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गुरुवार, 15 जुलाई 2021

वादा

 

वैभव की कुछ दिन पहले ही नई नौकरी की ज्वाइनिंग गुडगॉव में हुई थी। छोटे शहर भदोही से निकलकर बनारस से उसने उच्च शिक्षा ली थी। वो अपने जीवन में कभी भी बड़े शहर नही गया था। बड़े शहर का चकाचौंध छोटे शहर से निकले हुये इंसानों आकर्षित करता रहा है।

वैभव के अपार्टमेंट में सुबह से शाम सभी भागते हुये नजर आते है। वो अकेला फ्लेट में रहता था। एक दिन शाम को उसके फ्लेट की कॉल बेल बजी। उसने देखा उससे मिलने नवयुवती आई हुई है। वो नवयुवती जिसकी आँखे बड़ी-बड़ी, चमकीला व हँसता चेहरा व माथे की बड़ी बिंदी जो किसी को भी आकर्षित कर ले। वैभव दरवाजा खोल ही पाया था कि उस नवयुवती ने पूछा,

'आप क्या पड़ोस में नये-नये आये है?'

मै सिर्फ सर ही हिला पाया था।

"कोई दिक्कत हो तो बतलाना", वो बोली थी।

मैने कहा, 'जी'।

मेरे इतना कहने पर वो चली गयी थी।

अगले दिन सुबह फिर वो लिफ्ट में मिली। बोली, 
'आप कहाँ से है' , 'किस कम्पनी में जॉब कर रहे' इत्यादि इत्यादि।

मै सिर्फ उसके बक बक में उलझ कर रह गया था।

अॉफिस से आते जाते मुलाकात होती रही।

एकाध बार अपने छोटे से बच्चे के साथ दिख जाती थी वों। मैने अनुमान लगा लिया था कि ये बच्चा जरूर उसका ही होगा। पति शायद कही शहर से बाहर नौकरी कर रहे होंगे। मेरी कभी हिम्मत नही हुई उससे व्यक्तिगत प्रश्न करने की।

पहनावा से ऐसा लगता था जैसे वो पतिव्रता नारी हो।

समय कब पंख लगाकर उड़ जाता है पता ही नही चलता। इस तरह से मेरे तीन महीने गुजर गये थे। उस फ्लेट में रहते हुये वो जब भी मिलती बक बक लगाये रहती। मै भी चुपचाप उसकी सुनता रहता। इन महीनों में कभी उसके पति नही दिखे।

एक दिन सुबह कॉल बेल बजी। देखा तो वही थी।

मैने पूछा,

'जी मैडम'

वो बोली,

'वैभव जी, आज आपका चाय मेरे साथ होगा।'

मैने कहा,

'इतना परेशान न होइए'

वो बोली,

'मै कोई औपचारिकता नही निभा रही हूँ'

फिर आदेशात्मक लहजे में बोली, 'आइयें'
मै ठहरा संकोची स्वभाव का।

उनके ड्राइंगरूम में महँगे सोफे थे। हर चीज बड़े करीने से सजे हुये थे। तब तक चाय व पकोड़े के साथ हाजिर हो चुकी थी।

वो बोली,

'एक बात कहुँ'।

मैने संकेत से हाँ में सिर हिलाया।

वो बोली,

'छोटे शहर के लोग बहुत संकोची होते है'।

मै सिर्फ मुस्कुरा दिया था।

अब धीरे-धीरे मेरी हिचक जाती रही। अब उनके साथ बाहर घूमने लगा था।

एक दिन शाम की चाय के समय मैने पूछ ही लिया,

"आपके पति कभी नही दिखते"

उसकी आँखो में आँशू आ गये थे।

मै मौन था।

थोड़ी देर बाद वो अपने को सामान्य करते हुये बोली,

'वैभव, मेरा उनसे तलाक हो गया है'।

मै अवाक् रह गया था क्योकिं उनके पहनावा व इतनी उर्जामयी शख्सियत से इस बात का अंदाजा नही लगाया जा सकता था। शायद शादीशुदा सी जिन्दगी जीना समाज से खुद को बचानें के लिये होगा।

मेरे हाथ खुद-ब-खुद उनके हाथ को अपने आगोश में ले सांत्वना दे रहे थे। एक अजीब सी नजदीकियां महसूस हो रही थी दोनों के बीच।

ऑफिस के अलावा सारा वक्त उन्हीं के साथ व्यतीत होने लगा। सारी दूरिया खत्म होने लगी थी। अब वो मेरी जिन्दगी में अच्छी खासी शामिल हो चुकी थी। मै भी अब पूरी तत्परता से उनकी मदद करता।

हमेशा ही वो मुझसे कहती,

'वैभव वादा करो कि तुम मेरे दोस्त बने रहोगे'।

मै संकेतों में सकारात्मक जवाब दे देता।

उस दिन की सुबह हिला देने वाली थी। उसके फ्लेट से लगातार बच्चे के रोनें की आवाज आ रही थी।

मैने उनके घर की बेल बजायी। कोई प्रतिक्रिया नही आयी। मन अनहोनी की आशंका से व्यथित था। अपार्टमेंट के कई लोग इकट्ठे हो चुके थे। पुलिस बुलाई गयी। दरवाजा तोड़ा गया।

आँखे फटी की फटी रह गयी और वो पंखे से लटकी मुझसे कह रही हो,

'वैभव वादा करो कि तुम मेरे दोस्त बने रहोगे'।

हाँ, वादा रहा। मै मन ही मन बुदबुदा रहा था।

मै देरतक उस छोटे से बच्चे के सर पर अपने हाथ से सहलाता रहा था।

@व्याकुल


बुधवार, 14 जुलाई 2021

तारणहार

इलाहाबाद में बारिश के समय नाव को बहते पानी में छोड़ना कितना सुखदाई लगता था। मैं और मेरे बचपन के कई मित्र कागज की नाव बनाकर पानी में छोड़ दिया करते थे। बड़ी अच्छी मित्रता हुआ करती थी। बारिश में केचुओं को इकट्ठा करना.. उनको इधर उधर भटकने ना देना हम सभी का शौक हुआ करता था। हम सभी के एक ही स्कूल व एक ही कक्षा थे। सिर्फ सोने के वक्त हम लोग अलग होते थे।

आज भी बरसात की वह दिन याद है जब मैंने कुछ आहट का आभास किया था जैसे अनिल के घर मारपीट चल रही हो। मेरी उम्र उस वक्त 8 वर्ष की होगी। मैं अबोध बालक देखता हूँ की अनिल के घर से ठेले पर घरेलू सामान लद कर जा रहे थे जो मेरे ह्रदय को विदीर्ण कर देने वाला थे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इतने घनघोर बारिश में कौन घर से बाहर निकलता है पर अनिल व उसके पूरे परिवार का इस तरह से निकलना दुखदाई था।

मैं पूछ भी नहीं सकता था की क्यों यहां से जा रहे हो??? और कहाँ के लिए???

मैंने अपनी मां से पूछा था, 

"अनिल कहां जा रहा है?" 

मां ने बोला था

"बेटा, यह उसका घर अब नहीं होगा।"

 मैंने पूछा, "क्यों माँ???" 

मां ने बताया, 

"उनके पिता इस घर को जूए में हार गए हैं।" 

मुझे तब जूए का अर्थ भी नहीं पता था। 

मैंने पूछा, "माँ, जूए में जो लोग मकान हार जाते हैं क्या उन्हें ऐसे मौसम में ही मकान छोड़ना होता है???" 

माँ ने मुझे गले लगा लिया था और बोला था, "नहीं बेटा!!!" 

मानवता जब मर जाती है तभी मानव को ऐसे हाल पर छोड़ दिया जाता है चाहे रेगिस्तान हो या बाढ़....

माँ की सुनाई कहानी मुझे स्मरण हो आया था..द्रोपदी का क्या हश्र हुआ होगा, उनके पास तो उनकी लाज बचाने को उस युग में कृष्ण थे क्या इस युग में कोई तारणहार बन सकेगा।

@व्याकुल

सोमवार, 12 जुलाई 2021

निगाहें

निदा फाजली की चंद लाइन....

दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजिए रिश्ता

दिल मिले या न मिले हाथ मिलाते रहिये

हाथ मिलाना तो अब हो नही सकता। मै सोच रहा था कोई और विकल्प क्या क्या हो सकता है???? 

अब तो निगाहें ही रह गयी मिलाने को। उसे ढंग से दुरूस्त कर लिया जायें। लोग कहते है कि इसकी निगाहें ठीक नही थी.. फलाँ की निगाह ठीक थी। 

निगाहों का भी अपना वसूल है.. कितने समय तक ये टिकाये रखना है। अगर ज्यादा समय लगा दिये तो समझिये आप गयें। गिरफ्त हुये दुनियादारी में।

"निगाहे मिलाने को जी चाहता है....."

जब से ये चंद लाईन सुनी है। गीतकार को धन्यवाद देने का मन करता है पर निगाहों को चलाने का उन्हें अभ्यास था सेकेंडो में निगाहों को फेरने का। हम कब तक पुतलियों में बैठने का इंतजार करते।

इकबाल साहब तब तो सही कहते है...

मुमकिन है कि तू जिसको समझता है बहारां

औरों की निगाहों में वो मौसम हो खिजां का

इससे बढ़िया साकी है जो मौज से गिरफ्त में है मस्क के.. वरना निगाहें फेर लेते है वो...हम गुनगुना उठते है..

हाय रे इकबाल...

साकी की मुहब्बत में दिल साफ हुआ इतना

जब सर को झुकाता हूं शीशा नजर आता है...

@व्याकुल

सौतन

शादी के मंडप पर बैठा राजन बहुत ही उदास था। उसने शादी के बहुत पहले ही रेडियो की माँग कर दी थी वो भी बुश कंपनी की। इधर कई बार पंडितों ने उसकी तंद्रा भंग की थी पर वह रेडियो के ख्यालों में डूबा था ।

समय कलेवा का था। राजन मुँह बनाए बैठा था। कलेवा शुरू कैसे करें। रेडियो तो दिखा ही नहीं । लड़की वाले भी राजन के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। तड़पा ही दिया था लगभग। तभी राजन के आँखों में चमक आ गई थी। बुश रेडियो को उसने देख लिया था ।

हंसी-खुशी विदाई के वक्त कार में एक तरफ दुल्हन तो दूसरी तरफ रेडियो था राजन के ।

दुल्हन की आंखों में आंसू था। पर राजन रेडियो के बटन को समझने में लगा था। उसने रेडियो ऑन ही किया था कि विविध भारती की चिर - परिचित संगीत सुनाई दी थी। तभी विविध भारती पर बज रहे एक गीत ने उसके खुशी पर पंख लगा दिया था।

'बाबुल का घर छोड़ के बेटी......'

राजन चकित था जैसे विविध भारती सब देख रहा हो।

दुल्हन ने फिर सुबकना शुरू कर दिया था।

राजन बहुत ही खुश था अब उसको नागेश के घर नहीं जाना पड़ेगा। गाना सुनने के लिए उसका सबसे पसंदीदा कार्यक्रम दोपहर के दो बजे का था। उस वक्त भोजपुरी गीत का कार्यक्रम होता था। 

शादी के अगले दिन राजन नीम के पेड़ के नीचे खाट पर लेटा हुआ था। उसके सर के पास रेडियो पर गाना बज रहा था। आज दो बजे जैसे ही पहला गाना शुरू हुआ वो झूम उठा था। 

'हे गंगा मैया, तोहे पियरी चढ़इबे...'

खेत - खलिहान कहीं भी जाता रेडियो साथ ही रहता। उसके शरीर का एक आवश्यक अंग बन चुका था। दिलीप कुमार का एक गाना सुनते ही नाचने लगा था वो.... 

'नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक....'

दुल्हन के सामने गाने की आवाज तेज कर देता था। वह प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करता पर दुल्हन को उसके रेडियो से चिढ़ हो गई थी। रेडियो को सौतन जैसे देखती थी वो।

रात को मनपसंद गीत सुनते - सुनते सो गया था वह। सुबह उठा तो रेडियो गायब था। बहुत परेशान था वह। रेडियो के बिना उसे लगा जैसे उसका प्राण निकल गया हो। 

शायद दुल्हन की आँखों को खटकती वो सौतन बलि चढ़ गयी।

@व्याकुल

रविवार, 11 जुलाई 2021

जनसंख्या पलायन

आज विश्व जनसंख्या दिवस है। देश की जनसंख्या इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि नियंत्रण करना मुश्किल हो गया है वह दिन दूर नहीं जब हमारी जनसंख्या चीन की जनसंख्या को पछाड़ देंगे।

अपने देश में जनसंख्या एक समस्या तो है ही दूसरी समस्या पलायन की है। गांव में आप आज की तारीख में पाएंगे कि लोगों के घरों में ताले लगे हुए हैं। आपको बुजुर्गों की संख्या गांवों में पर्याप्त रूप से मिल जाएंगे । पहले गांव से शहर की ओर पलायन, फिर शहर का बड़े शहरों की ओर पलायन, बड़े शहरों से दूसरे देशों की ओर पलायन एक बड़ी समस्या हो सकती है काम-काज, रोजी-रोटी की तलाश में ही पलायन हो रहे हैं, यह चिंताजनक स्थिति है। 

आज से 20 वर्ष पहले ब्रेन ड्रेन शब्द समाचार पत्रों और बड़े मंचो पर सुनाई देता रहा है पर अब उदारवादी अर्थव्यवस्था के परिणाम स्वरूप ब्रेन ड्रेन या प्रतिभा पलायन जैसे शब्द कहीं खोह में छुप गए है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्रतिभा पलायन या प्रतिभाओं का देश छोड़कर दूसरे देश को जाना कई मामलों में सामाजिक व्यवस्थाओं चिंतित करता है। जब हम प्राचीन भारत की बात करते हैं तब सात समुंदर पार पर कैसे भारतीय समाज हथकड़ी लगा देता था, आज गर्व का विषय माना जाता है की मेरा लड़का विदेश में है जबकि यहां उसके बुजुर्ग माता-पिता असहाय हो जाते हैं। विदेशियों के परिपेक्ष्य में पारिवारिक व्यवस्था जमीनी स्तर पर नगण्य है। वहां की सामाजिक व्यवस्था भारतीय व्यवस्थाओं के ठीक विपरीत मालूम होती है। भारत में विश्व जनसंख्या दिवस के संदर्भ  में नियंत्रण की कोशिश के साथ-साथ पलायन को भी हर स्तर पर रोकना होगा।

अगर जनसंख्या पलायन को हर स्तर पर नहीं रोका गया तो जनसंख्या का संतुलन बिगड़ सकता है। जहाँ सुविधाओं का स्तर अच्छा होगा वहाँ जनसंख्या का घनत्व ज्यादा होगा। इससे मूलभूत सुविधाओं के अकाल का सामना करना पड़ सकता है।

सरकार को दो स्तर पर कार्य करना होगा, जनसंख्या नियंत्रण के साथ-साथ जनसंख्या पलायन पर भी ध्यान देना होगा। यह तभी संभव है जब मूलभूत सुविधाओं व रोजगार को बड़े शहरों तक केंद्रित न कर ग्रामीण स्तर तक ले जाया जायें।

@व्याकुल

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

का हो गुरु


पुरबिहा अंदाज में जब कोई "का हो गुरु" बोलता है तो दिल अंदर से बाग-बाग हो जाता है... हाल भी पूछ लिया गुरु बनाकर। बस इस तरह से पूछने का स्टाईल किसी सीनियर से कदापि न करें। सीनियर सही में गुरु निकल गये तो आपको दंड स्वरूप चेलाही करनी पड़ जायेगी।

आपसे अगर कोई गुस्ताखी हो जाये    और कोई मुस्कुरा कर पूछ ले कि "का हो गुरु"... तब अंदर से लगता है सामने वाले तगड़ा व्यंग्य मार दिया हो जैसे।

जरूरी है कि आप गंभीर होकर पूछे, "का हो गुरु"... अगर ऐसा नही किया तो सामने वाला आपको हल्के में ले लेगा..

मेरे एक टीचर के निगाह में मेरी छवि अपढ़ाकू की थी। वो दूर से ही टोक देते थे "का हो गुरु"... मेरी सुलग जाती थी.. बोलते भी क्या???वों असली वाले गुरु थे। हमारे में वैसे भी गुरु नही था... ऐसा बोलकर और भी शून्य गुरुत्वा पर पहुँचा देते थे...

कही कोई हमे भी घाट पर मिल जाये.. हम भी दण्डवत हो जाये जिससे कोई कबीर बनाने वाला गुरु मिल जाये... हम भी सीना तान कह सके-

गुरू पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।

वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।।

अब तो बस कालिदास या तुलसी ही बन सकते है.. कबीर तो बनने से रहे...

@व्याकुल



बुधवार, 7 जुलाई 2021

पान

जरूरी नही पान की पीक का प्रत्यक्ष गवाह हर ऑफिस ही बने..घर का कोई भी कोना हो सकता है। "मलमल के कुर्ते पर छींट लाल-लाल" वाला  गाना हमेशा याद आता है जब किसी को थूकते देेखता हूँ.. लगभग हर टॉकिज का कोना पीक से दिख जाता था। 

एक बार एक लखनऊआ पान खाये सिनेमा देखत रहा.. मुँह गोल-गोल घुमाते आँखे फाड़े सिनेमा देखत-देखत मुँह हिलावई के जगह ही नही बची। पीक का अर्थ ही है कोई और की गुंजाईस ही न हो.. नीचे कालीन और थूकने की मुसीबत। फिर क्या था किसी ने सलाह दे डाली सामने वाले की जेब में थूक डालो नही पता चलेगा.. क्योकि जब मै तुम्हारी जेब में थूक रहा था तो तुम्हें भी नही पता चला था। 

भारत ही नही ब्रिटेन का लीसेस्टर शहर सार्वजनिक जगहों पर थूके गये पान की पीक से तंग आ चुका है। कब गुटके का कण सामने वाले की मुँह पर भूअर तिल बन जाये कुछ नही कह सकते।

बालों में बल है आँख में सुर्मा है मुँह में पान।

घर से निकल के पाँव निकाले निकल चले।।

इमदाद अली बहर (https://rek.ht/a/1trr/2) ऐसे ही नही कह दिये पान के बारे में..पान को भी श्रृंगार समझियें... पान भी नाम बदल लेता है जगहानुसार जैसे मगहिया पान.. बनारसी पान और क्षेत्र विशेष का अपना पान.. 

खुले आम अगर कोई आपकों चूना लगा सकता है तो वो पान ही हैं... फिर आप अपना गुस्सा उस बेचारे से लेने की बजाय दिवारों और कोनों पर काहे उतार देते है...

@व्याकुल

सोमवार, 5 जुलाई 2021

साझा

 


साझा 

कभी 

टिकता नही

मन का

ख्याल से

वाणी का

विचार से

राह का

पथिक से...


साझा

जिंदा

रहता है

जीवन की 

संझा व

चंद

लकड़ियों

 में....

@व्याकुल

शनिवार, 3 जुलाई 2021

कहकुतिया

 

कहकुतिया या "कहबतिया" ही कह लिजिये। बचपन से ही बड़ों ने कोई सीख दी है तो "कहकुतिया" ही माध्यम हो सकता है।  आंग्ल भाषा में "according to..." व हिन्दी में " के अनुसार" का पर्याय था कहकुतिया। ठेठ अवधी अंदाज में पथ प्रदर्शक का कार्य करता था ये शब्द। मुहावरा जैसा ही इसका वाक्यांश होता है.. सरल व रोचक...

मजाल है किसी ने कहकुतिया शब्द पर ऊँगली उठाई हो। सालों-साल के अनुभव के बाद कहकुतिया की खोज हुई होगी।

"देशी चिरईया मराठी बोल" जैसे बोल सुनने को मिल ही जाता था।

"कम खा काशी बसअ्" जैसे कहबतिया तो रोक ही लेते है परदेश भ्रमण को और संतोष से रहने की सलाह दे डालते है।

"बाड़ी बिसतुईया बाग क नजारा मारई" इसे आप छोटी मुँह बड़ी बात समझ लीजिये।

"बिच्छू क मंत्र न जानई कीरा के बिल में हाथ डालई" का अर्थ स्पष्ट है कि छोटे मोटे समस्या से निपट नही पा रहे और बड़े आफत मोल ले रहे।

"ढोल में पोल" में शब्द का अर्थ स्पष्ट है.. बजता कितनी तेज है पर पोल ही पोल होता है। बड़े लोगो के संदर्भ में प्रयोग किया जा सकता है।

@व्याकुल

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

महबूब डाकडर

 सभी डाकडर बाबू को हमरे तरफ से भी शुभकामनाएँ... 

हमरे गॉव के नजदीक मनीगंज नाम क एक जगहा बा। मनीगंज नाम से पाठक लोगन के लगत होये किं कौनो धनी मनी वाल जगहा होये पर अइसन एकदम नाही बा। जाई पर अइसन लगत रहा जइसे कौनो उजड़ा युद्धस्थल बा। कौनो रौनक नाही। ऊहा क दुई दुकान हमरे स्मृति में बा। जेमन से एक ठी रहा महबूब डाकडर क कलीनिक। ऊहा जाई क एकई मकसद रहा महबूब डाकडर।  डाकडर साहब के विषय जोन हम बचपन से सुनत आवत रहे कि ओ कौनो बड़े डाकडर के अंडर में काम केहे रहेन। महबूब डाकडर सिगरेट खूब फूकत रहेन। पतला दुबला शरीर।नान सूती कुरता पायजामा। इहई पहिचान रहा ओनकर।

पिछवाड़े क फोड़ा क आपरेशन कौनो बड़े सर्जन स्टाइल में करत रहेन। इंजेक्शन गरम पानी में कहलुआ देई के बादई लगावई। आतमविसवास एकदम ऊँच स्तर क रहा डाकडर बाबू क।

बाद में ओनकर शर्त रहा कि हम ओनही के इहा जाब जहाँ जे हमके साईकिल पर लई जाये। हम कई बार अपने साईकिल पर बईठा कर घरे लई आवत रहेन।


##महबूब डाकडर अऊर हमार पिताजी

हमरे पिताजी के सीने दर्द उठई पर जान न पावई का भ बा। महबूब देखेन त तुरंतई कहेन.. हे पाण्डेय!!! तोहे एंजाइना बा.. कौनो बड़े डाकडर के दिखाई द पर पिता जी कहॉ मानई वाले... लईकन के तकलीफ नाही देई के बा भले ही कुछ होई जाय... एक दिना फिर महबूब डाकडर क पिताजी आमना-सामना होई ग... महबूब डाकडर कहेन, "अबहई तक गयअ नाही" "लईकन के फोन करय के पड़े" 

फिर का रहा। अगले ट्रेन से पिताजी प्रयागराज.. लखनऊ में बड़े डाकडर देखतई तुरंत आपरेशन केहेन...एहई तरह से पिताजी के जीवन देहेन डाकडर बाबू।

भले ही कुछ लोग या सरकार अइसे डाकडर के झोला छाप नाम से नवाजई  पर ऐ सब गॉव देश में हमार जीवन आधार हैन। देश क 70% आबादी क जीवन प्रदान करई वाले महबूब डाकडर व सभन डाकडर के हमार नमन व शुभकामनाएं।।।💐

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...