घना कोहरा था। जाड़े की कड़कड़ाती ठंड थी। बाहर से आवाज आयी,
"मूँगफली ले लों"
मैंने खिड़की खोली तो देखा 10-12 वर्षीय एक बालक मूँगफली बेच रहा था।
मैं आश्चर्यचकित था किं इतना छोटा बच्चा वो भी इस ठंड में।
मूँगफली जाड़ें के मौसम में असीम सुख देती है। मूँगफली के साथ की चटनी तो और भी सुखद।
मैंने घर के अंदर से ही पूछा था उससे, "चटनी भी लिये हो क्या????"
उसने कहा था, "जी साहब!!!"
मैं तुरंत घर से बाहर आ गया।
उस लड़के को नजदीक से देखते ही मेरे पाँव से जमीन खिसक गई थी। मैं अवाक् रह गया था। मेरे मुँह से इतना ही निकल पाया, "अरे!!!!! तुम..."
उसकी यह हालत देख मैं शुन्यता में चला गया था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था क्या बोलूं????
खुद को संभालते हुए मैंने पूछा, "बेटा, तुम ऐसी हालत में....."
प्रचंड ठंड में महीन सूती कपड़े की पायजामा व पुरानी शर्ट पर हाफ स्वेटर पहने दयनीय हालत बयां कर रहा था मेरा ध्यान उसकी कटकटातें दाँतों पर था.... मैंने उससे आधा किलों मूँगफली ली। सोचा थोड़ा बढ़ा कर पैसा दे दूँ पर उसने साफ कह दिया था, "पैसे, इतने ही हुये है.."
मै उसकी ईमानदारी पर खुश था
उस छोटे से बच्चे की मासूमियत का इस तरह से बर्बादी मुझसे देखी नहीं जा रही थी।
मैं और भी कुछ पूछता बच्चा बोला, "अंकल चल रहा हूं बाद में बात करूंगा, चलते वक्त माँ ने बोला था किं बेटा बहुत ठंड है जल्दी घर आना"
"पापा अब नहीं रहे है न..."
इतना कहते हुए वह वहां से चला गया था।
मैं कुछ पूछता उससे पहले ही उसने बोला था।
मै निःशब्द हाथ में मूँगफली लिए बहुत देर जड़वत रहा।
मेरा हृदय पसीज गया था। क्या बोलता मैं????
कुछ भी कहने को नहीं था। बस मेरी आँखों के सामने उसके पिता की तस्वीर घूम रही थी। नशे में धुत उसके पिता का साइकिल लहराते हुये व डगमग-डगमग सड़क पर चले जाना व उसकी माँ का गोद में छोटा बच्चा होने के बावजूद पति को संभालते रहना। पीछे से छोटा सा यह बालक।
कई वर्षों से मैं यही क्रम देखता चला आ रहा था।
नियति का ही खेल था पिता की गलत आदतों की सजा बच्चा भुगत रहा है.. व्यसन इंसानों को कहीं का नहीं छोड़ती। धन-तन-मन कुछ भी शेष नहीं रहता।
स्टेशन पर उसका एक कैंटीन था जिससे उसकी जीविका चलती थी। जैसे ही उसने पैसा कमाना शुरू किया गलत संगत से आदतें बिगड़ती रही।
कहते हैं धन बहुतायत में हो तो व्यक्ति की आदतें बिगड़ने की संभावनाएं बहुत बढ़ जाती है। अत्यधिक शराब पीकर रहना उसकी मौत का एक कारण बन गया था।
शायद उसे पता नही था अपने पीछे उस मासूम के स्कूली बैग लदे कँधे को भी वीरान कर रहा है जो मजबूूत कर रही थी भविष्य निर्माण कों।
ये काँधे मूँगफली की डलिया संभाल नहीं सकती थी।
आँखें हमेशा प्रतीक्षा करती उस बालक का और मन में एक प्रश्न रहता कैसे देख पाऊंगा उन नन्हे से हाथों से तराजू की सुइयों को साधते हुए....
@व्याकुल
Badhiya����
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंBahut khub
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं��������������������
जवाब देंहटाएंThank you so much
हटाएंbehtareen tareeqey se likha gaya hai sir. apka andaaz-e-bayaan khoobsurat hai.
जवाब देंहटाएंThank you so much
हटाएंअगर हम ईमानदारी से जी रहे है
जवाब देंहटाएंतो ही सच में जी रहे है
जी सही कहा आपने.. शुक्रिया
हटाएंअंतर्मन को छू गयी ये कहानी। लाज़बाब भाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई
हटाएंWah 👌
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंशानदार
हटाएंशुक्रिया
हटाएंउत्कृष्ट रचना है ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंप्रणाम.. शुक्रिया
हटाएंreal story
जवाब देंहटाएंThank you so much
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