा सके। उससे सबसे ज्यादा चिन्ता छोटी बहन के ब्याह की थी।

अखिल सेठ के घर दरवानी (चौकीदारी) की नौकरी करने लगा था। जब मौका मिलता कुछ न कुछ पढ़ता रहता। प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता। 

बहन-मॉ का कष्ट देखा नही जाता था अखिल को। जो मेहनत करके कर सकता था करता रहता। निखिल भैया या भाभी से कुछ कह नही सकता था। 

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भैया को मुम्बई से आये चार दिन हो चुके थे। आज तक बात करने को किसी को मौका नही मिला था। भाभी बात करने का मौका ही नही देती थी। निखिल भैया भाभी के सामने आत्मसमर्पण कर चुके थे।मजाल है कोई बात कर ले। 

आज सुबह फेरी लगाकर आने के बाद से ही भैया मॉ के पास बैठे थे। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। पर थोड़ी देर बाद मॉ के सुबकने की आवाज सुनाई दे रही थी। 

भैया कठोर हो चले थे। थोड़ा बहुत आवाज जो सुनाई पड़ रही थी। कह रहे थे, "अब अलगौझी (बँटवारा) हो जाना चाहिये"

मै हतप्रभ था। घर बँटा नही था पर मानसिक तौर पर दूरी तो पिता के अवसान के बाद से ही बन गया था। भैया अगर न भी कहते अलग होने को तो भी दिल के टुकड़े तो बहुत पहले ही हो गया था। ये घोषणा की क्या जरूरत थी।

आज सुबह से ही सारे घर में शांति थी। सारे घर के सदस्य उदास लेटे हुये थे। बीच-बीच में भाभी के चहकने की आवाज शूल जैसा चुभ जाता था।

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आज अखिल का चयन बैंक में हो गया था। खुशियाँ किससे बाँटता। खुशियाँ भी अलगौझी का शिकार हो गया था। भैया सुबह से दिख नही रहे थे। पैर छू कर आशीर्वाद लेता पर उनके कमरा का ताला लटका मिला। पड़ोसियों ने बताया था भाभी-भैया मुम्बई चले गये। खुशियाँ बार-बार आँखों पर आँसु बन टपक जाता। 

पिता बारम्बार याद आ रहे थे। 

मन रो पड़ा था। 

हाय रे अलगौझी!!!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 7 नवंबर 2021

नमकीन फिल्म

कई दिनों से फेसबुक के वीडियों सेक्शन में एक फिल्म के क्लिप दिख रहे थे। संजीव कुमार के अभिनय का शुरू से ही कायल रहा हूँ। फिल्म का नाम था - "नमकीन"

रात 11 बजे मूड बना कि ये फिल्म देखी जाये। 2 घंटे 9 मिनट की फिल्म रात 1 बजे तक देखी गयी। 

एक बेहतरीन फिल्म। शबाना आजमी की एक्टिंग गजब की है। आधी फिल्म तक पता ही नही चला वों गूँगी है। जब हीरो को बताया गया तभी पता चला। वैसे भारत में दूरदर्शन की क्रांति 1984 में आयी थी। तभी ज्यादातर पुरानी फिल्में देखी थी। ये फिल्म 1982 की है। शायद तब नयी होने की वजह से दूरदर्शन पर न दिखायी गयी हों। वहीदा हो या शर्मीला.. सभी बेहतरीन अभिनय करते दिखे। 

हर उन छोटी-छोटी चीजों को दिखाना जो हम अपने प्रतिदिन के जीवन में करते है फिल्म की यही विशेष खाशियत है जैसे- बिजली का स्विच अनजाने में ऑन कर देना जबकि पता है बिजली का कनेक्शन ही नही है या खाते वक्त खुले व खाली टिफिन को संभाले रखना।

मजबूरी व्यक्ति की दशा और दिशा दोनो बदल देता है। आशा की किरण थोड़ी दिखायी दी थी पर हीरो के घर छोड़कर चले जाने से रही सही कसर जाती रही। गरीबी व असहाय से दुःखी व्यक्ति को जो करना था वही किया। एक का प्राणांत व दूसरी का नौटंकी में काम।

अब इंतेजार है दूसरे फिल्मी क्लिप का....

@व्याकुल

ओरहन

वैसे ऐसा कभी कोई काम नही किया जिसमे कभी किसी ने मेरी ओरहन (शिकायत) की हो। बचपन में एक गुस्ताखी की थी वों भी एक भईया ने कहलवाया था। 

छत पर बैठा हुआ था। थोड़ी दूर के छत पर टहलते हुये एक सज्जन डी. एम. कहने से चिढ़ते थे। मै चिल्ला कर बोला था "डी. एम."

मुझे देख तो नही पाये थे पर समझ गये थे इसी मकान से किसी ने संबोधन किया है। तुरंत ही घर आये। बड़ो से शिकायत की। घर के सब बच्चों को बुलाकर डांट लगाया गया।

कुछ दिनों बाद किसी ने बताया किं "देहाती मग्घा" का संक्षिप्त रूप है "डी. एम."

उनके चिढ़ने की शुरूआत कैसे हुई- ये पता नही चला। 

फिलहाल अब वों हमारे बीच नही है। नमन उनकों।

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...