FOLLOWER

सोमवार, 18 जुलाई 2022

एक्स्ट्रा क्लास



आज बहुत दिनों बाद मित्र से मुलाकात हुई। उनके बच्चे से बातचीत के दौरान एक्स्ट्रा क्लास के विषय में पूछने लगा। 


बच्चे ने बोला, "अंकल, अब अॉनलाइन क्लास होती है जब टीचर को कुछ एक्स्ट्रा क्लास लेना होता था।"


मै पुराने दिनों में चला गया था। कैसे उसी दोस्त के घर में पकड़ा गया था। एक्स्ट्रा क्लास करते हुयें। बढ़िया बहाना होता था एक्स्ट्रा क्लास का।


वेस्टइंडीज के खिलाफ मैच में क्या गज़ब का शॉट मारा था दिलीप वेंगसरकर ने। मै चिल्ला रहा था। खुशी से झूम उठा था। तभी बाहर से आवाज आयी थी। लगा किसी अपने की आवाज थी। खिड़की से बाहर झाँक कर देखा तो मॉ डंडा लिये खड़ी थी। 


दोस्त की मॉ ने कहा था "बेटा, तुम्हारी मम्मी आयी है।"


मम्मी दोस्त के घर में घुसते ही गुस्से में बोली थी "यही है तुम्हारी एक्स्ट्रा क्लॉस।" 


मम्मी कान पकड़कर घर ले आयी थी, "आज से तेरा एक्स्ट्रा क्लास बंद।"


मै चुप था। मेरी चोरी पकड़ी गयी थी। 


अब भी कभी एक्स्ट्रा क्लास के विषय में सोचता हूँ तो मन प्रफुल्लित हो उठता है। कितनी फिल्में देख डाली उस एक्स्ट्रा क्लास के चक्कर में।


बड़ी मुसीबत थी। सही में भी अगर एक्स्ट्रा क्लास होती तब भी कोई छुट्टी नही मिलती थी। 


फिर नया आईडिया दिमाग में तैरने लगे थे। एक दोस्त ने मॉ का विश्वास जीत लिया था। जब बाहर घूमना होता था तब घर आकर सफाई से बोलता, " आंटी, सही में, कल एक्सट्रा क्लास है.."


उस दिन 'माचिस फिल्म' देखी थी..😃


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

सोमवार, 4 जुलाई 2022

सफर कुंठा का

 


पूना में कन्हैया का फ्लैट उसी अपार्टमेंट में था जिस अपार्टमेंट में मृदुला रहती थी। परन्तु मृदुला का फ्लैट उसके ऊपर वाले तल पर था। मृदुला बहुत ही खूबसूरत थी। कॉलेज के दिनों से उसके बहुत चाहने वाले थे। कन्हैया व मृदुला कॉलेज में एक ही सेक्शन में थे। 


कन्हैया के मन में मृदुला के प्रति बहुत ही चाहत थी पर भावनाओं के इजहार में असमर्थ था। कॉलेज के दिनों में मृदुला साधारण वस्त्र पहनती थी पर प्रशिक्षण के दौरान पूना में कदम रखते ही जैसे उसे पंख लग गये हो। 


कन्हैया से वक्त बेवक्त बाहर की खरीदारी करा लिया करती थी। कन्हैया इतने में ही बहुत ही खुश रहता था। 


इधर कन्हैया महसूस कर रहा था कि अब मृदुला पहले जैसी बात नही करती। अगर कभी लिफ्ट में मुलाकात हो जाती तो वो नजरें बचाती हुई निकल जाती। मृदुला के फ्लैट में आने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी।  कन्हैया मन ही मन कुढ़ता जा रहा था। 


वों दिन रात सिर्फ ताक-झाँक में ही रहता कौन आया और कौन गया। कन्हैया चिंता में दुबला होता जा रहा था। 


एक दिन कन्हैया सीढ़ियों से ऊतरते समय बेहोश होकर गिर गया। अपार्टमेंट के बाकी लोगों ने डॉक्टर को दिखाया। चेक अप में पाया गया कि उसे टी. वी. हो गया। चेहरे की चमक जाती रही थी।


कन्हैया मृदुला के चक्कर में कुंठा का शिकार हो गया था। कुंठा जरूरी नही कुछ गलत करने से ही हो। कभी-कभी कुछ नही कर पाने से भी कुंठा व्याप्त हो जाती है। किसी ने उसे शहर छोड़ देने की सलाह दे डाली।


सालों बाद एक मित्र ने कॉलेज के मित्रों का वाह्ट्सऐप पर एक ग्रुप बनाया। अब कन्हैया मृदुला के साथ अपना मोबाइल नम्बर देख प्रफुल्लित हो उठता है। नम्बर भी दोनों का कान्टेक्ट लिस्ट में फ्लैट की तरह ऊपर नीचे है। 


मृदुला जब भी बच्चों के फोटो ग्रुप में शेयर करती है और बच्चों से कन्हैया को मामा के नाम से परिचय कराती है तो कन्हैया का दिल धक् हो जाता है। तेजी से आँखे बंद कर ग्रुप से लेफ्ट कर जाता है और मन ही मन बुदबुदाता है जैसे भीष्म प्रतिज्ञा ले रहा हो..


ग्रुप में उसके बेहिसाब आवागमन पर बेखबर पुराने साथी भी समाधि लगा लिये है....


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

रविवार, 3 जुलाई 2022

गुलाब पन्नों के

 


बहुत दिन हो गये थे पुराने कॉलेज गये हुयें। कैंटीन याद आ रहे थे। घंटों लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों में गुम रहना मन को बेचैन कर रहे थे। आगरा के उस कॉलेज के अंतिम दिन हम सभी गमगीन थे। उदास थे पता नही कब मुलाकात होगी। एक डायरी हाथ में थी सभी एक-दूसरे का नाम पता लिख रहे थे। 


कई बार प्लान बनता फिर कैंसिल हो जाता। किसी को कोई इंन्टेरस्ट ही नही था। पत्नी भी कई बार झिड़क चुकी थी। क्या करेंगे वहॉ जाकर। मै चुप हो जाता।


सात दिन बाद पत्नी की भतीजी की शादी थी आगरा में। पैकिंग चल रही थी। मुझे भी खुशी थी जाने की। कम से कम 25 सालों बाद अपना कॉलेज तो देख पाऊँगा।


इंतजार की घड़ियां खत्म हुई। हम सभी आगरा के एक अच्छे से होटल में ठहराये गये थे। मुझे तो अगली सुबह का इंतजार था। सुबह ही नहा लिया था। पत्नी से मेरी खुशी देखी नही जा रही थी। मुझसे बोली, "ताजमहल चलेंगे क्या।" मैने बोला, "नही, अपने कॉलेज।" मुँह बनाकर चुप हो गयी थी वों।


मै सज धजकर ठीक 10 बजे कॉलेज प्रांगण में था। कोना-कोना मुृझे अपनी ओर खींच रहा था। मै पागल सा घूम रहा था। लाइब्रेरी पहुंचते ही मै सबसे पहले साहित्य वाले सेक्शन में पहुंच गया। बड़ी बेसब्री से एक उपन्यास ढूंढ़ने लगा। कई बार पूरे सेक्शन को छान मारा पर नही मिला। 


बड़े बेमन से बाहर जाने लगा तभी एक मैम मिली जिनके सफेद बाल बिखरे हुये बेतरतीब से कपड़े पहने हुये थी। बॉयें तरफ का कैनायन दाँत टूटा हुआ था। पुराने जमाने की टुनटुन लग रही थी। वो लाइब्रेरी स्टाफ थी शायद। मुझसे बोली, " आप क्या ढूंढ़ रहे है।" मैने बोला, "एक उपन्यास।"


उन्होनें एक पुराना सा बंद अलमारी खोला। बोली, "यहां देखिये.. शायद मिल जाये।" उपन्यास एक बहाना था मुझे तो उस पुस्तक के पेज नं. 54 पर रखे गुलाब को ढूंढ़ना था जो उसका रोल नं. भी था। अलमारी के दूसरे खाने में पुस्तक देखते ही मेरे आँखों में चमक आ गयी थी। जल्दबाजी में पन्ने पलटते ही वों सूखा गुलाब नीचे गिर गया था। मै उठाने ही जा रहा था। तभी मैम ने बोला, " राकेश!!!!!"


मै सन्न था उनको देख कर। मेरे मन में वही गुलाब वाली लड़की बसी थी। मै समझौता नही कर सकता था😃😃 मै बस यहीं बोल पाया.. "मै राकेश नही।"


किसी तरह घर आया। पत्नी बोली, "घूम आये कॉलेज।" 


मै कोमा से निकलने की कोशिश में था।😃


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

मंगलवार, 21 जून 2022

हिचकियां

 ये

हिचकियां

सिर्फ

इंसानो के 

गले में

अटकी

नही होती..


इंसानों से

इतर

हिचकियां

समेट लेती है

यादों को

और 

मिला देती 

है

अपनों को

आपस में..


जैसे

पहाड़ टूट

कर जमीं

से मिले

या बर्फ

पिघल कर 

नदी में

या बहकते 

समुद्र के

ज्वार

तटों को

सराबोर कर दें....

@व्याकुल

शनिवार, 4 जून 2022

विश्व पर्यावरण दिवस


यही जून का महीना था। शादी में निमंत्रण था। जाना तो था ही। कपार फोड़ई में बज्जर कचौरी। सबेरे कलेवा में गरमागरम चना-चाय और जलेबी। फिर वापसी में बस की यात्रा। रात की कचौरी पच नही पायी थी ऊपर से बस के हिचकोले। माहौल बन रहा था। मुझे बस कभी शूट ही नही किया। बस की यात्रा हमेशा से मुझे गणित के सवालों जैसा लगता था। चक्कर आने लगते थे। इन सब चक्करों में सुबह खाये गये चनों का अबोध हत्या होना ही था। बस एक बार पल्टी होने की देर थी।


चचेरे भाई साथ में थे। मेरी हालत समझ चुके थे। बस रुकवा दिये थे। भऊजी के मायके जाना है। बस रुकी ही थी ये मारा पल्टी!!!!! अब आप नेताओं की पल्टी से तुलना नही कीजियेगा। उनके पल्टी में कुछ निकलता नही। सब अंदर ही जाता है।

साबूत चना बाहर आ गया था। भऊजी का मायका तीन किमी. से कम नही होगा। उल्टी के बाद प्यास लगती। अंदर की चक्की उलटी चलने लगी थी। रास्ते में चापाकल के पानी से प्यास बुझा कर थोड़ी दूर बढ़ता ही पल्टी हो जाती। 


हैरान-परेशान रास्ते में बैठने का सवाल ही नही था। रेगिस्तान जैसे सड़क के दोनों ओर पेड़ का नामो-निशान नही था। छॉव के लिये तड़प गया था मै पर भऊजी का घर आने तक चापाकल-पल्टी-चापाकल का खेल खेलता रहा था। 


ऐसा कभी किसी बालक के साथ न होवे इसलियें पेड़ अवश्य लगावें। 


विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनायें🌳🌳🌳🌴🌴


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

गुरुवार, 2 जून 2022

पंडोह का इनारा

 


चाँदनी रात थी उस दिन। चाँद बादलों से अठखेलियां खेल रहा था। ट्रेन के प्लेटफार्म से जाते ही स्टेशन भी वीरान हो चुका था। शायद यह अंतिम ट्रेन थी। स्टेशन मास्टर जंभाई ले रहे थे। उनके कक्ष में एक बड़ा सा लटकता बल्ब जल रहा था। हल्की सी हवा चलते ही झूलने लगता था। बाहर एक कुत्ता दोनों टाँगे आगे किये हुये अपना मुँह टिकाये हुये था। लग रहा था जैसे वो भी अर्धनिद्रा में हो। कुल मिलाकर स्टेशन पर तीन लोग थे। मै, कुत्ता और स्टेशन मास्टर।


सोचा स्टेशन से बाहर बाजार में कोई न कोई मिल ही जायेगा। पर सभी दुकानें बंद थी। दुकानों के बाहर खाट पर पसरे हुये लोग थे। खर्राटों की आवाज और भयावह लग रही थी। स्टेशन से घर दूर था। कोई साधन नही था। पैदल चलने का मन बना चुका था। 


सड़क पर अकेला चलता जा रहा था। कभी कभी बादल सड़क पर तैरते दिख जाते थे। मन हो रहा था क्यो इस अंतिम ट्रेन से चलने का भूत सवार हो गया था। जूता भी ऐसा था जो खट-खट की आवाज कर वीरानियों को चीर रहा था। जिससे कुत्तों की नींद में खलल पड़ रहा था। वों दबे पॉव नजदीक आकर भूँकने लगते। मै वही खड़ा हो जाता। प्रतिकार करके आफत मोल नही ले सकता था। माहौल शांत होने फिर आगे बढ़ जाता। 


लगभग 2 किमी. से ज्यादा चल चुका था। गॉव के अंदर प्रवेश कर चुका था। एक बाधा और थी। बचपन से जो चीज डराती आयी थी वह थी "पंडोह का इनारा" (कुँओ को गॉव में इनारा भी कहते है) पंडोह के इनारे में भूत-चुड़ैल है। कोई आज तक बच नही पाया, ऐसी बाते बचपन से सुनता आ रहा था। दूर से पंडोह का इनारा दिख रहा था। भूत दिमाग में तैरने लगे थे। कदम ठीठक रहे थे। जैसे-जैसे "पंडोह का इनारा" आ रहा था डर बढ़ता ही जा रहा था। तभी हनुमान चालीसा का पाठ तेज तेज पढ़ने लगा था। "भूत पिशाच निकट नही आवै..." वाली पंक्ति के बाद बढ़ ही नही पा रहा था। आँखे सीध मे कीये हुये पंडोह के इनारे को जैसे ही पार किया जान में जान आयी। 


घर पहुंचते ही पिता की डांट मिली। इतनी रात को खाने में कुछ नही मिलेगा। चुपचाप सो जाओ। 


पर मेरी जान "पंडोह के इनारे" पर ही लटकी थी। नींद कैसे आती!!!!!!


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

रविवार, 8 मई 2022

मॉ की बिंदिया


मुझें कुछ भी अगर पसंद था

मॉ के माथे की तमाम बिंदिया


बिंदियों को जतन से रखती थी

उसी ऊँट बने डिब्बें में 


उनके माथे की बड़ी बिंदी

हमेशा ही खिसक जाया करती


कभी पसीने से मोर्चे में

या जीवन के झंझावतो से


बिंदियों को सेट करती थी

बड़े चाव से छोटे से शीशे से


चेहरे की शिकन छुपा लेती थी

उन लाल-हरी बड़ी सी बिंदियो से


लापरवाह हो चली है मेरी मॉ भी

भूल जाया करती है बिंदियो को लगाना


अब उन्हे ऊँट बना डिब्बा दिखता नही

बूढ़ी हो चली है मेरी मॉ भी


मन होता है कह दूँ मॉ से

पर पिता का विछोह गुम कर गयी मॉ की बिंदिया भी


@विपिन "व्याकुल"

रविवार, 1 मई 2022

तुलसीदल

हर घर के आँगन में या दुआरे में तुलसी का पौधा देखने को मिल जाता है। अध्यात्म व श्रद्धा से जुड़े इस पौधे को भारत में शायद ही कोई ऐसा होगा जो अपरिचित होगा। 


मै 16 वर्ष का था जब छोटे बाबा को उनके अंत समय में तख्त से ज़मीन पर दक्षिण दिशा में पैर करके लिटा दिया गया था। उल्टी सांस चल रही थी। घर के सभी सदस्य बारी-बारी से तुलसी गंगाजल उनके मुँह में रखा जाता है।


ऐसा कहा जाता है किं तुलसी धारण करने वाले को यमराज कष्ट‌ नहीं देते। मृत्यु के बाद दूसरे लोक में व्यक्त‌ि को यमदंड का सामना नहीं करना पड़े इसल‌िए मरते समय मुंह में गंगा के साथ तुलसी का पत्ता रखा जाता है।


मै कुछ दिन पहले एक अखण्ड रामायण सुनने हेतु गया था वहाँ कथा वार्ता आदि में आने के लिये और प्रसाद रूप में तुलसीदल बाँटा जाता है । कहीं कहीं मंदिरों और साधुओं वैरागियों की और से भी तुलसीदल निमंत्रण रूप में समारोहों के अवसर पर भेजा जाता है ।

@विपिन "व्याकुल"

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

पृथ्वी दिवस

1) ठीक-ठीक सन् याद नही पर वो समय सन् 1985 से सन् 1990 के बीच का रहा होगा। उस समय हमारे गॉव (सनाथपुर,सुरियाँवा, भदोही) के अधिकांश कुँए सूख चुके थे। पूरे गॉव में सिर्फ 1-2 कुँओं में ही पानी रहा होगा। सारे गॉव का लोड यही 1-2 कुँए झेलते थे। स्थिति बाद में ठीक कैसे हुयी याद नही। ये बात गर्मियों की है। शायद बरसात के आने पर ठीक हुयी होगी। 35 वर्ष पहले ऐसी भयावह स्थिति हुआ करती थी।


2) घर के बगल में बगीचा हुआ करता था। तब घर में कुल सदस्यों की संख्या 10-15 की रही होगी। एक मकान में सभी रहते थे। ये 1990 की बात होगी। अब चार मकान है। चारो मकानों में कुल सदस्य 6 है। बगीचा गायब है। ये विकास हुआ है गॉव का। निरीह प्रकृति का दोहन।
3) प्रयागराज के मीरापुर मोहल्ले में नल से पानी की आपूर्ति ठप्प जब भी होती थी। महिला उद्योग इंटर कॉलेज में बना हुआ कुँआ ही आसरा बनता था। ये घटना भी उसी समय का है। 
4) पहले दो लेन का हाइवे होता था। चार लेन का हुआ। 6 लेन। अब 8 लेन। बगल के पेड़ नदारद। नये के रोपड़ की कोई निशानी नही।
5) बचपन के गौरैया, गिद्ध और पता नही कितने पक्षी दिखने बंद हो गये। पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ा तो कोई संभाल नही पायेगा। कोविड की भयावहता के सामने सारा विकास धरा रह गया था।
6) सबमर्सिबल घर-घर में व्याप्त है। गॉव हो या शहर। दोहन का कोई हिसाब नही। जनचेतना सुषुप्ता अवस्था में। 
सन् 1970 से हर वर्ष "पृथ्वी दिवस" मनाया जाने लगा। हर वर्ष "पृथ्वी दिवस" के लिए एक खास थीम रखी जाती है। पृथ्वी दिवस 2022 की थीम 'इन्वेस्ट इन आवर प्लैनेट' (Invest in Our Planet) है। मानव जाति की भूख खत्म नही हुयी है अभी तक। इन्वेस्ट क्या करेंगे!!!!!!!!!!!!

@विपिन "व्याकुल"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

डरा रहता हूँ

डरा रहता हूँ...

डरा ही रहता हूँ..


कंपित मन बुजुर्गों के बिछड़ने से

या गंभीर से खामोश लफ्जों से


बड़ों की बढ़ती झुर्रियो से  

शुन्यता पर उलझतें नजरों से


महफ़िलो में सधे अल्फ़ाजो से

कोठरियों में हाफते फेफड़ों से


काँपते उँगलियों की थपकियों से

अन्तर्मन में बहते अश्रुओं से


ढलते उम्र की शीर्षता से

या घाटी से झुके कंधो से


अवसान की सीढ़ियों से

या डग मग बढ़े कदमों से


डरा रहता हूँ...

डरा ही रहता हूँ..


@व्याकुल

नियति

  मालती उदास थी। विवाह हुये छः महीने हो चुके थे। विवाह के बाद से ही उसने किताबों को हाथ नही लगाया था। बड़ी मुश्किल से वह शादी के लिये तैयार ...