बरबाद गुलिस्ता करने को एक ही प्याला काफी है।
आज ऐसे ही आभासी दुनिया में भ्रमण करते रहने पर पाया कि पंजाब में आँख में डालने वाली दवा को 'दारू' शब्द से नवाजा जाता है। वैसे है ये बड़ा ही ठेठ शब्द। गँवरपन का एहसास होता है। ठेका से भी कम स्तरी का बोध होता है।
बेवड़ा से भी कुछ देशीपन व घटिया स्तर का अहसास होता है।
सुरा शब्द से तो इसके प्राचीनता का आभास होता है जैसे कलयुग से अनन्त युग पीछे चले गये हो।
कविताओं का शौक जैसे ही बढ़ा और बच्चन साहब को सुना 'मदिरालय' 'मधुशाला' सुनने को मिली।
गजल सुनने पर मयखाना बहुत सुनने को मिलता था, है ये उर्दू शब्द।
जो अपने को आधुनिक समझते है वो ब्रांडी रम इत्यादि से खुश हो लेते है। हॉ, अगर पैसा न हो तो देशी से भी काम चला लेते होंगे चुपके चुपके।
ऐसे ही एक टीचर थे हमारे। तनख्वाह मिलने के कुछ दिन तक सीगार पीते थे पैसा जैसे ही कम होने लगता था सिगरेट पर आ जाते थे। अंतिम के पाँच दिन बीड़ी का सुट्टा लगाते थे।
आगे फिर कभी.......
@व्याकुल