FOLLOWER

शुक्रवार, 4 जून 2021

आहट - 1

 

खट्!! खट्!!

कुछ ऐसी ही आवाज सुनी थी उसने। उसकी तंद्रा भंग हुई। पसीने से तरबतर थी वों। इतना डरावना सपना। दो मिनट तो उसे नींद से हकीकत की दुनिया में आने में लगा। समझ ही नही पा रही थी कि खट् की आवाज उसने सपने में सुनी या हकीकत में। इंतजार करती रही फिर से किसी हलचल का। भावेश और वो आज ही वैक्सीन लगवाकर आये थे। मांसपेशियों में गजब का दर्द था, जिसकी वजह से आलस्य पूरे शरीर में व्याप्त था और ऊपर से भयानक स्वप्न। दुःस्वप्न देखते देखते जब अहसास होता है कि वो तो मात्र एक दुःस्वप्न ही था तो बड़ा सुकून मिलता है, लगता है जैसे नयी जिन्दगीं मिल गयी हों।


सुबह चार बजे तक उसे नींद नही आई। चिड़ियों की चहचहाट ने अहसास दिला थी कि सुबह हो गयी पर दिमाग में वही सपना घूम रहा था। साकेत का सपने में ऐसी हालत में देखना उसे परेशान कर रहा था।


रात भर सो न पाने से उसे सुबह से सर भारी था। बाई काम करके कब का चली गयी थी व भावेश कब अॉफिस चले गये उसे कुछ पता ही नही चला।


साकेत को तो वो बचपन से जानती थी। ईश्वर करे सपना सच न हो...

@व्याकुल


क्रमशः

बुधवार, 2 जून 2021

सत्तूनामा

 सत्, तम् व रज् गुणों की उग्रता देखना हो तो विद्यार्थी जीवन में जाये। उम्र जैसे जैसे प्रभाव दिखाना शुरू करता है सब कुछ क्षीण होता जाता है। ये तीनों आपसी सामंजस्य बैठा ही लेते है। ऐसे ही एक साथी रहे है जो रज गुणों से भरपूर थे। नाम था सत्तू।

सत्तू छरहरा बदन का लड़का था। एम. एस. सी. का विद्यार्थी था, पर जिद्दी बहुत था। हॉस्टल के कॉमन रूम की टी. वी. उसके रूम की शोभा बढ़ाते थे। मजाल की कोई शिकायत कर दे हॉस्टल वार्डेन से। पूरा हॉस्टल उसका महल था। 8-10 चेले थे। पूरी न्यूज उस तक पहुँचती रहती थी। किसी ने विरोध की अगर को़शिश की तो हाथ-पॉव टूटना तय था। क्षेत्रीय होने का लाभ भी था। आज तक के विद्यार्थी जीवन में पहली बार एक ने चैलेंज कर दिया था। सत्तू की शान के खिलाफ। सत्तू ने उसकों लात घूसों से दुरूस्त करने का मन बना लिया था।  प्लान ये बना किं एक लड़का बिजली के मेन स्विच को रात आठ बजे बंद करेगा। पूरे हॉस्टल की लाईट आधे घंटे तक बंद रहेगी। इसी आधे घंटे में विरोधी की पिटाई होना तय हुआ। लाईट अॉफ होने की वजह से वो किसी को पहचान नही पायेगा। निर्धारित तिथि व समय पर मेन स्विच अॉफ हुआ। पीटना शुरू ही किये थे कि वार्डन का निरीक्षण हो गया। मेन स्विच के पास खड़ा लड़का घबरा कर स्विच अॉन कर दिया। फिर क्या था!!! भगदड़ मच गयी। सत्तू और उनका ग्रुप पहचान लिया गया। कार्यवाई हुई। हॉस्टल से उनका पॉव उखड़ गया था...

©️विपिन

मंगलवार, 1 जून 2021

धर्मयुग

अगर आपकी पैदाइश 60 या 70 के दशक में हुई हो और धर्मयुग से परिचित न हुये हो तो धिक्कार है आपकों। जैसे आज भी लोग गीता प्रेस की 'कल्याण' पढ़ने के लिये तरसते रहते है वैसा ही इतिहास धर्मयुग का रहा है। इसका प्रथम अंक 1950 में आया। इलाचंद्र जोशी व सत्यदेव विद्यालंकार इत्यादि के हाथो रहा। मै तो बहुत दिनो तक सोचता रहा ये पत्रिका धर्मवीर भारती की है। पूरक थे दोनो एक दूसरे के। 1950 से 1960 तक जितने पाठक बने सिर्फ 5 वर्षो में ही इसके उतने पाठक बन चुके थे। आज भी उसी साईज की कोई पत्रिका देखता हूँ तो बरबस ही धर्मयुग याद आ जाती है।

@व्याकुल

प्रगतिशील

लिव-इन
प्रगतिशील
स्त्री- आजादी
इत्यादि इत्यादि


ऐसे कई शब्द पिछले कुछ दशकों से कानों में पड़ते आ रहे है। इसी क्रम में हिन्दू संस्कार या संस्कृति पर लगातार चोट पहुँचाना या प्रदूषित करना भी प्रगति का पैमाना बन गया है। इसी के परिणामस्वरूप लिव-इन की व्यवस्था ने जन्म लिया जो भारत की प्राचीन काल से चली आ रही सनातनी व्यवस्था पर कुठाराघात करती है। जो पूरी तरह पाश्चात्य संस्कृति की नकल है।

लिव-इन माने बिना रीति रिवाजों के पालन के पति-पत्नी जैसे साथ-साथ रहना।

बहुत से कुतर्की इसकों हिन्दू के गन्धर्व विवाह से जोड़ देते है जबकि गन्धर्व विवाह यौन आकर्षण या धन तृप्ति हेतु किया जाता था। हिन्दू विवाह भोग लिप्सा का साधन नही वरन् धार्मिक संस्कार है।

बड़े शहरों में क्षणिक भौतिक आकर्षण के वशीभूत युवकों के कदम कैसे डगमगा रहे है कि उनकों होश भी नही रहता कि किस दिशा में जा रहे है।

गॉवो या छोटे शहरों से सपने लिये निकले बच्चे आदर्शवादी सपना लिये निकल पड़ते है। जिनके कदम कभी गॉवो के मेढ़ भी नही डिगा पाये थे वही शहरों मदमस्त चकाचौंध में ऐसे खो जाते है कि पिता के पसीने व मॉ के हाथों की चुपड़ी रोटी का तनिक ख्याल नही रहता। महत्वाकांक्षा उन्हे अपने आदर्शो की तिलांजलि देने पर मजबूर कर देता है या आहूति कर देता है जैसे विश्वामित्र का आत्मसमर्पण हो चुका हो मेनका जैसे स्वप्नसुन्दरी के आगे।

दिक्कत तो तब होती है जब ठगा गये व्यक्ति को एहसास होता है कि जैसे सब खत्म हो चुका है। अब आँखों पर बँधी पट्टी से निकलना होगा कानून ऐसे हो जहाँ स्त्री पुरूष समान रूप से दोषी हो। क्योकिं बड़े शहरों में आप किसी खास जेंडर को दोषी नही ठहरा सकते जहाँ साँप ही साँप हो और जो आपकों डसने के लिये सदैव मौकों की तलाश में हो।

@व्याकुल

ऐसा ये जहान

 "ऐसा ये जहान" पर्यावरण पर संदेश देती फिल्म है। शहरों में बसे हुए लोगो द्वारा बेहतरीन जीवन की तलाश में कही न कही प्रकृति से दूर हो जाते है जबकि गॉव का जीवन उनके आत्मा में रचा-बसा होता है।

धन्य हो निर्देशक को। मसाला फिल्मों से दूर ऐसी फिल्में गहरे तक संदेश दे जाती है। जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है।
सप्ताह में एक दिन सभी टॉकीजो में ऐसी फिल्में दिखाया जाना चाहिये।

@विपिन "व्याकुल"

अनंत चतुर्दशी व मलॉव के पाण्डेय

अनंत चतुर्दशी के दिन मेरे मनो मस्तिष्क में एकाएक एक घटना आकर अटक गयी जो वर्षो पूर्व घटित हुई थी जिसका जिक्र राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक "कनैला की कथा" और "मेरी जीवन यात्रा" में किया है।

इतिहास के पन्नों में मलॉव गांव (जिला गोरखपुर) की गौरवगाथाएं दर्ज हैं दस्तावेज के मुताबिक 16वीं सदी में डोमिनगढ़ के डोमकटार राजा की पत्नी तीर्थ के लिए वाराणसी जा रही थीं। रानी को किसी ने बताया था कि मलॉव के कुँए का पानी पीने से बंध्या पुत्रवती हो जाती हैं। वीर संतान पैदा करने की अभिलाषा से रानी ने मलॉव में अपना कारवां रोककर वहॉ के कुँए से पानी मंगवाया। मलॉव के पाण्डेय लोगों ने रानी के आदमियों को पानी भरने से रोक दिया। तीर्थ से लौटकर रानी ने राजा को अपने अपमान की दास्ताँ सुनायी। अनंत चतुर्दशी को मलॉव के पाण्डेय लोग व्रत रखते और हथियार साफ कर उन्हें सजाते थे। उसी दिन राजा ने निहत्थे लोगों पर धावा बोल दिया। मलॉव के बच्चो तक को नही छोड़ा गया था। महिलाओं को भी आक्रमणकारियों ने नहीं बख्शा गया था। जिस कुँए से रानी को पानी नहीं लेने दिया गया उसको ऊपर तक लाशों से पाट दिया गया। यहाँ कोई नहीं बचा था।
इस दिन के बाद से मलॉव के पाण्डेय अनंत चतुर्दशी नही मनाते।
@व्याकुल

फिल्म फोटो

एक बालक जिसे बचपन से ही गणित में मन कम लगता था। कल्पना व जादूई दुनिया में रहने वाला। गणित की कक्षा में कॉपी में चित्र बनाना। प्रकृति से बात करना।

हॉ यही कहानी है फिल्म फोटो (FOTO) की। भारतीय या विश्व स्तर पर बनी फिल्मों का इतिहास न पता हो तो अवश्य देखने लायक है। फिल्मी सामान्य ज्ञान से ओत प्रोत अच्छी फिल्म है। 1895 में lumiere brothers' की फिल्म फ्रांस के एक कैफे में चलाया गया था तब लोग भाग खडे हुये थे उन लोगो को लगा था कि पर्दे से ट्रेन बाहर आ जायेगी।
@व्याकुल
उस फिल्म को यूट्यूब पर सर्च किया तो.. https://youtu.be/4nj0vEO4Q6s
ये लिंक मिला।

भ्रमजाल


आज फिर वो ठगा सा महसूस कर रही थी। कुछ भी अच्छा नही लग रहा था।
आज मितेश की कमी खल रही थी उसको। पिछले बरसात की ही तो बात है जब इन्ही बरसात के दिनों में दोनो घूम रहे थे। समय कितना सब कुछ बदल देता है। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब दोनो की मुलाकात न होती हो।
मितेश जब पहली बार कॉलेज आया था कितना गुमशुम सा रहता था। पूरा अन्तर्मुखी स्वभाव था उसका। किसी का कभी ध्यान ही नही जाता। सबसे पीछे की सीट पर बैठना क्लास करना फिर निकल लेना।
उसने घर किराये पर मेरे पड़ोस में ही ले रखा था। कई महीनों बाद उसने सब्जी के ठेले पर सब्जी लेते समय पूछ ही लिया था क्या आप फलां कॉलेज से है। बस मै हाँ ही कह पायी थी। पता नही उसने सुना भी था या नही। आगे बढ़ गया था।
अब हम सभी द्वितीय वर्ष में आ गये थे। थोड़ा सभी लोग आपस में घुलने मिलने लगे थे। कब हमारी प्रगाढ़ता बढ़ गयी पता ही नही चला।
कॉलेज के बाद वो ट्यूशन पढ़ाने लगा। मै भी छोटे से स्कूल में पढ़ाने लगी। हम दोनों वीकेंड पर मिलने लगे।
एक दिन उसने शादी का प्रस्ताव भी रख दिया। मै ना नही कर पायी थी। हम दोनो ने चुपके से कोर्ट मैरिज कर ली थी। बाहर रूम ले लिया था।
मेरे घर में सिर्फ मेरा भाई ही था। मॉ-बाप बचपन में ही गुजर गये थे। 2-3 दिन के लिये बाहर का बहाना बना देती तो वो समझ नही पाता था। 4 साल तक सब ठीक ठाक रहा। अब उसने कानूनी रूप से तलाक लेने को कागज रख दिया था। शादी इतना गुप्त रूप में हुआ था कि किसी को अपना दुख भी जता नही सकती थी।
आज कुछ भी अच्छा नही लग रहा था। खिडकियों के बाहर बरसात का पानी ऐसे शोर कर रहे थे जैसे पत्थर मार रहे हो मुझे।
©️
व्याकुल

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 6


गतांक से आगे...

श्रीनगर चुनाव के बाद चौथे चरण के मतदान हेतु हम सभी को कुकरनाग ले जाया गया। पर्यटन के लिहाज से बेहतरीन जगह।

@व्याकुल

जिस स्कूल में ठहराया गया था उसके ठीक सामने पहाड़ जो घने वन से आच्छादित था और ठीक पीछे प्राकृतिक चश्में।
स्कूल के ही पास में महबूबा मुफ्ती का चुनावी भाषण भी सुना जो हमारें आश्रयस्थल तक स्पष्ट सुनाई दे रहा था। कुकरनाग बहुत ही सुन्दर स्थल था। वहॉ हम सभी को एक गार्डेन ले जाया गया जो मन को मोह लिया था।
वहाँ गाँव वालों से बात करने का मौका मिला। चुनावी गतिविधियाँ सामान्य रही।
चुनाव के पश्चात हम सभी को वापसी के लिये अवन्तीपुरा वायु बेस ले जाया गया जहॉ से हम सभी की वापसी हुई।
अवन्तीपुरा जाते वक्त बहुत सी दूकाने दिखी जों क्रिकेट के बल्ले से सजी हुई थी।
एक बात भूल गया था श्रीनगर चुनाव के दौरान हम सभी एक पहाड़ी पर गये थे जो काफी ऊँचाई पर था उसके शिखर पर प्रसिद्ध शंकराचार्य मंदिर है 10वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य यहां आए थे, जिसके कारण इस मंदिर का यही नाम पड़ गया। यह प्राचीन मंदिर भगवान शंकर को समर्पित है।
@व्याकुल

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 5


गतांक से आगे...

बेमीना वाले घटना ने अंदर तक हिला कर रख दिया था। हम पूरी तरह सुृधर चुके थे। वहॉ की भयावहता भाप चुके थे।
हमेशा की तरह बी.एस. एफ. वाले घुमाने ले गये। डल झील पर शिकारा से हम सभी ने सैर की। वहॉ के लोगो से कई अन्य मुद्दो पर चर्चा भी हुई।
वही पॉचवे चरण की चुनाव के लिये डोडा के लिये भी बोला गया। पर इतने लम्बे समय तक घर से बाहर होने के कारण ऊब चुके थे। ये था कि जल्दी से चुनाव समाप्त हो और घर वापसी हो।
कानपुर के कई मित्र मजाक में बोल कर गये भी थे कि अगर वापसी न हो पाये तो इतना करना एक मूर्ति लगवा देना। कानपुर हो या लखनऊ चुनाव कर्मियों को छोड़ने आये हुए परिवारीजनों के आँखों में आँसू थे।
बी.एस. एफ. जवानों की जितनी तारीफ की जाय कम ही है। इस बीच एक नई समस्या ने जन्म ले लिया था। माँसाहारियों नें भोजन में सामिष भोजन की माँग कर दी। जिला स्तर के चुनाव अधिकारियों से जोर शोर से माँग होने लगी। उनकी माँग पूर्ण होते देख हम शाकाहारी शांत कैसे बैठते। हम लोगों ने भी छेने की माँग कर डाली। जो शाकाहारी लोग डायबिटीज से ग्रसित थे वे ठगा हुआ महसूस कर रहे थे।
इसके अलावा और भी कई संवेदनशील मुद्दे पर कई बार लोगो से झड़प हुई। उन प्रकरण को यहॉ उल्लिखित करना उचित प्रतीत नही होता।
जहॉ तक चुनाव में वोटिंग प्रतिशत का सवाल था। पूरी तरह से चुनाव boycotted था। मजाल कोई वोट डालने आ जायें। एजेंट इत्यादि थे। शायद 6-7 वोट पड़े होंगे बस।

@व्याकुल

(नीचे चित्र में शिकारा की सैर करते हुये)



क्रमशः

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...