1984 - 85 की इलाहाबाद की वो शाम आज भी याद है जब खेल के मैदान में पहुचा था तो पूरा सन्नाटा था.. पता लगा की सभी साथी कुमार मंगलम चतुर्वेदी (जो मुझसे बड़े और एक कक्षा आगे थे ) के घर टीवी देखने गए है.. मैं भी पहुच गया.. सभी लोग जमीन पर बैठे फ़िल्म देख रहे है..अद्भुत था वो दृश्य और आज भी नही भूलता... शारीरिक स्वस्थ्यता एक बड़ा प्रश्न रहा है.. फिर कभी उतनी भीड़ नही देखी खेल के मैदानों में.. लोग कम होते गए.. मुझे तो अब भी बड़ी अभिलाषा है.. उसी कब्रिस्तान, जो कभी हम लोगो के लिए खेल का मैदान हुआ करता था, वापस आ जाय.. हम लोग.. बुनियाद.. वाह जनाब.. जैसे टी. वी. सीरियल अपनी धाक जमा रहे थे.. रविवार की सुबह आँख खुलते ही चित्रहार पर अटक जाती थी.. फिर शुक्रवार की रात में फिल्मों का सिलसिला शुरू हुआ..बुद्धुबक्सा की बात बिना रामायण व महाभारत के की ही नही जा सकती... सन्नाटा पसर जाता था गॉवों में.. शोले फिल्म का डॉयलाग याद आ जाता था.. "इतना सन्नाटा क्यों है भाई..."
कितने पुरानी फिल्मों पर दिल अटक जाता था.. अभी तक हैंगर की तरह वैसे ही अटका हुआ है...
@व्याकुल
अतीत के चलचित्र...बुद्धू बक्सा हम लोगों वाली पीढ़ी का तो बचपन पूरी तरह नही छीन पाया,पर उसके आगे बचपन लुप्त हो गया।अब बच्चे नही व्यस्क ही दीखते चहु ओर
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ आपसे।
जवाब देंहटाएंपूरी तरह से सहमत हूं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंवो बचपन था,जब शामे भी हुआ करती थीं
जवाब देंहटाएंअब तो सुबह के बाद सीधे राते हुआ करती है
वाह.. क्या बात कही आपने.. शुक्रिया
हटाएंबुद्धू बक्सा ने जो करना था किया बाकी जो बचा इंटरनेट ने कर दिया। उत्तम रचना।
जवाब देंहटाएंसहमत हूँ मामा जी
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