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बुधवार, 1 सितंबर 2021

तुम

सफर थकाने वाला रहा

आप से तुम तक का 

कल तक मर्यादाए थी

तुम बोल पाने में...


तुम भी बैचेन थी

लकीर तुम्हे भायी नही थी

वर्जनाओं को

तार-तार तुम्हीं ने की थी..


कल स्वप्न देखा था

लहरों को आगोश में लेते हुए

सुबह शुन्य में

विचरण करता रहा


गुँजता रहा कानों में

तुम का घोल

पिघलते रहे आप

बेसबब....


@व्याकुल

गुरुवार, 17 जून 2021

उन्मुक्त


उन्मुक्त की
परिभाषाएं
कैसे गढूँ????

गौतम बन
जाऊँ
या
लूँ कमंडली
ठौर कर लूँ
हिमालय का...

भाग
लूँ
जैसे
कभी भागा
था
जिद्द थी
मॉ से...

अचेतन
सा
स्थिर
हो जाऊँ
और
विलीन
कर लूँ
खुद में...
@व्याकुल

रविवार, 13 जून 2021

वाह रे रक्त!!!!!

 



रक्त रक्त बह चले

संकरी सी राह में

बाँधते ये देह को

लौह सा प्यार लिये


ताल ताल मिला रहे

धक् धक् कदम यें

रुके नही थके नही

सरपट से ये दौड़ते


कर्ण से न सीखते

सीख लिये मॉ से

सतत् सिंचित रहे

अथक अंधकार में


चार ये गुण लिये

सुत जैसे सरयु के

बिंध दे वैरी को

रक्त ये उतार के


@व्याकुल

बुधवार, 9 जून 2021

अन्तर्मन

सूना सूना जग लगे

मोह मोह सा त्यागे..


सन सन से लागे

मन मन ये भागे..


रुके रुके ठगे ठगे

कदम यूँ टँगे टँगे..


भूले भूले अपने लगे

खून खून पानी लगे..


भले भले क्यों लगे

काम तलाशने लगे..


लुटे लुटे मिटे मिटे

सगे सगे मुड़े मुड़े..


बहे बहे अविरल यें

क्यों रहें "व्याकुल" से..


©️व्याकुल

शनिवार, 6 मार्च 2021

नारी

निषेध

हो

उन

दिवस

का

जो

लघु

करे

असंख्य

अनुभूतियों

का...


सींचती

हर

पल

प्रतिपल

निर्माण

करती

पूर्ण

देह

अस्तित्व

का..


अशक्त

है

अक्षरें

भी

जो

भर सके

रिक्त

वाक्य

मान

का...

@व्याकुल

#महिलादिवस

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लट्ठ

गये थे फिरने गलियन में
नाकाबिल है फिरन को

दर्शन करन लट्ठधारन को
लउट आयेन पश्च मालामालन को

मुँह बाँध न पावें बाबा घूमन को
बन हनु उदास लौटे दुआरन को

सूजत मुँह दोष देत भ्रमरन को
करत मन ही मन पश्चातापन् को

मन ललचावत ढेहरी से खेलन् को
चोंगा तरबतर  हुई जात पसीनन को

दिन में देखत सपन को रोना को
पलक उलट गयों अनिन्द्रन को

फँस गयें बीच दिल दिमागन कों
"व्याकुल" है बड़ी उलझन कों

@व्याकुल

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

गुमशुदा

मत पूछ धुँआ क्यों उड़ा रहा हूँ
उदासियाँ पिघल रही हो जैसें

ढरक गये अश्क जो पोरो से
गमों का सागर उमड़ आया हो जैसें

सिलवटें बता रही बिस्तर की
ख्वाबों को भुला आया हो जैसें

चला गया आज उसी मोड़ पर
खबर उसने भिजवा दिया हो जैसें

बुत बना रह गया आज उसी जगह
राहे जुदा हो गयी हो जैसें

मुस्कुराता रहा जमाने भर से
दर्द छुपा रहा हो जैसें

हाथ जो मिलाता रह गया उनसे
खुद कही गुम हो गया हो जैसें

@विपिन "व्याकुल"

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

चेहरे नदारद से क्यो हैं
जमीदोंज हुई ये रोनकें
हर तरफ खौफ सा सन्नाटा क्यों हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

बालों पर पड़े न धूलों की गुबार
न सड़कों पर आदमियों के धक्कें
ढूँढ रही अपनों को क्यों है
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

लाशों पर उदासियाँ सी है
सनद फाँकों का है या कुछ और
सूखी बूँदों की लकीरें चेहरे पर क्यों है
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

क्यों ढूंढ रहा तुझे दरबदर
बेजूबान से क्यों हो
हर शख्स के मुँह पर ताले क्यो हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

शक से भरी ये निगाहें
ढूँढ रही कातिलों को जैसे
खता से यूँ बेखबर हर शख्स क्यों हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

@व्याकुल

मार्च

मार्च बहुत रुलाता है..

कलम बहुत चलवाता है
छुट्टी ये रुकवाता है
कमर ये तुड़वाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

चिंता ये दिलवाता है
परीक्षा ये करवाता है
गर्मी ये बढ़वाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

बारिश जब हो जाता है
रबी फसल हिल जाता है
हाल बुरा हो जाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

विवाह जब पड़ जाता है
कोई आ नही पाता है
यादे ही रह जाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

त्योहार भी आ जाता है
खर्च ये बढ़वाता है
टैक्स भी कटवाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

@व्याकुल

गुरुवार, 26 मार्च 2020

होली

होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!

स्वाँग रचु गोरी का
या ढपली का थाप
बजाऊँ
या फगुआ अलापू
होरी मनाऊँ कैसे

ऊपले चुराऊ
दहन को
या लट्ठ खाऊँ
जोर की
होरी मनाऊँ कैसे

बनारसी रँग में
ढल जाऊँ
या भंग का
नशा कर लूँ
होरी मनाऊँ कैसे

गुझियाँ चखु
गुड़ की
या होरहा
खाऊँ
होरी मनाऊँ कैसे

पोत लूँ
हरा पीला
या छूपा लूँ
रंगभेद
होरी मनाऊँ कैसे

बासंतिक बयार
में डूबू
या झूम जाऊँ
बौर में
होरी मनाऊँ कैसे

गुलाल लपेट
लूँ
गले में
या भोला बन
विषधारी बनु
होरी मनाऊँ कैसे!!!!!


होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!
होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!

@व्याकुल

सिर्फ तू

मेरे रोम रोम में
नस नस में
सिर्फ तू
और तू
कैसे कहू
तू
कहाँ नही..

हँसता भी
हूँ
तो
खिलखिलाहट
भी तू
रोता हूँ
तो
बेचैनी
भी तू..

इबादत
में भी
सिर्फ तू
करवटें
जब भी
ली
अचैतन्य
में भी
तू..

क्यों समा
से
गये हो
ये
प्रश्न है
तुझसे
हाँ
तुझसे ही..

हाँ
एक बात
जाना तो
साथ
ही जाना
अकेले
गये
तो
किसी को
मै नही
दिखुँगा
हाँ पर
निष्प्राण
अवश्य
हो
जाऊँगा..

@व्याकुल

अधुना


आओं
गढ़ ले
नित नयी
परिभाषाएं
मूँद ले
आँखो कों
और
कलियुगी
पूर्णत्व को
सिधार जायें....

@व्याकुल

बुधवार, 25 मार्च 2020

अधूरी चाह


लूट ही लूट जब मचा हों
पेट तब भी न भर रहा हों
भूखे पेट घूम आना किसी
गरीब बस्ती में..

अहं जब चरम पर हों
खुद को जब इन्द्र समझने लगना
कृष्ण बन छतरी तान आना किसी
गरीब बस्ती में...

कबीर जब बनना हों
या वीणा धारिणी तपस्वी होना हो
कुछ अक्षर उकेर आना किसी
गरीब बस्ती में...

भरी थाली खिसकाने का मन हो
या अन्न देव भा न रहे हो
रोटी के दो टुकड़े खा आना किसी
गरीब बस्ती में...

सम्मान न आ रहा हो मातृ का
या चरित्र शोषक का बन गया हों
स्त्री सा जीवन जी आना किसी
गरीब बस्ती में...

@व्याकुल

अभाव


शिकायत
करूँ किससें
उस
लखन से
या पालनहार राम से
जो अब
तारण को
दिखते नही
क्यों
महीन सी
रेखा खींच
दी
गरीबी-अमीरी
की....


कलियुगी
दशानन
के
छुपे नौ
मुख
ऊपर से
आडंबर
करते
तारण का...


छद्म 
भेष धर
करे
हरण 
और
कर दें
तार-तार
गरीब की
मासूमियत
का..

@व्याकुल

शनिवार, 3 मार्च 2018

गॉव

जब से गाँव छूटा
पोखरा और तालाब छूटा
द्वारे क रहटा छूटा
तारा (तालाब) क नहाब छूटा
आती पाती क खेल छूटा
सुरेश क द्वारे सुर्रा पट्टी छूटा
दया क बाबू क राग छूटा
दूसरे क पेड़े क आम छूटा
बबा क कठ बईठी छूटा
 दोस्तन क साथ छूटा
दिन भर क मस्ती छूटा
सुदामा क पुरवा छूटा
सूबेदार क बार (बाल) छूटा
खलीफा क तार छूटा
इस्राइल क बात छूटा
भैंसिया पर बईठई क लाग छूटा
गाव क नाच छूटा
कुकुर क दौडाउब छूटा
उखी क चुहब छूटा
होलिका क चुराउब छूटा
होलई क फाग छूटा
बाबू क डांट छूटा
अम्मा क प्यार छूटा
एक एक कर सब कुछ छूटा
मनई से मनई क प्यार छूटा...
@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...