अल्फ्रेड पार्क ही जनसामान्य के बीच प्रसिद्ध था... स्टेडियम का नाम.. जिसे हम आज मदन मोहन मालवीय स्टेडियम कहते है। स्टूडेंट गैलरी के भी अपने अफसाने है। बूआ के लड़के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे, मुझसे पूछे थे, "चलना है दलीप वेंगसरकर (वेंगी) को देखने।"
लोगो का नही पता पर मुझे क्रिकेट खिलाड़ियों में वेंगी की बैटिंग भाता था बहुत।
मै मना क्यों करता।
चल पड़े हीरों साईकिल पर सवार हो के। बात ये थी 1986 की। किरन मोरे.. वेंगी.. चंद्रकांत पंडित.. संदीप पाटिल... राष्ट्रीय स्तर के खेल में इतने दिग्गजों का ही होना बहुत होता था। टिकट लिया गया.. तमाम जाँच पड़ताल के बाद घुस लिये। स्टूडेंट गैलरी की सीढ़ियों में तीर्थयात्रियों के बीच बैठे मैच का रसास्वादन क्या लेता... आधा किलों मूँगफली खाते रहे.. खिलाड़ी और मैच दोनों समझ न आते रहे...खिलाड़ियों के बाउंड्रीवाल पर आने के बाद ही कुछ समझ आता था... तभी बगल में एक सज्जन जो काफी देर से कबीरा गा रहे थे... चपाक से चरण पादूका पड़ी...फिर क्या था???? असली मैच इन सीढ़ियों पर होने लगा... मै और भाई धीरे-धीरे सरक लियें... सुना था कभी भगदड़ हुआ था किसी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मैच में... इलाहाबाद की धरा तो वैसे भी भीड़ संभालने में अभ्यस्त है फिर मैच में असंयम क्यों??? मेरे कानों में आज भी वही कबीरा गूँजा करता है...हसरते ही रह गयी प्रयागराज में एक और कोई किरकिट मैच का....
©️व्याकुल