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बुधवार, 28 जुलाई 2021

भूल

चंदन के गाँव में जैसें खुशी की लहर झूम उठी हो। चंदन ने तो गाँव का सीना आसमान जैसा ऊंचा उठा दिया था। गाँव के छोटे-बड़े सभी उस को सीने से लगा रहे थे। चंदन ने मेडिकल की परीक्षा में ऑल इंडिया टॉप किया था।

बारहवीं की परीक्षा पास करने के पश्चात मेडिकल की तैयारी चंदन ने पिता के बचपन के मित्र के यहाँ रह कर की थी। चंदन बचपन से ही बड़ा मेधावी था, उसके पिता को उस पर बहुत ही विश्वास था। चंदन कम बोलने वाला शर्मीला लड़का था।

वह घड़ी भी आई जब सारा गाँव चंदन को छोड़ने स्टेशन पर आया था। सभी उसको लाड़-प्यार कर रहे थे। चंदन भी बड़ों का आशीर्वाद ले रहा था, उसने मेडिकल की पूरी पढ़ाई अच्छे अंको से उत्तीर्ण किया।

चंदन को पढ़ाई खत्म होते ही पटना के बड़े चिकित्सालय में सेवा करने का अवसर मिल गया। वह बड़ी तन्मयता से अपनी सेवाएं चिकित्सा के क्षेत्र में देने लगा। कोई गरीब मरीज दिख जाता तो उसकी पैसे से भी मदद कर देता था। इस तरह से चंदन की ख्याती सुदूर क्षेत्रों तक फैल चुकी थी। चंदन जब कभी गाँव जाते गाँव के लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराते। चंदन पूरा समय गाँव वालों को देता था गाँव वालों से उसे भरपूर स्नेह मिला करता था।

चंदन की शादी के लिए रिश्ते आने लगे थे। वह दिन भी आया जब चंदन सांसारिक जीवन में प्रवेश कर गये। वह अपने पारिवारिक व सामाजिक जीवन से बहुत ही प्रसन्न थे।

चंदन की पत्नी सीमा डॉक्टर थी। दोनों पति-पत्नी अपने कार्य क्षेत्र में व्यस्त रहते थे।

एक दोपहर चंदन अचानक किसी  कार्य से घर आना हुआ। एक अनजाने शख्स को अपने घर से निकलते देखा था। जब तक चंदन कुछ समझ पाते वह व्यक्ति ओझल हो चुका था। 

घर आते ही चंदन ने पत्नी से पूछा था,

"सीमा, वह कौन था???"

"कोई तो नहीं।" सीमा ने जवाब दिया था।

चंदन मन का भ्रम समझ चुप हो गया था। फिर से वह अपने कार्य में व्यस्त हो गया।

एक दिन अचानक चंदन को दिन के समय पत्नी के अस्पताल में सर्जरी हेतु जाना पड़ गया। चंदन को वहाँ सीमा नहीं दिखी। चंदन ने अस्पताल के स्टॉफ से पूछा, तो लोगों ने बताया.. मैम, रोजाना तीन घंटे के लिए घर को जाती हैं।

चंदन अवाक् रह गया था। उसे तो आज तक नहीं पता चला था की हर रोज दोपहर वह घर जाती थी। दोपहर घर आने वाली बात की सीमा ने भी कभी कोई चर्चा नहीं की थी। चंदन का दिमाग नकारात्मकता की ओर कभी नहीं गया। उसने सोचा, सीमा थक जाती होगी इसलिए दोपहर आराम करने जाती होगी।

फिर वह अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण सीमा से पूछना भूल गया था। 

समय बीतता जा रहा था। एक दिन पुनः चंदन को दोपहर किसी काम से घर आना पड़ा। घर के अंदर देखा वही व्यक्ति ड्राइंगरूम में बैठा था, जिसे उसने कभी घर से निकलते देखा था। 

सीमा ने आगे बढ़कर कहा,

"यह सुमित है, मेरे कॉलेज के दिनों के मित्र" 

दोनों ने एक दूसरे को हाय-हैलो किया।

थोड़ी देर की बातचीत के बाद चंदन के साथ सुमित भी निकल गया था।

अब जब कभी भी चंदन घर को आता सुमित से मुलाकात हो जाती। चंदन के मन में शक समाने लगा था। उसने सीमा से कई बार बात भी की। सीमा मित्र कहकर बात टाल दी थी।

सुमित का आना जाना काफी बढ़ गया था। चंदन दिनों-दिन परेशान रहने लगा।

सीमा से चंदन की छोटी-मोटी चीजों के लिए लड़ाइयां भी होने लगी। चंदन कुछ समझ नहीं पा रहा था क्या किया जायें ???? सीमा ज्यादा खुश रहने लगी थी और चंदन उतना ही विक्षिप्त। धीरे-धीरे चंदन बीमार पड़ने लगा।

इधर सीमा के पास सुमित का आना जाना बढ़ गया था।

उस दिन सुबह से ही चंदन को बुखार था। वह छुट्टी पर था जो सीमा के लिए परेशान कर देने वाला था। वह सोच रही थी चंदन बीमार है तो क्या... अस्पताल में ही जाकर रहे। इतना बड़ा डॉक्टर है वो, उसकी सेवा अस्पताल में ही हो सकती है। उसने इस बात को चंदन से कहा भी। 

सुमित के घर आते ही सीमा ने सुमित से कहा था, 

"तुम भी बोलो ना चंदन से.. सुमित अस्पताल में ही जाकर रहे" 

सुमित ने चंदन के सामने ही सीमा का हाथ पकड़ लिया और ड्राइंगरूम के सोफे पर सट कर बैठ गया। चंदन से यह देखा नहीं गया। उसने बोला, 

"मेरे आँखों के सामने यह तुम क्या कर रही हो???? मुझे और कितना कष्ट दोगी???"

इधर चंदन की तबीयत दिनोंदिन खराब होती जा रही थी उधर अपनी आँखों के सामने प्रतिदिन सुमित और सीमा की रंगरेलियां देखता था।

आज सुबह से ही सीमा बहुत खुश थी उसने चंदन को नाश्ता दिया। दवाइयाँ भी समय से दी। चंदन को सीमा का यह बदला व्यवहार समझ नहीं आ रहा था। 

तभी सुमित आ गया था। दोनों ने इशारों-इशारों में कुटिल मुस्कान के साथ कुछ बात की। सुमित ने सीमा को इंजेक्शन देते हुए यही कहा था,

"इस इंजेक्शन से चंदन ठीक हो जाएंगे।"

सीमा ने दोपहर का भोजन चंदन को अपने हाथों से खिलाया। चंदन खुश हो गया था। मन ही मन में सोच रहा था सीमा में यह बदलाव कैसा????

चंदन ठहरा दयालु व संस्कारी प्रवृत्ति का। क्या समझ पता दिखाने वाला इंजेक्शन कुछ और था लगाने वाला कुछ और।

इंजेक्शन लगने के बाद चंदन सीमा से यही बोल पाया था, 

"सीमा!!! मुझे बहुत तेज नींद आ रही है, तुम अपना ध्यान रखना।" 

उसके बाद चंदन सो गया था।

शहर के सभी बड़े डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिए थे चंदन के पिता की आवाज चली गई थी।


@व्याकुल

शनिवार, 24 जुलाई 2021

गुरूपूर्णिमा

सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड।

तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड॥

कबीर दास जी गुरू की महिमा ऐसे ही नही कह दिये कुछ तो तर्क रहा ही होगा। मजे की बात ये है कि चातुर्मास को पड़ता है ये गुरू पूर्णिमा। भगवान विष्णु शयन को चले जाते है। कहते है इन चार मास में कोई भी शुभ कार्य नही कर सकते। कहा भी गया है गुरू की महिमा ईश्वर से ऊपर है।

आज के दिन को व्यास पूर्णिमा के लिये भी मनाया जाता है। कृष्ण द्वैपायन व्यास को आदिगुरू माना जाता है। वे वेदो के प्रथम व्याख्याता भी थे।

आधुनिक काल में लोग कई कई गुरू को साधे रहते है.. गिरते है तो कोई संभालने वाला नही होता। रहिमन की वाणी तो मुझे मूलमंत्र लगती है -

एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय। 

रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय।।

विदेशी विद्वान जॉन ड्यूवी शिक्षा को सामाजिक बदलाव के महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखते है और उससे भी ज्यादा नैतिक रूप से प्रबल मानवों के निर्माण में शिक्षकों की भूमिका को अहं मानते है।

बचपन से एक दोहा जो जबान पर रहता था-

गुरू गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।

बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।।

इसका अर्थ तो तभी समझ आया जब सामाजिक रूप से धक्के खाया। कितने ही बार गिरे और हर बार कोई न कोई गुरू बन उठाता रहा।  शनैः शनैः ही सही गोविंद तक पहुँचाता रहा।

@व्याकुल

बुधवार, 21 जुलाई 2021

मोल

कबाड़ी ढूंढ़ लेता हूँ

धुँधले होते पन्नों को..


मुस्कुरा भी लेता हूँ

सौदा होते देखता हूँ..


पसंद है खुद को बेचना

कीमत लगा देखता हूँ..


आँखे खुली रह गयी

मोल कौड़ी के बिकता देखता हूँ..


मुझे चौराहे पर खड़ा देख

सिक्के उछाल दिये दोस्तों ने..


धुँआ बन यूँ उड़ा वहम

पीठ पर खंजर घोपते देखता हूँ..


@व्याकुल

गुलेल


गुलेल की खोज कब और कैसे हुई, यह बता पाना तो मुश्किल होगा। गुलेल के चलाने की पद्धति से लगता है किं यह जरूर छापामार पद्धति या गोरिल्ला पद्धति का अंग रहा होगा। शिवाजी महाराज की गनिमी कावा नामक कुट नीति, जिसमें शत्रुओं पर अचानक से आक्रमण किया जाता है, गुरिल्ला पद्धति ही समझ सकते है। ऐसे कहा जायें तो गुरिल्ला के युद्ध प्रयोग का प्रचलन शुरू किया था।


                               चित्र स्रोत: गूगल

गुलेल से तिकोने लकड़ी के ऊपर के दो खुले हिस्सों में रबड़ बांधकर या ट्यूब को बांधकर छोटी ईंट को फंसा कर लक्ष्य को भेदा जाता है।

अमूमन इसका उपयोग चिड़ियाँ या पक्षियों को मारने में होता है इससे यह प्रतीत होता है कि इसके खोज में अवश्य ही जंगलों में रह रहे जनजातियों या शिकारियों का भी हाथ हो सकता है। धनुष-बाण के विकल्प के तौर पर गुलेल का उपयोग होता होगा।

मेरे बड़े भाई को बचपन से ही कुछ नया करने का शौक रहा है चाहे वह पतंगों का पेंच लड़ाना हो या कंचे खेलने हों या गुल्ली-डंडा इत्यादि।

मेरे ननिहाल में घर के पीछे अच्छा-खासा बगीचा हुआ करता था उसमें भांति भांति के पेड़-पौधे लगे हुए थे।

बड़े भाई गुलेल का उपयोग कभी किसी फल को तोड़ने में करते, कभी किसी दूसरे फल को तोड़ने में करते थे, फल तोड़ते-तोड़ते उनको चिड़िया मारने का शौक लग गया था।

घर के पीछे करौंधे का पेड़ था। पेड़ पर आसमानी रंग की सुनहरी चिड़ियाँ ने अपना घोंसला बना रखा था। उस घोंसले पर दो छोटे-छोटे बच्चे थे। चिड़ियाँ को अपने बच्चों को प्यार करते देखा करता था।

एक बार भैया ने गलती से उस चिड़ियाँ पर गुलेल चला दी थी चिड़ियाँ ढेर हो गयी थी। भैया को बहुत ही पश्चाताप हुआ। उन्होंने कसम खा ली थी की आज के बाद कभी भी गुलेल नहीं चलाऊँगा। उन्होंने अपने गुलेल को तोड़ कर उस चिड़ियाँ के साथ जमीन में गाड़ दिए थे इस तरह से गुलेल चलाने का शौक खत्म हुआ।

बहुत दिनों तक उन अनाथ बच्चों को दाने डालने का क्रम चलता रहा। एक दिन पता ही नहीं चला वे बच्चे कहाँ चले गए, यह हम लोगों के लिए बहुत वर्षो तक रहस्य बना रहा।

@व्याकुल

मंगलवार, 20 जुलाई 2021

रूटट रहाड़े

यह कल्पना से परे है कि हमारे कितने ही रीति-रिवाज, परम्परायें व प्रथायें समय के साथ- साथ क्षीण होते जा रहे। इनको सहेजना व संरक्षित करना समय की माँग है ताकि हमारी अगली पीढ़ी व भविष्य अपने इस प्राचीन परम्पराओं पर गौरव महसूस कर सकें। कश्मीर गौरवशाली हिन्दु परम्परा का एक लम्बा श्रृंखला रही है पर हम सभी इसकों विस्मृत कर बैठे है।

जम्मू - कश्मीर में सावन के महीने मे पवित्र देविका नदी के किनारे 'रूटट रहाड़े' पर्व का आयोजन किया जाता है...देविका नदी जम्मू और कश्मीर के उधमपुर ज़िले में ‘पहाड़ी सुध’ महादेव मंदिर से निकलती है और पश्चिमी पंजाब,जो कि अब पाकिस्तान में है, में बहते हुए रावी नदी से मिल जाती है। एक धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस नदी को हिंदुओं द्वारा गंगा नदी की बहन के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। हालांकि इसकी मान्यता एक गुप्त नदी के रूप में है।

इस पर्व में शादी-शुदा बेटियाँ अपने मायके आकर पिता, भाई, ताऊ, चाचा, आदि के नाम के पौधे रोपती है, और ये लोग उन पौधों के संरक्षण का जिम्मा लेते है।

@व्याकुल

रविवार, 18 जुलाई 2021

कादम्बिनी गांगुली: प्रेरणादायी व्यक्तित्व


पहली भारतीय महिला डॉक्टरों में से एक, कादम्बिनी गांगुली, जिनका जन्म 18 जुलाई, सन् 1861 में हुआ था। जिन्होंने पश्चिमी चिकित्सा में डिग्री के साथ प्रैक्टिस किया। आपने आनंदीबाई जोशी जैसी अन्य अग्रणी महिलाओं के साथ कार्य किया।

आपने 1884 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने वाली पहली महिला थीं, बाद में स्कॉटलैंड में प्रशिक्षण प्राप्त किया और भारत में एक सफल चिकित्सा पद्धति की स्थापना की।

उन्होनें फ्लोरेंस नाइटिंगेल का ध्यान आकर्षित किया था और ऐसी न जाने कितनी महिलाओं के लिये आदर्श थी।

गांगुली भारत में सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत ही सक्रिय थी। वह राजनीतिक रूप से भी बहुत सक्रिय थी। वह 1889 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पांचवें सत्र में छह महिला प्रतिनिधियों में से एक थीं और बंगाल के विभाजन के बाद कलकत्ता में 1906 में महिला सम्मेलन का आयोजन किया। 

गांगुली ने महिलाओं के चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश को लेकर महान कार्य किया था। आप कलकत्ता मेडिकल कॉलेज पर महिलाओं को छात्रों के रूप में अनुमति देने के लिए दबाव डालने में भी सफल रही थी।

ऐनी बेसेंट डॉ कादम्बिनी की प्रशंसा करती थी और इसका उल्लेख उन्होनें अपनी पुस्तक 'How India Wrought For Freedom' में किया था।

आप 3 अक्तूबर, 1923 को काल कलवित हो गयी।

@व्याकुल

शनिवार, 17 जुलाई 2021

मंडेला

कुछ कुचक्र इंसानों ने अपने लियें ऐसे बना रखे है कि उन्ही कुचक्रों से इंसानी समाज आजीवन निकलने का प्रयास करता रहता है। हाँ... नेल्सन मंडेला के साथ कुछ यही हुआ था। उन्हे ऐसे ही कुचक्रों में फँसाकर जीवन के महत्वपूर्ण कितने वर्ष जेल को समर्पित करने पर मजबूर कर दिया था। पूरा इंसानी समाज भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्गो व वर्णों में बँटा हुआ है। 

रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन चलाने के लिये मंडेला को 12 जुलाई 1964 से सन् 11 फरवरी 1990 तक जेल की सजा मोबीन द्वीप पर काटने के दौरान उनके उत्साह में आश्रितों को संगठित करने के मामले में कोई कमी नहीं आई थी। 10 मई 1994 को आप दक्षिण अफ्रीका के प्रथम राष्ट्रपति बने जो नई ऊर्जा का संचार कर देने वाला था।



जिस धरती पर अन्याय के खिलाफ की शुरुआत गांधी जी ने कई वर्ष पहले किया था गांधीजी के विचार धारा अहिंसा के पद चिन्हों पर चलते हुए उसी धरती पर भारत रत्न से विभूषित पहले विदेशी मंडेला ने फलीभूत किया।

आंदोलनों व त्याग की यही खूबियां होती है कि विरोधियों के हौसले पस्त कर देती हैं। वर्ष 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता मंडेला के इन्हीं छवि की वजह से दक्षिण अफ्रीका के लोग उन्हें राष्ट्रपिता मानते थे।

आज 18 जुलाई को उनका जन्मदिन है। 10 नवंबर, सन् 2009 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने रंगभेद विरोधी संघर्ष में उनके योगदान को देखते हुए प्रत्येक वर्ष के जन्मदिन 18 जुलाई को "मंडेला दिवस" घोषित किया।

@व्याकुल

बुधवार, 14 जुलाई 2021

तारणहार

इलाहाबाद में बारिश के समय नाव को बहते पानी में छोड़ना कितना सुखदाई लगता था। मैं और मेरे बचपन के कई मित्र कागज की नाव बनाकर पानी में छोड़ दिया करते थे। बड़ी अच्छी मित्रता हुआ करती थी। बारिश में केचुओं को इकट्ठा करना.. उनको इधर उधर भटकने ना देना हम सभी का शौक हुआ करता था। हम सभी के एक ही स्कूल व एक ही कक्षा थे। सिर्फ सोने के वक्त हम लोग अलग होते थे।

आज भी बरसात की वह दिन याद है जब मैंने कुछ आहट का आभास किया था जैसे अनिल के घर मारपीट चल रही हो। मेरी उम्र उस वक्त 8 वर्ष की होगी। मैं अबोध बालक देखता हूँ की अनिल के घर से ठेले पर घरेलू सामान लद कर जा रहे थे जो मेरे ह्रदय को विदीर्ण कर देने वाला थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतने घनघोर बारिश में कौन घर से बाहर निकलता है पर अनिल व उसके पूरे परिवार का इस तरह से निकलना दुखदाई था।

मैं पूछ भी नहीं सकता था की क्यों यहां से जा रहे हो??? और कहाँ के लिए???

मैंने अपनी मां से पूछा था, 

"अनिल कहां जा रहा है?" 

मां ने बोला था

"बेटा, यह उसका घर अब नहीं होगा।"

 मैंने पूछा, "क्यों माँ???" 

मां ने बताया, 

"उनके पिता इस घर को जूए में हार गए हैं।" 

मुझे तब जूए का अर्थ भी नहीं पता था। 

मैंने पूछा, "माँ, जूए में जो लोग मकान हार जाते हैं क्या उन्हें ऐसे मौसम में ही मकान छोड़ना होता है???" 

माँ ने मुझे गले लगा लिया था और बोला था, "नहीं बेटा!!!" 

मानवता जब मर जाती है तभी मानव को ऐसे हाल पर छोड़ दिया जाता है चाहे रेगिस्तान हो या बाढ़....

माँ की सुनाई कहानी मुझे स्मरण हो आया था..द्रोपदी का क्या हश्र हुआ होगा, उनके पास तो उनकी लाज बचाने को उस युग में कृष्ण थे क्या इस युग में कोई तारणहार बन सकेगा।

@व्याकुल

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

नियुक्ति पत्र

आज उसके नाम का एक पत्र प्राप्त हुआ। पत्र पढ़तें ही घर में कोहराम मच गया था। बहुत दिनों से राजेश कम्पटीशन की तैयारी कर रहा था। चार बहनों में राजेश सबसे छोटा था। बड़ी अपेक्षा थी सबकों राजेश से। किसी को कुछ समझ ही नही आ रहा था। घर के सारे सदस्यों ने एक-एक कर पत्र कों धुँधलें आँखों से ही देख पा रहे थें। पिछले वर्ष पिता के जाने के बाद से ही परिवार का सारा बोझ उस पर आ गया था। 

बी. एच यू. से बी. एस. सी. करने के बाद गॉव के ही छोटे से प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा था, साथ ही ट्यूशन भी पढ़ाया करता था। बहुत परिश्रमी था वो। बहनों की शादी उसने जो कुछ जमा-पूँजी थी उससे की। उसे अपने सफल होने का पूरा भरोसा था पर परीक्षा में असफल परिणाम आते ही मन ही मन टूटता चला गया था वों।

उसकी हालत दिन प्रतिदिन खराब होती गयी। नींद गायब हो गयी थी। लग रहा था जैसे जीवन वीरान हो गया हो। कोई सहारा देने वाला नही था सिवाय मॉ के। 

आज उसकी मॉ का अस्पताल में चेक हुआ। कैंसर का पता चला। कैसे बर्दाश्त कर पाता वों। गहरी निराशा में डूब चुका था वों। 


चाँद बिसराई भोर होत

सूरज हेराई शमवा के...


यही गाता रहा था पिछले कुछ दिनों से। गाँव में पड़ोस के घर शादी का माहौल था। घर के सभी सदस्य वही गये हुये थे। हताश राजेश दूर जा चुका था। 

नियुक्ति पत्र बेसहारा जमीन पर हवा के झोंको के आगोश में था।

@व्याकुल

शनिवार, 6 मार्च 2021

नारी

निषेध

हो

उन

दिवस

का

जो

लघु

करे

असंख्य

अनुभूतियों

का...


सींचती

हर

पल

प्रतिपल

निर्माण

करती

पूर्ण

देह

अस्तित्व

का..


अशक्त

है

अक्षरें

भी

जो

भर सके

रिक्त

वाक्य

मान

का...

@व्याकुल

#महिलादिवस

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

कलेवा - 1



शादी के मंडप पर बैठा राजन बहुत ही उदास था। उसने शादी के बहुत पहले ही रेडियो की माँग कर दी थी वो भी बुश कंपनी की। इधर कई बार पंडितों ने उसकी तंद्रा भंग की थी पर वह रेडियो के ख्यालों में डूबा था ।

समय कलेवा का था। राजन मुँह बनाए बैठा था। कलेवा शुरू कैसे करें। रेडियो तो दिखा ही नहीं । लड़की वाले भी राजन के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। तड़पा ही दिया था लगभग। तभी राजन के आँखों में चमक आ गई थी। बुश रेडियो को उसने देख लिया था ।

हंसी-खुशी विदाई के वक्त कार में एक तरफ दुल्हन तो दूसरी तरफ रेडियो था राजन के ।

दुल्हन की आंखों में आंसू था। पर राजन रेडियो के बटन को समझने में लगा था। उसने रेडियो ऑन ही किया था कि विविध भारती की चिर - परिचित संगीत सुनाई दी थी। तभी विविध भारती पर बज रहे एक गीत ने उसके खुशी पर पंख लगा दिया था।

'बाबुल का घर छोड़ के बेटी......'

राजन चकित था जैसे विविध भारती सब देख रहा हो।

दुल्हन ने फिर सुबकना शुरू कर दिया था।

राजन बहुत ही खुश था अब उसको नागेश के घर नहीं जाना पड़ेगा। गाना सुनने के लिए उसका सबसे पसंदीदा कार्यक्रम दोपहर के दो बजे का था। उस वक्त भोजपुरी गीत का कार्यक्रम होता था। 

शादी के अगले दिन राजन नीम के पेड़ के नीचे खाट पर लेटा हुआ था। उसके सर के पास रेडियो पर गाना बज रहा था। आज दो बजे जैसे ही पहला गाना शुरू हुआ वो झूम उठा था। 

'हे गंगा मैया, तोहे पियरी चढ़इबे...'

खेत - खलिहान कहीं भी जाता रेडियो साथ ही रहता। उसके शरीर का एक आवश्यक अंग बन चुका था। दिलीप कुमार का एक गाना सुनते ही नाचने लगा था वो.... 

'नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक....'

दुल्हन के सामने गाने की आवाज तेज कर देता था। वह प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करता पर दुल्हन को उसके रेडियो से चिढ़ हो गई थी। रेडियो को सौतन जैसे देखती थी वो।

रात को मनपसंद गीत सुनते - सुनते सो गया था वह। सुबह उठा तो रेडियो गायब था। बहुत परेशान था वह। रेडियो के बिना उसे लगा जैसे उसका प्राण निकल गया हो। 

शायद दुल्हन की आँखों को खटकती वो सौतन बलि चढ़ गयी।

@व्याकुल

अकथ


 


बनारस की संकरी गलियों में उसका मकान था। उस शाम को उसने घर पर बुलाया था। बस कॉलेज से घर आते ही शाम का इंतजार। चाय भी शायद उस शाम को नहीं पिया था। 


कुछ दिन पहले उससे मुलाकात चाय की दुकान पर हुई थी। उसका परिवार मूलतः आसाम से था। उसकी चेहरे की बनावट काफी कुछ असमियों जैसी ही थी । मेरे पास चाय वाले को देने के लिए फुटकर पैसे नहीं थे । उसने तुरंत मेरे भी पैसे दे दिए थे । मैं मना करता तब तक दुकान वाले ने पैसे अपने गुल्लक में रख लिए थे । चलते वक्त बस संक्षिप्त परिचय हो पाया था। उस दिन के बाद आज फिर कॉलेज के कैंटीन में मुलाकात हो गई थी। उसके घर बुलाने के निवेदन को ठुकरा नहीं पाया था। 


मद्धम ठंड थी सफेद शॉल तन पर था। किसी पुराने फिल्म के हीरो की तरह शॉल ओढ़े चल पड़ा था । उसके घर का पता एक - दो बार ही पूछना पड़ा था। 


बहुत पुराना मकान था किसी हवेली जैसा। छोटें छोटें कमरे थे छतें उँची। मुझे उसने बड़े सत्कार से बैठाया था। फाइन आर्ट की छात्रा थी वो। मुझसे बहुत देर तक पेंटिंग इत्यादि के विषय में बात करती रही थी। मैं एक अबोध बालक की तरह उसके ज्ञान से सराबोर होता रहा था। तभी चाय का दौर चला फिर उसने पूरे परिवार से परिचय कराया था। बहुत ही खुश मिजाज थी। अलग-अलग विषय के विद्यार्थी होने के बावजूद अपने भारतीय संस्कृति के मुद्दे पर हम एक थे। शायद यही कारण था हमारी मुलाकात का दौर थमा नहीं। पूरे छः महीने तक चलता रहा।


उसके घर के सारे सदस्य प्रगतिशील थे। कभी कोई रोक - टोक नहीं। कभी-कभी शाम को घाट पर भी बैठ जाया करते थे हम लोग। एक दिन उसको पता नहीं क्या हो गया था। बोली थी, 


'नए वर्ष में क्या प्लान है दिनेश जी।'


मैं चुप था।


नए वर्ष का आगमन हो गया था। मैं वर्ष के पहले दिन उसके घर गया भी था। ताला बंद था। सोचा, शायद वो लोग कहीं घूमने गये हों। आज की तरह उस जमाने में मोबाइल तो था नहीं। कई बार उसके घर गया। मायूस लौट जाता था। 


होली की छुट्टियां होने वाली थी। अपने गांव जाने से पहले उससे मिल लेना चाहता था। घर के दरवाजे की जैसे ही कॉल बेल बजाई उसके पापा ने दरवाजा खोला। बड़ी ढाढ़ी बेतरतीब बाल। मैंने उनके पैर छुए तो बिना कुछ बोले ड्राइंग रूम में आने का इशारा किया था। मै चुपचाप ड्राइंग रूम में बैठ गया था। थोड़ी देर बाद उन्होनें मुझे एक चमकीले कागज में बँधा हुआ एक सामान दिया। सामान देने के बाद उनकी आंखों में आंसू फूट पड़े थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। 


"बेटा, उसे कैंसर हो गया था अब वो नहीं रही।" 


मैं अवाक रह गया था। 


मेरे हाथों में उसकी बनाई हुई अंतिम तस्वीर जिसमें उसके साथ मैं भी था व कैंटीन का वही कोने वाला टेबल था।


मैं ठगा सा चुपचाप अपने लॉज के रास्ते पर था।


@विपिन "व्याकुल"

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

यादों को बाँधू तो कैसे


यादों को बाँधू तो कैसे

शिकन पेशानी पर यूँ बढ़ती रही
लम्हें भी टूट कर बिखर जाते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

गम को मेरा गम देखा जाता न रहा
खून के घूँट आँखों में उतर जाते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों के दरख्त भी अब रूठ से गये
पसीने बन चाँदनी रात भिगोते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे






पन्नों पर लिखी इबारत कैसे पलटते
हर्फ भी नजरों को धोखा देते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादें ही थी मिटती रही जेहन से
चश्में भी दिमाग को लगते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों को "व्याकुल" सहेजते कैसे
जो बेचैन से दर-बदर घुटते रहे 
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों को बाँधू तो कैसे

@विपिन "व्याकुल"





शुक्रवार, 26 जून 2020

नाना


नाना स्वर्गीय पं. राम नारायण पाण्डेय, जिनका आज पुण्य तिथि है, को सत् सत् नमन।💐💐🙏🏻🙏🏻

आपका जन्म सन् 1921 के आस पास ग्राम शुकुलपुर, मेजा, जनपद इलाहाबाद हुआ था। आपने वकालत सन् 1947 में डिस्ट्रिकट कोर्ट में  शुरूआत की थी। आप दीवानी के वरिष्ठ वकील थे। 

नाना जी को पूरे मोहल्लें वाले व रिश्तेदार "काका" कह कर बुलाते थे।

आप प्रखर वक्ता व तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। बहुत ही अनुशासित व साहसी व्यक्तित्व के धनी थे। डर नाम का शब्द तो आपके शब्दकोश में था ही नही। सैकड़ों ऐसे उदाहरण रहे है जिनसे आपके निडरता का परिचय मिलता है। अपनी बात को तर्क से सिद्ध करते थे। वाक् पटू थे आप। आपसे तात्कालिक डी. एम. भूरे लाल प्रभावित रहते थे।

आप पूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी रहे है। कोई ऐसी विधा नही जहां आप दखल न रखते रहे हो प्रमुख रूप से चाहे वों राजनीति हो या सामाजिक क्षेत्र या धार्मिक क्षेत्र इत्यादि। आपने पूरे भारत का भ्रमण किया है। यहॉ तक की अंडमान निकोबार तक का भी।

आप हिन्दू महासभा से जुड़े रहें हैं। गोडसे के ज्येष्ठ भ्राता इत्यादि से घनिष्ठ संबंध रहा है। आप राष्ट्रीय शिव सेना से भी जुड़े रहे है। आप विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके है जिसमें आप सन् 1974 में चौधरी चरण सिंह जी की पार्टी "भारतीय क्रांति दल" से प्रत्याशी थें।  आप राजनीति मेें अत्यन्त सक्रिय रहे है। 

आप धार्मिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका अदा करते थे। मीरापुर, प्रयागराज रामलीला कमेटी के अध्यक्ष रहे है।

आपकी बार काउंसिल के चुनावों में भी सक्रियता व उम्मीदवारी रही है। आप बी. एच. यू., ए. डी. ए. व कई सरकारी विभागों के लीगल एडवाइजर थे। आप हर एक केस को अपनी डायरी में लिखते थे जीतने व हारने की वजह भी उल्लिखित किया करते थे। इससे आपकें वकालत व्यवसाय के प्रति समर्पण के भाव का पता चलता है। आप राम चन्द्र मिशन की तरफ से मुकदमे की पैरवी हेतु दक्षिण अफ्रीका भी जा चुके है।

आप शिक्षा जगत से भी जुड़े रहे है। कई स्कूलों के प्रबन्ध कमेटियों में भी रहे है।

आप 78 वर्ष की आयु में (27 जून, 1999 को) हम सबकों असहाय कर गोलोकवासी हो गये।

आज आपकें पुण्यतिथि पर पुनः आपकों सत् सत् नमन करता हूँ💐💐💐🙏🏻🙏🏻


सोमवार, 4 मई 2020

प्याला

बरबाद गुलिस्ता करने को एक ही प्याला काफी है।

आज ऐसे ही आभासी दुनिया में भ्रमण करते रहने पर पाया कि पंजाब में आँख में डालने वाली दवा को  'दारू' शब्द से नवाजा जाता है। वैसे है ये बड़ा ही ठेठ शब्द। गँवरपन का एहसास होता है। ठेका से भी कम स्तरी का बोध होता है।

बेवड़ा से भी कुछ देशीपन व घटिया स्तर का अहसास होता है।

सुरा शब्द से तो इसके प्राचीनता का आभास होता है जैसे कलयुग से अनन्त युग पीछे चले गये हो।

कविताओं का शौक जैसे ही बढ़ा और बच्चन साहब को सुना 'मदिरालय' 'मधुशाला' सुनने को मिली।

गजल सुनने पर मयखाना बहुत सुनने को मिलता था, है ये उर्दू शब्द।

जो अपने को आधुनिक समझते है वो ब्रांडी रम इत्यादि से खुश हो लेते है। हॉ, अगर पैसा न हो तो देशी से भी काम चला लेते होंगे चुपके चुपके।

ऐसे ही एक टीचर थे हमारे। तनख्वाह मिलने के कुछ दिन तक सीगार पीते थे पैसा जैसे ही कम होने लगता था सिगरेट पर आ जाते थे। अंतिम के पाँच दिन बीड़ी का सुट्टा लगाते थे।

आगे फिर कभी.......

@व्याकुल

रविवार, 19 अप्रैल 2020

मोहल्ला

                               चित्र स्रोत: गूगल

गुलजार सा'ब की पंक्तियाँ याद आ ही जाती है जब अपना मोहल्ला सोचता हूँ-

मिरे मोहल्ले का आसमां सूना हो गया है।
बुलंदियों पर अब आकर पेंचे लड़ाए कोई।।

मोहल्ला न कहिये इसे। संस्कृति का मजबूत अनौपचारिक केंद्र। भाषा में ठेठपन लिये आचार विचार में एकसमान।

मोहल्ला में हल्ला शब्द भी कमाल करता है। ये न हो तो मोहल्ला का भी कोई अस्तित्व है क्या।

मेरे मोहल्ले में एक हल्ला गुरू रहते थे एक बार अगर बाँग दे दिये तो क्या मजाल कोई सोता रह जायें।

हर मोहल्ले की अलग अलग संस्कृति होती है। रंगबाजी भी अलग टाईप की। मजाल कोई दूसरा वहाँ आ जायें।

हर शहर के कुछ मोहल्ले वहाँ की जाति के नाम पर भी होते थे। कुछ मोहल्ले का नाम किसी खास व्यक्ति के नाम पर। जरूर वो व्यक्ति अपने जमाने से आगे रहा होगा।

मेरे हिसाब से तो परफेक्ट मोहल्ला वही होता है जहाँ अपने मकान के चबूतरें पर बैठे बैठे सामने अपने चबूतरे पर बैठे हुए से अनवरत बात हो सके

नये मोहल्लों में वो बात कहा। पता पूछने निकल जाओं तो सांय-सांय की आवाज या घर से भूँकते कुत्ते।
पुराने मोहल्ले मे किसी का पता पूछो तो पूरा खानदान का हुलिया बताने के साथ साथ घर तक पहुँचा कर ही दम लेते है।

जब आप शहर से दूर होते है तो वही पुराने मोहल्ले ही स्मृतियों मे रह जाते है। होली पर तो उन्ही पुराने मोहल्लों की सैर हो जाया करती थी जो उत्साह व उमंग वहाँ देखने को मिलता है वो बात भद्र लोक में नही आ सकती।

तभी तो गुलजार सा'ब भी कह ही देते है -

बचपन में भरी दूपहरी में नाप आते थे पूरा मोहल्ला।
जब से डिग्रीयां समझ में आई पाँव जलने लगे।।

मै भी कहा मानने वाला हूँ हँसते रहे हँसने वाले। सलीम अहमद की शेर को फलीभूत कर ही देता हूँ -

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं।
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ।।

@व्याकुल

सोमवार, 26 फ़रवरी 2018

नाम

एक बात तो समझ में आती है की सिर्फ नाम अच्छे हो जाने से ही प्रसिद्धि नही मिलती... कभी कभी यह देखने में आता है इतिहास में खलनायक के रूप में प्रसिद्द व्यक्ति का नाम रखने से भी कुछ अच्छा हो जाता है.. लोग नामकरण को लेकर परेशान रहते है... नाम कुछ भी रखिये संस्कार जबरदस्त होने चाहिए... मेरे यहाँ एक विद्यार्थी जिसका नाम दुर्योधन था, बड़ा ही शर्मिला था, जब पूूँछू ये नाम क्यों रखा, हमेशा बोलता सर नाम में क्या रखा है... 

चिढ़ाने के लिये कोई भी नाम रखा जा सकता है... रावण.. कंस इत्यादि इत्यादि। किसी से खफा है तो पक्के तौर पर खलनायक नामों से नवाजते है। एक शख़्स तो अपने ही पिता से इतना चिढ़ते थे कि उनका नाम डॉ डैंग ही रख दिया। ये नाम शायद किसी फिल्मी खलनायक का था। फिल्मी खलनायकों के नाम भी गज़ब ढाते है। गब्बर को ही ले लीजिये। गब्बर नाम कोस- कोस ही नही देश-देश में चल निकला।

हमारे एक मिलने वाले अपने पड़ोसियों के नाम लालटेन-ढिबरी रखे थे।अब बताइयें क्या करेगा पड़ोसी...

भाई अब कानपुर में ठग्गू के लड्डू की ही बात कर लो.. इसमें बुराई क्या है.. जबरदस्त व्यवसाय चल रहा है.. बदनाम चाय ही देख लो काकादेव का.. बुरा नाम रख लो कंस,दुर्योधन, या इस टाइप से कुछ भी.. अगर आप सफल हो गए तो इन नामो को भी मोक्ष मिल जाएगा.. 

@व्याकुल

बुद्धुबक्सा

1984 - 85 की इलाहाबाद की वो शाम आज भी याद है जब खेल के मैदान में पहुचा था तो पूरा सन्नाटा था.. पता लगा की सभी साथी कुमार मंगलम चतुर्वेदी (जो मुझसे बड़े और एक कक्षा आगे थे ) के घर टीवी देखने गए है.. मैं भी पहुच गया.. सभी लोग जमीन पर बैठे फ़िल्म देख रहे है..अद्भुत था वो दृश्य और आज भी नही भूलता... शारीरिक स्वस्थ्यता एक बड़ा प्रश्न रहा है.. फिर कभी उतनी भीड़ नही देखी खेल के मैदानों में.. लोग कम होते गए.. मुझे तो अब भी बड़ी अभिलाषा है.. उसी कब्रिस्तान, जो कभी हम लोगो के लिए खेल का मैदान हुआ करता था, वापस आ जाय.. हम लोग.. बुनियाद.. वाह जनाब.. जैसे टी. वी. सीरियल अपनी धाक जमा रहे थे.. रविवार की सुबह आँख खुलते ही चित्रहार पर अटक जाती थी.. फिर शुक्रवार की रात में फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ..बुद्धुबक्सा की बात बिना रामायण व महाभारत के की ही नही जा सकती... सन्नाटा पसर जाता था गॉवों में.. शोले फिल्म का डॉयलाग याद आ जाता था.. "इतना सन्नाटा क्यों है भाई..."

कितने पुरानी फिल्मों पर दिल अटक जाता था.. अभी तक हैंगर की तरह वैसे ही अटका हुआ है...

@व्याकुल

हाला

(कॉलोनी के सामने मधुशाला। बगल में स्कूल व सामने विश्वविद्यालय)

मेरे कॉलोनी के सामने वाली सड़क पर अचानक निगाह गयी.. देखता रह गया .. इतनी भीड़.. वहाँ कभी रेस्टोरेंट हुआ करता था.. जहाँ शायद ही कभी भीड़ दिख जाए.. देखा तो पता चला की बच्चन साहब की हाला रंग जमाये हुए है.. क्या बूढ़े क्या जवान.. सभी अपने ख़ुशी और गम को एक ही जंक्शन पर आदान प्रदान करते देखे जा सकते है.. इशारों इशारों में बात करते.. कुछ बड़े लोग गाड़़ियों में ही बैठकर अपने चेले से सहायक सामग्री मंगाकर रसपान कर रहे है.. बगल में बैठी सरस्वती कुढ़ती हुई झांकने का प्रयास करती की इसी मधुशाला पर कितनी बार कविता पाठ हो गयी और विद्वता अपने गहरे सागर में गोते लगाई..आज इसी सरस्वती को इस दुर्दशा.. कितनी बार कहा जा चुका है मन पर नियंत्रण नही तो कुछ भी नही। अब मन को एकाग्रता का इतना अचूक साधन.. विद्यार्थियो को 'काक चेष्टा बको ध्यानम्' जैसा मूल मन्त्र के इससे कारगर उपाय.. एक बार जो लत लगी फिर भटकने की आवश्यकता नही..सिर्फ और सिर्फ इसी की धुन फिर तो कुछ भी संभव.. भटकने का सवाल ही नही.. बाल स्कूल तो है ही ..वही से लत लग गयी तो तकनीकी विश्वविद्यालय तक तो गूँज रहेगी ही... 
@व्याकुल

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

फ्यूजनामा...



पता नही क्यों.. कौन किसको फ्यूज कर रहा.. चचा भतीजे को फ्यूज कर रहे या भतीजे चचा को.. पब्लिक सुन सुन कर फ्यूज हो रही.. अमर चचा कन फ्यूज हो रहे.. कन फ्यूजड रामपुर वाले चचा राय दे दे कर करेंट दे रहे.. पुरा हिन्दुस्तान फ्यूज हो रहा.. नोट बंदी से नेता फ्यूज हो गये... कुछ अभी ये सोच कर फ्यूज है की पूरा हिन्दुस्तान कब सस्ता होगा.. मफ़लर वाले छद्म नेता भी फ्यूज है अब दाँव पर दाँव मिल रहे.. सुभाष बाबू और शास्त्री जी  के सूची में अम्मा को शामिल किये जाने के प्रयास से  फ्यूज वाले कन फ्यूज हो रहे है... पाकिस्तानी भी फ्यूज है ट्रम्प से.. ट्रम्प का चुनावी स्टंट था या भारत प्रेम.. सभी फ्यूज है आप फ्यूज तो नही हो रहे.. 

फ्यूज जादा न होइये..मरम्मत मुश्किल है.. सीधे मोक्ष है इसमे.. 

@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...