"चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा ।
सोना के कटोरिया में दूध भात लै लै आवा
बबुआ के मुंहवा में घुटूं ।।"
आवाहूं उतरी आवा हमारी मुंडेर, कब से पुकारिले भईल बड़ी देर ।
भईल बड़ी देर हां बाबू को लागल भूख ।
ऐ चंदा मामा ।।
मनवा हमार अब लागे कहीं ना, रहिलै देख घड़ी बाबू के बिना
एक घड़ी हमरा को लागै सौ जून ।
ऐ चंदा मामा ।।
बचपन में ये गाना सुनता रहा हूँ... खाना खाने का मन न होते हुये भी मुँह खुल जाता था। ये गाना सुनकर लगता था चंदा रूपी मामा बस आने ही वाले है। मुझे लगता है 70 व 80 के दशक में घर-घर तक बहुत ही लोकप्रिय था ये गाना। इस गाने के बोल अवधी बोली के पर्याय है। इस गाने को लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी सुल्तानपुर के थे तो स्वाभाविक है।
ऐसी अवधी गीत को गाने व जन-जन तक ले जानी वाली सुर कोकिला को मेरा नमन....आज दिनांक 6 फरवरी, 2022 को उनकी पुुुण्य तिथि पर मेरी भावपूर्ण श्रृद्धांजलि...
@व्याकुल