FOLLOWER

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

रिक्शा


यूँ जिन्हे तलाश रहा
वों डरे हुए से बैठे है
नज़र कर मुझ पर
बावस्ता मंजिल हूँ

सिल दिये क्यों मुझें
तड़पता सा राह पर
इशारा ही कर देना
गले आ लिपटूँगी 

वजह हो खफा का
या गुम हो शहर से
इधर महकती हवा से
पैगाम खुद का दे जाना

लहर सी तरंगे पैरों मे
खुद ब खुद चल दे
करे महसूसियत उनका
या आ जाना ख्यालों में

@व्याकुल

इलाहाबादी चुनाव

मुझे अपने जीवन का पहला चुनाव याद है जब अमिताभ जी चुनाव लड़े थे इलाहाबाद से । उस समय का एक नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ था..आई मिलन कि बेला .........ऐसे ही कई नारे प्रचलन में आ गये थे..स्कूल मे अध्यापिकाएं सिर्फ अमिताभ कि बात करती थी। प्रतिदिन कुछ न कुछ नयी कहानी कक्षाओं में होती थी। ऐसा लगता था फिल्मी स्टार दूसरी दुनिया से होंगे। बड़ा मजा आता था उन दिनों। मेरे घर के बगल से जया जी की गाड़ी निकली तो सारा मोहल्ला पीछे पीछे। शॉल को बाँह के नीचे से लपेटकर पहनने का फैशन की शुरूआत भी तभी से मानी जाती हैं।  

उस समय चुनाव में मेला जैसा माहौल हुआ करता था। अनाप सनाप खर्च होता था और ध्वनि प्रदुषण अलग से।

अब तो इतनी सख्ती हो गयी है कि पता ही नहीं चलता और चुनाव हो गया .............................

@व्याकुल

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

गुमशुदा

मत पूछ धुँआ क्यों उड़ा रहा हूँ
उदासियाँ पिघल रही हो जैसें

ढरक गये अश्क जो पोरो से
गमों का सागर उमड़ आया हो जैसें

सिलवटें बता रही बिस्तर की
ख्वाबों को भुला आया हो जैसें

चला गया आज उसी मोड़ पर
खबर उसने भिजवा दिया हो जैसें

बुत बना रह गया आज उसी जगह
राहे जुदा हो गयी हो जैसें

मुस्कुराता रहा जमाने भर से
दर्द छुपा रहा हो जैसें

हाथ जो मिलाता रह गया उनसे
खुद कही गुम हो गया हो जैसें

@विपिन "व्याकुल"

सोमवार, 30 मार्च 2020

कुतुबखाना



यूँ न कर दूर मुझसे खुद को
कबूतरखाना न कहा जाऊँ
भटक क्यो रहा दरबदर
मुकम्मल ठीकाना हूँ मै

वो भी जमाना था कभी
कई उस्ताद गिरफ्त में थे
तलाश फिर उनकी
शहर बियाबां क्यो हैं..

धूल झाँक रही किताबों से
तेरे निशां छुपे हो जैसे
उँगलिया छूँये उन्हे ऐसे
जमाने से तरस रहा हो जैसे

पन्नों के सुर्ख गुलाब
राज छुपायें हो जैसे
दस्तक से खिले ऐसे
बयां कर रहे हो जैसे

आज भी वही वैसे ही हूँ
प्यार से जहाँ छुपाया तूने
हर शख्स में तलाश तेरी
आप सा रहनुमा हो जैसे

@व्याकुल

शनिवार, 28 मार्च 2020

आवरण

आवरण
चेहरें पर
क्यों!!!

क्याँ
बाँध
पायेंगे
ये
अव्यक्त
भावनाओं
को
या
जकड़
सकेंगे
मेरी
बेचैनियों
को...

जो
मेरे साथ
ही
जन्म लेती
और
बह
जाती
राख
बनकर...

@व्याकुल

गरीबी


उदर पर हाथ रखें मन ही मन स्वयं से बाते कर रही थी तभी ठेकेदार की घुड़की कान पर पड़ी, 'सिर्फ बच्चे पैदा करवा लो' 'ऐसे ही लोग देश पर बोझ बने हुए है।' 

उसको ऐसा लगा जैसे नींद से जग गयी हो। थक कर चूर हो गयी थी व पॉव कपकँपा रहे थे।

पति की बिमारी ने भी तोड़ कर रख दिया था टी.बी. की बीमारी से ग्रसित उसका पति रात भर खासता रहता था। वह सोचती जा रही थी गरीबी अभिशाप है, इससे मुक्ति कब मिलेगी। पिछले कई दिनों से पति की बीमारी व बच्चे को भी जनने की जिम्मेदारी। हमेशा ही पति को जबर्दस्ती करने से भी मना किया पर मानता कहा था और बच्चों के सामने...

आज सोच ही लिया था कुछ भी हो जाय जहर की पुड़िया ले ही आऊँगी । पर क्या, मेडिकल स्टोर तक पहुँची ही थी,  सभी बच्चे उसके आँखों के सामने तैर गये थे वो बेबस भारी मन से लौट आयी थी ।

ईश्वर से उसकी बस यही ख्वाहिश थी सुबह न देखु । लेकिन गरीब की ख्वाहिश भी कभी पूरी होती है क्या??? आँसु ढलक जाते है असहाय सी अभिलाषा लिये, कभी कोई कृष्ण बन आयेगा गरीबी रूपी दुःशासन से उसको बचायेगा ।

©️व्याकुल

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

चेहरे नदारद से क्यो हैं
जमीदोंज हुई ये रोनकें
हर तरफ खौफ सा सन्नाटा क्यों हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों हैं..

बालों पर पड़े न धूलों की गुबार
न सड़कों पर आदमियों के धक्कें
ढूँढ रही अपनों को क्यों है
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

लाशों पर उदासियाँ सी है
सनद फाँकों का है या कुछ और
सूखी बूँदों की लकीरें चेहरे पर क्यों है
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

क्यों ढूंढ रहा तुझे दरबदर
बेजूबान से क्यों हो
हर शख्स के मुँह पर ताले क्यो हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

शक से भरी ये निगाहें
ढूँढ रही कातिलों को जैसे
खता से यूँ बेखबर हर शख्स क्यों हैं
मेरा शहर बेजान सा क्यों है..

@व्याकुल

मार्च

मार्च बहुत रुलाता है..

कलम बहुत चलवाता है
छुट्टी ये रुकवाता है
कमर ये तुड़वाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

चिंता ये दिलवाता है
परीक्षा ये करवाता है
गर्मी ये बढ़वाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

बारिश जब हो जाता है
रबी फसल हिल जाता है
हाल बुरा हो जाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

विवाह जब पड़ जाता है
कोई आ नही पाता है
यादे ही रह जाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

त्योहार भी आ जाता है
खर्च ये बढ़वाता है
टैक्स भी कटवाता है
मार्च बहुत रुलाता है ।

@व्याकुल

गुरुवार, 26 मार्च 2020

होली

होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!

स्वाँग रचु गोरी का
या ढपली का थाप
बजाऊँ
या फगुआ अलापू
होरी मनाऊँ कैसे

ऊपले चुराऊ
दहन को
या लट्ठ खाऊँ
जोर की
होरी मनाऊँ कैसे

बनारसी रँग में
ढल जाऊँ
या भंग का
नशा कर लूँ
होरी मनाऊँ कैसे

गुझियाँ चखु
गुड़ की
या होरहा
खाऊँ
होरी मनाऊँ कैसे

पोत लूँ
हरा पीला
या छूपा लूँ
रंगभेद
होरी मनाऊँ कैसे

बासंतिक बयार
में डूबू
या झूम जाऊँ
बौर में
होरी मनाऊँ कैसे

गुलाल लपेट
लूँ
गले में
या भोला बन
विषधारी बनु
होरी मनाऊँ कैसे!!!!!


होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!
होरी मनाऊँ कैसे!!!!!!

@व्याकुल

सिर्फ तू

मेरे रोम रोम में
नस नस में
सिर्फ तू
और तू
कैसे कहू
तू
कहाँ नही..

हँसता भी
हूँ
तो
खिलखिलाहट
भी तू
रोता हूँ
तो
बेचैनी
भी तू..

इबादत
में भी
सिर्फ तू
करवटें
जब भी
ली
अचैतन्य
में भी
तू..

क्यों समा
से
गये हो
ये
प्रश्न है
तुझसे
हाँ
तुझसे ही..

हाँ
एक बात
जाना तो
साथ
ही जाना
अकेले
गये
तो
किसी को
मै नही
दिखुँगा
हाँ पर
निष्प्राण
अवश्य
हो
जाऊँगा..

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...