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शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

चाणक्य के जासूस

श्री त्रिलोक नाथ पांडे द्वारा लिखित "चाणक्य के जासूस" उपन्यास, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, एक अत्यंत ही रोचक उपन्यास है जो यह दर्शाता है कि राजनीति रंगमंच में पर्दे के पीछे की कूटनीति कैसे होती है। पढ़ते वक्त कई बार ऐसा लगा कि मैं ईसापूर्व की शताब्दियों में चला गया हूँ। उपन्यास की खूबी यह है कि इसने शुरू से लेकर अंत तक बाँधे रखा। शब्दों का चयन बखूबी किया गया है। पुस्तक गुप्तचर्या का सटीक वर्णन करती है जो कि बहुत ही रोचक था।



आपने अपने उपन्यास में एक जगह उल्लेख किया है "प्रागेव विग्रहो न विधिः" हमेशा से ही ग्राही रही है जो कि आज के माहौल में बड़ी ही समीचीन लगती है।

लेखक ने एक जगह उल्लेख किया है कि व्यक्तिधर्म से बड़ा राजधर्म है। राज धर्म से बड़ा है राष्ट्रधर्म। यह बात भी आत्मसात करने लायक है।

लेखक ने गुप्तचर्या को इतनी बारीकी से वर्णन किया है कि यदि किसी को इस विधा में पारंगत होना है तो उसे इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।

चिकित्सा जगत के पितामह चरक को तो हम लोग सुनते आए हैं पर चाणक्य समकालीन थे यह आपके उपन्यास द्वारा ही पता लगा।

एक जगह लेखक द्वारा गणिकाओं के बारे में यह लिखा गया है (जो एक स्त्री अपने मनोभावों को प्रकट करती है) "एक संवेदनशील स्त्री, जो परिस्थितिवश अपना तन बेचने के लिए विवश होती हैं लेकिन, वह अपना मन नहीं बेचती। मन तो वह उसे देती हैं जिसे वह देना चाहती हैं और इसका वह कोई शुल्क नहीं लेती।"

अंत में लेखक की पुस्तक का सर्वश्रेष्ठ वाक्य जो मेरे ह्रदय को छू गया "सम्राट की कृपा साधक की साधना भ्रष्ट कर देती है। वह स्वतंत्र और निर्भीक चिंतक नहीं रह पाता।" यह वाक्य सीख देती है तमाम उन कलयुगी साधकों को जो इनाम या पुरस्कार पाने तिकड़म मे लगे रहते है।

ऐसी पुस्तक बार-बार पढ़ने को क्यों नही दिल करेगा.....जहॉ शोध का निष्कर्ष परिलक्षित होता है...

साधु!!!!!

साधु!!!!!


@व्याकुल

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