साझा
कभी
टिकता नही
मन का
ख्याल से
वाणी का
विचार से
राह का
पथिक से...
साझा
जिंदा
रहता है
जीवन की
संझा व
चंद
लकड़ियों
में....
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
साझा
कभी
टिकता नही
मन का
ख्याल से
वाणी का
विचार से
राह का
पथिक से...
साझा
जिंदा
रहता है
जीवन की
संझा व
चंद
लकड़ियों
में....
@व्याकुल
कहकुतिया या "कहबतिया" ही कह लिजिये। बचपन से ही बड़ों ने कोई सीख दी है तो "कहकुतिया" ही माध्यम हो सकता है। आंग्ल भाषा में "according to..." व हिन्दी में " के अनुसार" का पर्याय था कहकुतिया। ठेठ अवधी अंदाज में पथ प्रदर्शक का कार्य करता था ये शब्द। मुहावरा जैसा ही इसका वाक्यांश होता है.. सरल व रोचक...
मजाल है किसी ने कहकुतिया शब्द पर ऊँगली उठाई हो। सालों-साल के अनुभव के बाद कहकुतिया की खोज हुई होगी।
"देशी चिरईया मराठी बोल" जैसे बोल सुनने को मिल ही जाता था।
"कम खा काशी बसअ्" जैसे कहबतिया तो रोक ही लेते है परदेश भ्रमण को और संतोष से रहने की सलाह दे डालते है।
"बाड़ी बिसतुईया बाग क नजारा मारई" इसे आप छोटी मुँह बड़ी बात समझ लीजिये।
"बिच्छू क मंत्र न जानई कीरा के बिल में हाथ डालई" का अर्थ स्पष्ट है कि छोटे मोटे समस्या से निपट नही पा रहे और बड़े आफत मोल ले रहे।
"ढोल में पोल" में शब्द का अर्थ स्पष्ट है.. बजता कितनी तेज है पर पोल ही पोल होता है। बड़े लोगो के संदर्भ में प्रयोग किया जा सकता है।
@व्याकुल
सभी डाकडर बाबू को हमरे तरफ से भी शुभकामनाएँ...
हमरे गॉव के नजदीक मनीगंज नाम क एक जगहा बा। मनीगंज नाम से पाठक लोगन के लगत होये किं कौनो धनी मनी वाल जगहा होये पर अइसन एकदम नाही बा। जाई पर अइसन लगत रहा जइसे कौनो उजड़ा युद्धस्थल बा। कौनो रौनक नाही। ऊहा क दुई दुकान हमरे स्मृति में बा। जेमन से एक ठी रहा महबूब डाकडर क कलीनिक। ऊहा जाई क एकई मकसद रहा महबूब डाकडर। डाकडर साहब के विषय जोन हम बचपन से सुनत आवत रहे कि ओ कौनो बड़े डाकडर के अंडर में काम केहे रहेन। महबूब डाकडर सिगरेट खूब फूकत रहेन। पतला दुबला शरीर।नान सूती कुरता पायजामा। इहई पहिचान रहा ओनकर।
पिछवाड़े क फोड़ा क आपरेशन कौनो बड़े सर्जन स्टाइल में करत रहेन। इंजेक्शन गरम पानी में कहलुआ देई के बादई लगावई। आतमविसवास एकदम ऊँच स्तर क रहा डाकडर बाबू क।
बाद में ओनकर शर्त रहा कि हम ओनही के इहा जाब जहाँ जे हमके साईकिल पर लई जाये। हम कई बार अपने साईकिल पर बईठा कर घरे लई आवत रहेन।
##महबूब डाकडर अऊर हमार पिताजी
हमरे पिताजी के सीने दर्द उठई पर जान न पावई का भ बा। महबूब देखेन त तुरंतई कहेन.. हे पाण्डेय!!! तोहे एंजाइना बा.. कौनो बड़े डाकडर के दिखाई द पर पिता जी कहॉ मानई वाले... लईकन के तकलीफ नाही देई के बा भले ही कुछ होई जाय... एक दिना फिर महबूब डाकडर क पिताजी आमना-सामना होई ग... महबूब डाकडर कहेन, "अबहई तक गयअ नाही" "लईकन के फोन करय के पड़े"
फिर का रहा। अगले ट्रेन से पिताजी प्रयागराज.. लखनऊ में बड़े डाकडर देखतई तुरंत आपरेशन केहेन...एहई तरह से पिताजी के जीवन देहेन डाकडर बाबू।
भले ही कुछ लोग या सरकार अइसे डाकडर के झोला छाप नाम से नवाजई पर ऐ सब गॉव देश में हमार जीवन आधार हैन। देश क 70% आबादी क जीवन प्रदान करई वाले महबूब डाकडर व सभन डाकडर के हमार नमन व शुभकामनाएं।।।💐
@व्याकुल
"बड़ा ही मुश्किल होता है जब बड़े शख्सियत के मध्य खुद की पहचान बनाना हो।"
ये बात अगर भौगोलिक रूप से फँसे हुये जिला भदोही की बात की जाये तो कुछ भी गलत नही होगा। आध्यात्मिक शहर काशी और तीन नदियों के संगम पर बसे हुये प्रयागराज के महात्म्य व प्रभाव पर बहुत कुछ आत्मिक स्तर पर महसूस किया जा चुका है।
आज 30 जून है जो कि भदोही के वर्तमान का स्थापना दिवस है। वो वर्ष था 1994 व 65 वां जिला के रूप में स्थापित हुआ था।
वाराणसी का हिस्सा हुआ करता था कभी। शायद यही वजह रही होगी विकास से कोसों दूर रहा था भदोही।
भदोही का इतिहास भारशिव राजवंशों से जुड़ा हुआ है। वर्तमान् का मिर्जापुर (तब का कांतिपुरी) भारशिवों की राजधानी हुआ करती थी। बड़े पराक्रमी थे भारशिव।
के. पी. जायसवाल की पुस्तक "भारत वर्ष का अंधकार युगीन इतिहास पृ. 10 में भारशिवों के बारे निम्न श्लोक से वर्णन मिलता है:
अंशभार सन्निवेशित शिवलिंगोदवहन , शिव सुपरितुष्टानाम समुत्पादित राजवंशनाम् पराक्रम अधिगत : भागीरथी : अमल जल मुरघाभिष्कतानाम् दशाश्वमेघ अवमृथ स्नानानाम् भारशिवानाम्
अर्थ: अपने कंधों पर शिवलिंग का भार वाहन करके शिव को सुपरितुष्ट करके जो राजवंश पैदा हुआ उस भारशिव वंश ने पराक्रम से विजय प्राप्त कर , गंगा जल से अवभृत से स्नान कर गंगाजल से ही अपना राज्यअभिषेक करवाकर दस अश्वमेध यज्ञ किए थे।
आधुनिक काल में भदोही ने अपनी अपनी एक अलग ही पहचान बना रखी है औद्योगिक स्थली के रूप में। 15-20 वर्ष पहले तक कालीन उद्योग गॉव-गॉव में फलता फूलता रहा है जो बहुत बड़ा माध्यम था जीविका का।
जिला मुख्यालय से लगभग तीस किमी दूर गंगा नदी के किनारे बसे द्वारिकापुर व अगियाबीर गांव में किए गए उत्खनन (जो हाल फिलहाल में तीन वर्ष पहले कराया गया था) के बाद नव पाषाण काल के भी कई दुर्लभ साक्ष्य मिले हैं।
विशिष्ट पहचान के दृष्टिगत संग्रहालय की स्थापना हो ताकि भदोही की अपनी सांस्कृतिक व ऐतिहासिक विरासत को संरक्षित किया जा सके....
©️व्याकुल
हर ओर मंजर तबाही का था
गुफ्तगु कश्ती का मौत से था
बेबसी के आगोश में कैसे आता
किं वों साहिल के जज़्ब में था
©️व्याकुल
डाँट पड़ती थी तब लगता था उक्त वाक्य नकारात्मक है। गति बन न पाये तो क्या करें। कहाँ से बन जाये रोबोट।
बालपन में किसी और बच्चे से तुलना हो जाये तो बहुत खराब लगता है। कर तो रहा हूँ। अभी बहुत सी बातों से उबर पाया नही था किं उल्टी गिनती पढ़ने का चैलेंज आ गया। 100..99..98..97..
सीधे का स्पीड बन नही पाया था तब तक उल्टा को स्पीड में लेना था। थोड़े समय बाद खरगोश कछुयें के दौड़ की कहानी पढ़ी तब सुकून आया। कभी तो जीतेंगे। फिर सफल लोंगो से बात की। सतत्.. निरन्तर.. न जाने कितने शब्द आये.. सभी समकक्ष थे.. मुहावरे को बल मिला उठने को। फिर क्या था। नौ दिन चले अढ़ाई कोस की परिभाषा तय हुई। चलते रहो।
मुद्दा ये नही है कि आप तेज चल रहे या धीमें। चल तो रहे है न!!!!!! महत्वपूर्ण आपका चलना है। सफलता का पर्याय बन गया मुहावरा। सतत् चलते रहना ही आपकों पूज्य बनाता है। उदाहरण के तौर पर ही देखिये... सूर्य और चंद्रमा...
इंद्र देवता भी भाग्योदय हेतु चलते रहने पर बल देते है.....
आस्ते भग आसिनस्य
ऊर्ध्वंम तिष्ठति तिष्ठतः
शेते निपद्य मानस्य
चराति चरतो भग:!
चरैवेति चरैवेति!!!
बैठे हुये मनुष्य का सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । पड़े हुये या लेटे हुये का सौभाग्य भी सो जाता है। विचरण करने वाले का सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए तुम विचरण ही करते रहो....
जरूरी नही खुद का फायदा हो तभी चलते रहे... बादल को ही देखे.. दक्षिण पश्चिम से चल कर पूरा भारत भ्रमण कर जनहित हेतु सतत् चलता रहता है... हर वर्ष नियमित रूप से। निरंतरता कर्मशील होने का आवश्यक गुण है....
अढ़ाई ही क्यों दो कोस भी चलना पड़े तो चलते रहे बस रुके नही..........
@व्याकुल
अनचाहा
प्रकाट्य
धरा पर
अन्जानें
रिश्ते...
नित्
सामंजस्यता
बैठाते
धूर्तता
लम्पटता से
सने लोग...
सफर तय
कर लूँ
स्थूलता का
देह बाँट दूँ
पंचतत्वों में
और
लौट जाऊँ
शून्य में
लिये सूक्ष्मता
को
अपने साथ...
©️व्याकुल
करूँ कैसे परिभाषाएं प्रकृति का
गर समेट लूँ निश्चल मन बाल पन का
देखना कौन चाहे श्रृंगार प्रकृति का
निहार सके है जो अलंकृत सद्गुणी का
भाषा किसने सुना है प्रकृति का
कायल हो सका है जो मृदुभाषी का
पहनावा गढ़े है वो प्रकृति का
जो झाँक सके है सौम्य अन्तर्मन का
कर न सके नकली मीत प्रकृति का
जैसे ज्योति हर सके है व्याप्त तम का
ढाल सके है कौन खुद को प्रकृति सा
आसान नहीं बनना भगीरथ गंगा सा
आओ देखे घाव भरा तन प्रकृति का
देख सके है जो अविरल आँशू लहू का
@व्याकुल
शेखर आज बहुत ही खुश था। शेखर ने जब दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की थी तब उसके पिताजी ने राजदूत मोटरसाइकिल उसे गिफ्ट में दी थी। शेखर अत्यंत ही प्रतिभाशाली छात्र था। चेहरे पर तेज, ऊर्जावान व चपल था।
उसे घर के बगल में रहने वाली नेहा बहुत पसंद थी। शुरू शुरू में नेहा ने शेखर पर ध्यान नहीं दिया था पर नेहा को अब लगने लगा था शेखर ज्यादा ही उसके घर के आस पास मंडराता है। पहले तो उसने शेखर को ज्यादा भाव नहीं दिया पर बाद में शेखर की मासूमियत व सक्रियता से कुछ कुछ पसंद करने लगी थी।
हां, जब नेहा ने उसको पहली बार मुस्कुरा कर देखा था तब उसके खुशी का ठिकाना ना रहा था।
शेखर अब विश्वविद्यालय में प्रवेश ले चुका था। अपने राजदूत मोटरसाइकिल से प्रतिदिन विश्वविद्यालय जाता था और बड़ा ही खुश रहता था। नेहा भी उसी विश्वविद्यालय में आर्ट्स की स्टूडेंट थी। अब उसकी नेहा से विश्वविद्यालय में प्रतिदिन मुलाकात होने लगी थी दोनों कैंटीन मैं बैठे काफी समय बतियाते रहते थे।
दो वर्ष कैसे बीत गए दोनों को भनक नहीं लगा। शेखर आज कुछ उदास सा था क्योंकि नेहा को उसके साथ समय व्यतीत करना अच्छा नहीं लग रहा था। वह कुछ ना कुछ बहाने बनाकर दूरियां बनाने का प्रयास कर रही थी पर शेखर चकित था नेहा के व्यवहार में अचानक से परिवर्तन हो जाना।
नेहा से उसने पूछा भी था
"नेहा क्या हो गया तुम्हे"
नेहा को उसने एक दूसरे लड़के के साथ विश्वविद्यालय के कैंटीन में देख लिया था। तुरन्त ही वहाँ से चला गया था।
आज बी. एस. सी. द्वितीय वर्ष की परीक्षा परिणाम आया था। शेखर फेल हो गया था।
घर में उसके पापा बहुत डाँटने लगे थे। शेखर की सौतेली माँ शेखर के सौतेले भाईयो में मस्त रहती। शेखर बेचारा अपनी मन का दुःख किससे कहता।
शेखर गऊघाट पर सड़क के एक किनारे पर पड़ा था। किसी ने उसको उठा कर अस्पताल पहुँचाया था। जब उसको होश आया तब उसके पिता नर्स से कह रहे थे,
" मेरा प्रतिदिन आना मुश्किल है, खर्च की चिंता न करों।"
रो पड़ा था उस दिन।
सेकेंडो में सब अजनबी कैसे हो गये।
एक दिन अस्पताल से खुद ही निकल गया। कोई कुछ पूँछता तो बस मुस्कुरा देता।
हाय!!! दुनिया!!!
अब सिर्फ चौखट ही सहारा रह गये थे।
@व्याकुल
बेस्वादू सा क्यों लगे यें कबीर चौरा
खून लगे हो जैसे बाजार ख़ास का
भूल बैठे है काशी के घाटों की सीढ़ीया
झूठें ख्वाब बाँधे हो टूटते पतंगो सा
कँधे न मिले अश्क ही मिले रुसवाई में
हर शख्स मोल लगाने को तैयार मिला
कई हाथ उठे थे उन तंग गलियों में
उड़ते शहरों की बेरुखी का क्या
ऊँगलियाँ छूटती कैसे घूमते भीड़ में
जेबें जो रहे बेख्याली में "व्याकुल"...
@व्याकुल
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...