गतांक से आगे...
एक सुबह तो हद ही हो गयी। घर के ड्राइंग रूम में बैठा साकेत पापा को समझा रहा था, "अंकल, एडमिशन का आप चिंता नही करियेगा। लखनऊ विश्वविद्यालय में मै सब करवा दूँगा"
पापा उस पर बहुत विश्वास कर उसकी हॉ में हॉ मिला रहे थे।
मेरा एडमिशन उसने लखनऊ विश्वविद्यालय में करवा दिया था। हॉस्टल में मै रहने लगी। अब लखनऊ से अपने घर ज्यादातर उसके साथ आने-जाने लगी।
साकेत मेरा बहुत ख्याल रखने लगा। प्रथम वर्ष पूर्ण होने पर एक दिन छुट्टियों में मेरे घर आया। पापा उस पर बहुत विश्वास करने लगे थे।
"अंकल, क्यों न अवनि अगले वर्ष से मेरे चाचा के घर रहे???"
"ठीक है बेटा, जैसा तुम उचित समझों"
फिर क्या था, अब मेरा बसेरा उसके चाचा के घर हो गया। साकेत भी ज्यादातर समय लखनऊ और मेरा ध्यान रखने लगा।
अब तो जैसे मुझे उसकी आदत ही पड़ गयी थी। कब उसके प्यार में आ गयी, पता ही नही चला।
इस बीच साकेत के चाचा का ट्रांसफर हो चुका था। अब उस मकान में सिर्फ मै और साकेत ही थे। मैने अपने घर वालो से चाचा के ट्रांसफर की बात छुपा रखी थी।
मेरे स्नातक तक हम दोनों पत्नी-पति जैसे ही रहे।
मेरा स्नातक पूर्ण हुआ ही था किं एक दर्दनाक घटना घटित हो गयीं। मेरे पापा का देहांत सड़क दुर्घटना में हो गया। भाई छोटा था और कोई कमाने वाला नही। मै वापस अपने शहर एक छोटे स्कूल में टीचिंग करने लगी थी।
साकेत से प्रगाढ़ता बनी रही। वों मुझे ढाढ़स बँधाया करता था।
मेरे घर की माली हालत खराब होती रही। मॉ व पिता दोनों हम भाई-बहन को अनाथ कर बहुत दूर जा चुके थे।
क्रमशः
©️व्याकुल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें