FOLLOWER

मंगलवार, 8 जून 2021

गिद्धम्

मानस रचयिता तुलसीदास जी का एक दोहा जो मुझे हमेशा से ही प्रिय रहा है:

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं।

गिरि निज सिरनि सदा तन धरही।।

जलधि अगाध मौलि बह फेन।

सतत धरनि धरत सिर रेनू।।

अपने से छोटों को भरपूर स्नेह व सम्मान दें। यही तो सूत्र या सार, जो शायद सभी बड़े लोंगो को याद रखना चाहिये या उनकों अपने चैम्बर में कैलेंडर के साथ लटका लेना चाहिये।

     चित्र: गूगल से

कलयुगी बड़े लोगों की प्रजाति कुछ कुछ गिद्ध जैसी गलत है,पूरा जीवन हवा में उड़ते रहते है। इतनी दूर तक हवा में उड़ जाते है कि जमीन या जमीनीं दोनों को नही दिखायी देते है। वैसे लोग मजाक में कह ही देते है, क्यों भाई दूरबीन लगाये हो क्या??? जो तुम्हे सब दिख गया... 

पर एक भाई थे वो तो बड़ें लोगों को टेलीस्कोप से देख रहे थे कि शायद उड़ते-उड़ते दूसरें ग्रह पहुँच गये हो। 

मुझे बड़ा रोमांच आता था गिद्धों को ऊँचाइयों पर उड़ान देखते हुयें। क्या खूब लहराते थे वों। कभी-कभी नीचे आ जाते थे। सर्प को पकड़ ले जाते थे... पर अब कलयुगी गिद्धों को कम दिखने लगा है, आते ही नही नीचे। हवा तो खाते नही होंगे, फिर ये कैसा अभिमान। अब तो गिद्ध भी कलयुगी हो गये।

हवा में एकछत्र राज्य का कसम गिद्ध ने खा नही रखा होगा। ठीक है अब वो नही दिखते प्रजाति तो विद्यमान है ही न।

पर्यावरणीय व्यवस्था में मुर्दाखोर पक्षी भी इंसानों जैसे हो गये दोनो को पेटू कहना गलत नही होगा पर ज़मीन पर आते रहने से पंख कमज़ोरी का अहसास नही होगा...

©️व्याकुल

सोमवार, 7 जून 2021

आहट - 4

 

गतांक से आगे...

भावेश को आज अॉफिसियल मीटिंग की वजह से देर से आना था। अवनी बेचैन थी। रात भर न सोनें की वजह से कब नींद आ गयीं, पता ही नही चला। शाम को जब बाई ने कॉल बेल बजाई तब नींद से अवनी जागी। 

"मेमसाहब, तबियत ठीक नही क्या?"

"ठीक हूँ, एक कप चाय पिला दे।" बात को टालने के लिहाज से बोला था उसने।

बाई तुरंत चाय बना लायी। चाय पीते हुये अवनी को विमल ढाबा याद आ गया, जहॉ वों अनगिनत बार हर शाम साकेत के साथ चाय-कॉफी पीने जाती थी। 

साकेत मध्यमवर्गीय परिवार से था। गेहुँआ रंग.. दुबला-पतला.. मुस्कुराता चेहरा। माता-पिता का इकलौता संतान। 

उस पहली शाम को उसे अपने घर की तरफ आते देखा था। मेरी तो धड़कन बढ़ गयी थी। मै तुरंत नीचे आ गयी थी। संयोग से सब घर के अंदर थे। मै जैसे ही मेन गेट पर आयी, वो हकलाता हुआ बोला था, 

"छत पर पतंग आ गयी है"

मैने वापस पतंग उसको दी ही थी।

"मुझे लोग "साकेत" कहते है। आपका नाम?"

उस अप्रत्याशित बोल ने मेरे होश उड़ा दिये थे। मै तुरंत भाग आयी थी।

क्रमशः

©️व्याकुल

शनिवार, 5 जून 2021

आहट - 3

 

गतांक से आगे...

भावेश ने अॉफिस से आते ही अवनी को उदास देखा, उससे रहा नही गया।

 "क्या बात है अवनी, तबियत ठीक नही क्या?" भावेश ने पूछा था।

"ऐसा कुछ नही, बस यूँ ही..." अवनी कहती हुई चाय बनाने किचेन चली गयी।

अवनी सपने की कोई चर्चा भावेश से करना ही नही चाहती थी।

यादों में तैर गयी थी साकेत के। घर के ऊपरी मंजिला की खिड़की से साकेत का घर साफ दिखता था। दसवीं की परीक्षा थी अवनी की। रात भर पढ़ती रहती थी। पहले तो कभी ध्यान ही नही गया, पर लगा जैसे कोई उसकी तरफ ही देख रहा है। जैसे ही अवनी उधर देखती वों अपनी नजर हटा लेता। रात को साकेत छत पर ही रहता जब तक अवनी सो नही जाती थी।

अवनी को अब स्पष्ट हो गया था कि साकेत के मन में उसके प्रति लगाव है। कर भी क्या सकती थी ऐसे पागलपन का। धीरे-धीरे उसे महसूस होने लगा था कि रास्तें में कोई उसका पीछा कर रहा है या साकेत देख रहा है। साकेत में इतना खो गयी थी। याद ही नही रहा उसे कि चाय को ऊबले बहुत देर हो चुकी थी। 

भावेश ने किचेन में आकर मुस्कुराते हुये कहा था, "अवनी, चाय उबल चुकी है।"

"ओह!!!" इतना ही बोल पायी थी अवनी।

भावेश अपने अॉफिस की चर्चा में मग्न हो गया। अवनी सिर हिलाती रही पर ख्यालों में साकेत ही रहा....

क्रमशः

©️व्याकुल

आहट - 2

 

गतांक से आगे...

शादी के बाद तो वो मायका जा ही नही पायी। न कभी भाई ने सुध ली न ही उसका मन हुआ। शादी होने के बाद मायके जाने के नाम पर लड़कियों का उत्साह देखतें ही बनता है। ससुराल की कितनी बातें होती है बतानें के लिये। कुछ कष्ट भी होता है तो बड़ी चालाकी से छुपा ले जाती है। मॉ- बाप को कोई पीड़ा न पहुँचे इसका कितना ख्याल रखती है वों। 

वो अपना सुख-दुख किससे कहती। कभी मौका ही नही मिला कुछ कहने कों। वर्ष में शायद ही एक-दों बार बमुश्किल भाई से बात होती होगी।

बार-बार फोन हाथ में लेती, फिर कुछ सोच कर कॉल करने की हिम्मत नही हो रही थी। ऐसा ही होता है जब हमें कभी कहीं से अपनत्व नही मिलता तो हम वहाँ बात करने में हिचकिचाते है, रिश्ता भले ही खून का हों।

मॉ का धुँधला चेहरा आज भी उसे याद है, जब वों लाल चादर पर लिपटी थी। मै नासमझ इंतेजार कर रही थी, मॉ अभी उठेगी और मुझे प्यार करेंगी। क्या पता था वों दिन मेरे जीवन का सबसे अभागा दिन था। याद है उस दिन कैसे उसके पिता ने उसे झिड़क दिया था। कोई ऐसे किसी अबोध के साथ करता है क्या। उस दिन के बाद से कभी पिता को हँसते नही देखा था मैने। 

साकेत उम्र में थोड़ा बड़ा था और पड़ोस में ही रहता था...

क्रमशः

©️व्याकुल

भूतहा पीपल

 

पत्तियों की खरखराहट दिन भर शोर मचाती रहती थी। उत्साह सा माहौल घर में बना रहता था। हॉ.. पीपल का ही पेड़ था, हवा के झोंको के साथ खुद भी झूम जाया करती थी। बचपन जब कभी उसकों देखती मन प्रसन्न हो उठता था।



पीपल के पेड़ के नीचे बैठना भी सुखद अनुभव रहता था। भगवान बुद्ध को तब पढ़ा नही था। बाद में समझ आया कि एक राजकुमार बोधिशाली इसी वृक्ष के नीचे हो गया था। कभी-कभी परिवार में लोगों को पूजते देखता था तो अथर्ववेद में लिखी बाते याद आ जाती है "अश्वत्थ देवो सदन, अश्वत्थ पुजिते यत्र पुजितो सर्व देवता" यानी पीपल के पेड़ की पूजा से सर्व देवताओं की भी पूजा हो जाती है।पतझड़ में भी कभी पीपल को पत्ता विहीन नही देखा इसीलिये पीपल को अक्षय वृक्ष भी कहा जाता रहा है।


कुछ दिनों के बाद फुसफुसाहट होने लगी। यही वृक्ष है जो घर में शांति नही होने दे रहा। ये मन को अशांत कर दे रहा है। बेचारा!!!! एक सजीव वृक्ष निर्जीव की भाँति कुतर्को को सुनता रहा। लोंग कैसे कैसे बात कर रहे। घर में हो रहे कई प्रपंचों का साक्षी रहा यह वृक्ष। वृक्ष को वास्तुदोष से जोड़ा गया। लोगों के मन में इतना भय व्याप्त हो गया कि आस-पास फटकना छोड़ दिया था। पीपल कैसे कहता "मै ही कृष्ण हूँ।"

गॉवों में हर एक पीपल के वृक्ष को बरम बाबा का निवास मान कर हाथ स्वयं ही दिल तक पहुँच जाता था। मन कैसे ये मान ले कि ये वृक्ष भुतहा भी हो सकता है। खुद को हर खता का दोषी इंसान मान ही नही सकता। आदमी लगाये गये और उसकों अंग अंग से धाराशायी कर दिया गया। आह भर रोया तो जरूर होगा नही तो मन की अशांति में ऐसी बढ़ोत्तरी न देखने को मिलता!!!!!

विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

@व्याकुल

शुक्रवार, 4 जून 2021

आहट - 1

 

खट्!! खट्!!

कुछ ऐसी ही आवाज सुनी थी उसने। उसकी तंद्रा भंग हुई। पसीने से तरबतर थी वों। इतना डरावना सपना। दो मिनट तो उसे नींद से हकीकत की दुनिया में आने में लगा। समझ ही नही पा रही थी कि खट् की आवाज उसने सपने में सुनी या हकीकत में। इंतजार करती रही फिर से किसी हलचल का। भावेश और वो आज ही वैक्सीन लगवाकर आये थे। मांसपेशियों में गजब का दर्द था, जिसकी वजह से आलस्य पूरे शरीर में व्याप्त था और ऊपर से भयानक स्वप्न। दुःस्वप्न देखते देखते जब अहसास होता है कि वो तो मात्र एक दुःस्वप्न ही था तो बड़ा सुकून मिलता है, लगता है जैसे नयी जिन्दगीं मिल गयी हों।


सुबह चार बजे तक उसे नींद नही आई। चिड़ियों की चहचहाट ने अहसास दिला थी कि सुबह हो गयी पर दिमाग में वही सपना घूम रहा था। साकेत का सपने में ऐसी हालत में देखना उसे परेशान कर रहा था।


रात भर सो न पाने से उसे सुबह से सर भारी था। बाई काम करके कब का चली गयी थी व भावेश कब अॉफिस चले गये उसे कुछ पता ही नही चला।


साकेत को तो वो बचपन से जानती थी। ईश्वर करे सपना सच न हो...

@व्याकुल


क्रमशः

बुधवार, 2 जून 2021

सत्तूनामा

 सत्, तम् व रज् गुणों की उग्रता देखना हो तो विद्यार्थी जीवन में जाये। उम्र जैसे जैसे प्रभाव दिखाना शुरू करता है सब कुछ क्षीण होता जाता है। ये तीनों आपसी सामंजस्य बैठा ही लेते है। ऐसे ही एक साथी रहे है जो रज गुणों से भरपूर थे। नाम था सत्तू।

सत्तू छरहरा बदन का लड़का था। एम. एस. सी. का विद्यार्थी था, पर जिद्दी बहुत था। हॉस्टल के कॉमन रूम की टी. वी. उसके रूम की शोभा बढ़ाते थे। मजाल की कोई शिकायत कर दे हॉस्टल वार्डेन से। पूरा हॉस्टल उसका महल था। 8-10 चेले थे। पूरी न्यूज उस तक पहुँचती रहती थी। किसी ने विरोध की अगर को़शिश की तो हाथ-पॉव टूटना तय था। क्षेत्रीय होने का लाभ भी था। आज तक के विद्यार्थी जीवन में पहली बार एक ने चैलेंज कर दिया था। सत्तू की शान के खिलाफ। सत्तू ने उसकों लात घूसों से दुरूस्त करने का मन बना लिया था।  प्लान ये बना किं एक लड़का बिजली के मेन स्विच को रात आठ बजे बंद करेगा। पूरे हॉस्टल की लाईट आधे घंटे तक बंद रहेगी। इसी आधे घंटे में विरोधी की पिटाई होना तय हुआ। लाईट अॉफ होने की वजह से वो किसी को पहचान नही पायेगा। निर्धारित तिथि व समय पर मेन स्विच अॉफ हुआ। पीटना शुरू ही किये थे कि वार्डन का निरीक्षण हो गया। मेन स्विच के पास खड़ा लड़का घबरा कर स्विच अॉन कर दिया। फिर क्या था!!! भगदड़ मच गयी। सत्तू और उनका ग्रुप पहचान लिया गया। कार्यवाई हुई। हॉस्टल से उनका पॉव उखड़ गया था...

©️विपिन

मंगलवार, 1 जून 2021

धर्मयुग

अगर आपकी पैदाइश 60 या 70 के दशक में हुई हो और धर्मयुग से परिचित न हुये हो तो धिक्कार है आपकों। जैसे आज भी लोग गीता प्रेस की 'कल्याण' पढ़ने के लिये तरसते रहते है वैसा ही इतिहास धर्मयुग का रहा है। इसका प्रथम अंक 1950 में आया। इलाचंद्र जोशी व सत्यदेव विद्यालंकार इत्यादि के हाथो रहा। मै तो बहुत दिनो तक सोचता रहा ये पत्रिका धर्मवीर भारती की है। पूरक थे दोनो एक दूसरे के। 1950 से 1960 तक जितने पाठक बने सिर्फ 5 वर्षो में ही इसके उतने पाठक बन चुके थे। आज भी उसी साईज की कोई पत्रिका देखता हूँ तो बरबस ही धर्मयुग याद आ जाती है।

@व्याकुल

प्रगतिशील

लिव-इन
प्रगतिशील
स्त्री- आजादी
इत्यादि इत्यादि


ऐसे कई शब्द पिछले कुछ दशकों से कानों में पड़ते आ रहे है। इसी क्रम में हिन्दू संस्कार या संस्कृति पर लगातार चोट पहुँचाना या प्रदूषित करना भी प्रगति का पैमाना बन गया है। इसी के परिणामस्वरूप लिव-इन की व्यवस्था ने जन्म लिया जो भारत की प्राचीन काल से चली आ रही सनातनी व्यवस्था पर कुठाराघात करती है। जो पूरी तरह पाश्चात्य संस्कृति की नकल है।

लिव-इन माने बिना रीति रिवाजों के पालन के पति-पत्नी जैसे साथ-साथ रहना।

बहुत से कुतर्की इसकों हिन्दू के गन्धर्व विवाह से जोड़ देते है जबकि गन्धर्व विवाह यौन आकर्षण या धन तृप्ति हेतु किया जाता था। हिन्दू विवाह भोग लिप्सा का साधन नही वरन् धार्मिक संस्कार है।

बड़े शहरों में क्षणिक भौतिक आकर्षण के वशीभूत युवकों के कदम कैसे डगमगा रहे है कि उनकों होश भी नही रहता कि किस दिशा में जा रहे है।

गॉवो या छोटे शहरों से सपने लिये निकले बच्चे आदर्शवादी सपना लिये निकल पड़ते है। जिनके कदम कभी गॉवो के मेढ़ भी नही डिगा पाये थे वही शहरों मदमस्त चकाचौंध में ऐसे खो जाते है कि पिता के पसीने व मॉ के हाथों की चुपड़ी रोटी का तनिक ख्याल नही रहता। महत्वाकांक्षा उन्हे अपने आदर्शो की तिलांजलि देने पर मजबूर कर देता है या आहूति कर देता है जैसे विश्वामित्र का आत्मसमर्पण हो चुका हो मेनका जैसे स्वप्नसुन्दरी के आगे।

दिक्कत तो तब होती है जब ठगा गये व्यक्ति को एहसास होता है कि जैसे सब खत्म हो चुका है। अब आँखों पर बँधी पट्टी से निकलना होगा कानून ऐसे हो जहाँ स्त्री पुरूष समान रूप से दोषी हो। क्योकिं बड़े शहरों में आप किसी खास जेंडर को दोषी नही ठहरा सकते जहाँ साँप ही साँप हो और जो आपकों डसने के लिये सदैव मौकों की तलाश में हो।

@व्याकुल

ऐसा ये जहान

 "ऐसा ये जहान" पर्यावरण पर संदेश देती फिल्म है। शहरों में बसे हुए लोगो द्वारा बेहतरीन जीवन की तलाश में कही न कही प्रकृति से दूर हो जाते है जबकि गॉव का जीवन उनके आत्मा में रचा-बसा होता है।

धन्य हो निर्देशक को। मसाला फिल्मों से दूर ऐसी फिल्में गहरे तक संदेश दे जाती है। जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है।
सप्ताह में एक दिन सभी टॉकीजो में ऐसी फिल्में दिखाया जाना चाहिये।

@विपिन "व्याकुल"

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...