महँगा
न्याय
अमीरी चासनी में
डूबा हुआ
बचे कतरन
पर निहारते
पसारते
गरीबी...
©️व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
निडरता बहुत आवश्यक है जीवन में। अगर आप डर गये तो समझिये गये काम से। डर आपका आत्मविश्वास छीन लेता है।
समाज में जो लोग अग्रिम पंक्ति में है वो कही न कही अपनी निडरता की वजह से। हम आधे से ज्यादा समय इस बात पर निकाल देते है कि लोग क्या कहेंगे। इस प्रकार की चिंता ज्यादातर मध्यम समाज में होता है।
एक प्रकार का और भी डर देखने को मिल जाता है। ये है कल्पना कर लेना कि मेरा नुकसान हो रहा या इस व्यक्ति से नुकसान हो सकता है। फिर उसी के इर्द गिर्द ताने बाने बुन लेना।
अध्यात्म की दृष्टि बहुत जरूरी होती इस डर से उबरने के लिये। इसमे खोने जैसा कुछ नही होता। सब यहीं पाया है कुछ खो भी दिया तो क्या हुआ।
मुझे तो अपने ताऊ जी से बहुत डर लगता था। बड़ी-बड़ी मूँछें, कड़क आवाज। एक बार निडर होकर मित्रवत क्या हुये डर का पता ही नही रहा। पता नही क्यो मीर असर ने ऐसा क्यो कहाँ..
तू ने ही तो यूँ निडर किया है
बस एक मुझे तिरा ही डर है
जो लोग किसी को निडर करते है उनके लिये मन में सम्मान का भाव रहता है। किसी एक के लिये भी आपके मन डर का भाव है तो आप निडर नही हो सकते।
मेरी तो ख्वाहिस है कोई कह दे जैसा तनवीर देहलवी जी कहते है..
साए से चहक जाते थे या फिरते हो शब भर
वल्लाह कि तुम हो गए कितने निडर अब तो
एक बार रात 12 बजे अकेले स्टेशन से अपने गॉव पैदल चला गया था। कुत्तों के भूँकने में डर दिख रहा था। मै था, मेरा साया था चाँदनी रात में और मन में हनुमान चालीसा....
@व्याकुल
फिल्मी स्टारों का राजनीति में आना हमेशा से ही रोचक रहा है। मै थोड़ा बहुत समझने लायक हुआ तो अमिताभ को राजनीति में पाया। इनके चुनाव प्रचार में पूरा परिवार सम्मिलित रहा है। जया जी माथे पर चश्मा चढ़ाये वोट माँगते हुये। पब्लिक को जया जी के शब्द सुनाई कहॉ देता था। वोट की परिभाषा तो वो जानते ही थे। वो तो गुड्डी को देख रहे थे। हेमवती नंदन बहुगुणा को हरा पाना कोई आसान बात थी क्या।
उसी चुनाव प्रचार में अजिताभ बच्चन, हरिवंश राय बच्चन व उनकी मॉ को प्रयागराज के खत्री पाठशाला पर बोलते सुना था।
चित्र: गूगल सेइन चुनावों से पहले बच्चन जी को अमृत प्रभात अखबार में देखा करता था। उस अखबार का एक पृष्ठ सिर्फ टॉकीजों में लगी फिल्मी से भरा रहता था। तब 15-20 टॉकिजों में बच्चन जी की फिल्में लगी रहती थी।
श्लोगन हवा में तैरते रहते थे। हम सभी बच्चे थे। श्लोगन समझ भले ही न आये पर जुबान पर रटा रहता था।
दूसरे फिल्मी स्टार को सुना करता था वो थे सुनील दत्त। उनकी 2000 किमी की पदयात्रा याद है मुझे। कई वर्षो तक सांसद रहे है। फिल्मी स्टारों के राजनीति में आने वालों मे वो बेहतरीन थे।
लम्बी फेहरिस्त है शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना व हेमामालिनी इत्यादि कई लोग राजनीति में आये। कुछ क्षेत्रीय फिल्मों से भी आये जैसे रवि किशन व मनोज तिवारी आदि। कुछ राज्यसभा के लिये मनोनीत भी हुये।
वैसे दक्षिण भारत इस मामले में भाग्यशाली रहा है एन. टी. रामा राव को ही देखिये आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री तक रहे।
तमिलनाडू में एम. जी. रामचंद्रन व जयललिता का नाम विशेष तौर पर लिया जा सकता है। जयललिता 1984 से लेकर 2016 तक राजनीति में सक्रिय रही है।
यह शायद बहुत कम लोगो को पता होगा कि इमरजेंसी के बाद फिल्मी स्टारों ने " नेशनल पार्टी" नाम से पार्टी बनायी थी।
इंतेजार रहेगा फिर किसी सुपर स्टार का.....
@व्याकुल
एक आम इंसान जिसने राजनीति को अपने घोर आदर्श रूपी विचारों से भर दिया। संघर्ष से लड़ने का नया शस्त्र दिया। वों शस्त्र लोहे का नही था। विचारों का था।
विचारवान् व्यक्ति सांगठनिक ढांचा खड़ा करते है। अग्नि रूपी सत्ता की आंच से दूर ही रहते है क्योकि उनका विचार समग्र रहता है। वें पथ प्रदर्शक की तरह होते है। उनका कार्य हर क्षेत्र में पूर्णता का मानक खड़ा करना होता है।
गाँधी जी के अच्छें विचारो का स्वयं में समाहित करने की जो कला थी वो उन्हे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर की ओर अग्रसर करती चली गयी।
अजातशत्रु बमुश्किल से मिलते है। गाँधी जी कोई अजातशत्रु नही थे। उनके भी कई आलोचक रहे है। दृष्टिकोण भिन्न हो सकते है। नज़रिया अलग हो सकता है पर गाँधी दर्शन अकाट्य व देशकाल से परे ही था। आज की पीढ़ी को लगता है जैसे वे अभी भी हमारे साथ है।
देश भ्रमण करना। बंगाल से पख्तून व कश्मीर से लेकर मद्रास तक अपने विचारों की अपार प्रभाव कौन बना पाया। कोई राजा-महाराजा नही थे जो राजसूय यज्ञ किये थे भारत पर एकछत्र राज्य के लिये। ये विचार का विजय ही था। सीमांत गाँधी से राजगोपालाचारी तक सब गाँधी दर्शन के संवाहक थे।
महामानव कहना समीचीन होगा बापू जी को। आदर्शों से समझौता कोई आसान काम नही। पर बापू जी ने आदर्शो को ऊपर रखा। कभी कोई समझौता नही चाहें असहयोग आंदोलन हो या देश बँटवारा। कही डिगे नही। आदर्श पूर्ण जीवन जीना आसान नही। मजबूत इच्छा शक्ति चाहिये अडिग बने रहने के लिये। वे संकीर्णता से दूरी बनाये रखना चाहते थे। सांप्रदायिक भावनाओ के शिकार हो सकते थे पर अपने इंसानियत को दूर ही रखा।
एक विदेशी, माउंटबेटन, जो पराधीन देश के अंतिम क्षणो में आये थे। माउंटबेटन के उद्गार को भला कौन नकार सकता है, "महात्मा गांधी को इतिहास में महात्मा बुद्ध और ईसा मसीह का दर्जा प्राप्त होगा।"
सत्य के लिये आग्रह "सत्याग्रह" एक मजबूत माध्यम बना न सिर्फ हिन्दुस्तान में वरन् विश्व में। आग्रह सत्य का हो तो बरबस ही वो संत याद आ जाते है......
@व्याकुल
कुछ दिन पहले एक बुजुर्ग से बात हो रही थी। उस दिन उनका जन्मदिवस था। मैने शुभकामनाओं के साथ 120 वर्ष की उम्र तक दीर्घायु होने की बात कही। वों बोले कम है। मै तो 150 वर्ष तक जिंदा रहने का प्लान किया हूँ। मै सन्न रह गया। ये उनके जिंदादिली का प्रत्यक्ष उदाहरण देख हतप्रभ रह गया। उनके शब्द अन्य बुजुर्गो के लिये प्रेरणादायी है।
इस देश में रिटायर होते ही ये मान लिया जाता है कि कार्य करने की उम्र गयी। कार्यालयों में रिटायर होने के 2-3 वर्ष पहले से ही लोग ढीले पड़ जाते है। मानसिक तौर पर अगर ढीले पड़ गये तो समझिये शारीरिक रूप से आप अक्षम्य हो जायेंगे।
कभी-कभी सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो देखने को मिल जाता है जहाँ बुजुर्ग नाचते गाते मिल जाते है। उन्हे कभी मत कहिये आप नाच नही सकते। आप लोग भी उनके साथ खूब नाचिये।
मैने african proverb पढ़ा था कि "If you refuse the elder’s advice you will walk the whole day.” सही बात है। बुजुर्गो को नही सुनने का मतलब भटक ही जाना है।
अनुभव बहुत ही कमाल की चीज होती है। अनुभव उम्र के साथ बढ़ता ही जाता है। घर से आप निकले नही कि "फलां रास्ते नही जाना", ये सीख सुनने को मिल जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस हर वर्ष 1 अक्टूबर को 1990 से मनाया जाता रहा है। संयुक्त परिवार के विघटन से बुजुर्गों की स्थिति दयनीय हो गयी है जो कि भारत की पुरातन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप नही है....
@व्याकुल
अवधी बोली का एक शब्द है "समौरी" इसका अर्थ है समकक्ष या समव्यस्क। हमारे एक भाई है अशोक। मुझसे तीन माह बड़े है। ये कहा जाता है कि वो मेरे समौरी है। इस शब्द की व्युत्पत्ति कैसे हुई बता पाना सम्भव नही पर अवधी बोली का यह आम शब्द है।
अगर आयु के संदर्भ में लिया जाये तो समौरी में 2-3 माह छोटे भी हो सकते है और बड़े भी।
समौरी का अर्थ सिर्फ आयु से ही नही है भाव के भी परिपेक्ष्य में लिया जा सकता है जब भाव के अर्थ एक हो।
नीचे दिये गये चित्र में मेरे समौरी अशोक भाई है-
आज से ही शुरू कर दीजिये तलाशना आपका समौरी कौन कौन है......
@व्याकुल
गॉवों में बरधा (बैल) दुआर (घर के बाहर) की शोभा मानी जाती रही है। खेती की बात हो तो हेंगा शब्द बरबस ही मुँह में आ जाता है। हेंगा का उपयोग मिट्टी के ढेले को समाप्त कर जमीन को समतल करने के काम आता है।
छोटे बच्चे हेंगा पर बैठकर स्केटिंग जैसा आनन्द लेते थे। बैलों से बँधी रस्सी को पकड़ लिया जाता था। रस्सी को पकड़ते वक्त इस बात का ख्याल रखा जाता था कि शरीर का ऊपरी हिस्सा पीछे की ओर ज्यादा झुका हुआ हो। आगे झुके तो चलते हेंगा में पैर फसने का डर रहता था। किसान गजब का संतुलन बनाये रखते थे।
हेंगा लम्बा व आयताकार व भारी होता है।
हेंगा को पाटा भी कहते है। वैसे देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।
मै पहली बार बैठते समय डर रहा था। जब इसकी टेक्निकल्टी समझ आयी, फिर मजा आने लगा।
आप भी जरूर मजा लीजिये या बच्चों को इस अनुभव से जरूर अवगत कराइयें.....
@व्याकुल
"घुटनों का ग्रीस कैसे बनाये" गलती से फेसबुक पर देख कर हटा ही था कि दूसरा वीडियो "घुटनों से कट-कट की आवाज कैसे कम करे" आ गया। फेसबुक की महिमा का बखान कैसे करे। मन की भाव को समझ लेता है। एक वीडियो से हटे नही कि उसी टाईप के वीडियों की झड़ी लगा लेता है जैसे किसी दुकान पर पहुंच बस जाइये। कुछ न कुछ आपको पकड़ा ही देगा।
मोटापा था तो सोचा "चर्बी कैसे घटाऊ" देख लूँ। फिर क्या था... अजवाईन पानी.. जीरा पानी... पता नही क्या क्या...सलाह पर सलाह...
एक विद्वान से बात की तो बोले ये सब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल है... मशीनी इंटेलिजेंस... वर्च्युल इंटेलिजेंस और पता नही क्या क्या सुनने को मिल जाते है आजकल। मानवीय इंटेलिजेंस तो जैसे गायब ही हो गये है आजकल।मशीन ही सही मामलों में इस मशीनी युग में रिश्ता निभा रहा है।
मानवीय इंटेलिजेंस तो देखा व सुनता आ रहा हूँ पर वो भी किसी के मनोभावों को समझने व ताड़ने में चूक करता रहा है।
भावुक कर देता है फेसबुक। कुमार विश्वास के कविता से उठा ही था कि कविता तिवारी काव्य पाठ करती आ गयी। बनारस के कवि दुबे जी प्रगट हो गये। थोड़ा आगे बढ़े मुशायरा से वाकिफ हुये।
कुछ तो अनचाहा मेहमान की तरह प्रगट हो जाते है।
मै तो सोच-सोच कर हैरान रह जाता हूँ... क्या देखूं और क्या न देखूं...
खैर अब मुझे साँपों से कम डर लगता है क्योंकि मुरलीवाले हौसला का वीडियो देखता रहता हूँ.....
ऐसे ही आनन्द लेते रहियें.. बस मोबाइल में डेटा हो और चार्जर जेब में....
@व्याकुल
गऊखा पूर्वी उत्तर प्रदेश के गॉवों के पुराने मकानों या पुराने ज़माने के पक्के मकानों में देख़ने को आराम से मिल जायेगा। गऊखा लगभग हर मकान का अनिवार्य हिस्सा है...
पुराने जमाने में बिजली में मामले में बहुत ही पिछड़े थे हम सब। शहरों को छोड़कर बहुत कम जगहों पर बिजली होती थी। ढिबरी रखने के लिये गऊखा ही प्रयोग में लाया जाता रहा होगा। अँधेरे को प्रकाशमयी करने के लिये छोटी शीशी में मिट्टी का तेल डाल कपड़े की बत्ती बनाकर ढिबरी बनाया जाता था। अब तो ढिबरी का कोई चलन ही नही। न तो मिट्टी का तेल ही उपलब्ध है और न ही बिजली की कोई समस्या।
अधिकतर इसके ऊपर का हिस्सा मेहराबनुमा होती है। गऊखा को अलग-अलग नामों से संबोधित किया जाता है जैसे ताखा, पठेरा, गोखलो, दियरख, आला इत्यादि इत्यादि।
गऊखा में प्रतिदिन उपयोग की छोटे-मोटे सामान भी रखे जाते रहे है। इसे तिजोरी ही समझिये।
अपनी महत्ता बनाये रखे। पता नही कौन आपकों गऊखा में उठा कर रख दें....
@व्याकुल
जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं
वही दुनिया बदलते जा रहे हैं
जिगर मुरादाबादी सही ही लिखते है। दुनिया वही बदल सकते है जो झंझावात झेले रहते है। साहस का जन्म भी यही से होता है।
उन्हे तो आसमां छूने की ललक होती है। वों चैन की साँस कभी नही लेते। अधिकांश के ऐसे ही लोग आदर्श होते है।
ऐसे लोग त्वरित (quick) निर्णय भी ले लेते है। ऐसे लोग जब सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगते है तब उनके जिद्दी होने की संभावना बढ़ जाती है। फिर वे किसी की नही सुनते। उन्हे लगता है जो वे कर रहे है सही कर रहे है।
साहस अपने पराकाष्ठा पर जब होता है तो गलत निर्णय भी ले लेते है। किसी की भावनाओं को भी चोट पहुँचा जाते है। स्व-मूल्यांकन का समय नही होता।
साहसी लोग अनोखे होते है। जो कार्य पूर्ण करने की सोच लेते है निष्ठा से लग जाते है फिर कुछ नही सोचते। या तो गिरते है या आगे बढ़ जाते है। गिरने का मतलब उनके लिये ये नही होता कि चुप होकर बैठ जाये। अगले पल फिर कोई नया लक्ष्य।
उनके साहस से डर लगता है। मैने दो बड़े प्रशासनिक अधिकारी ऐसे ही देखे है जिनका साहस ही उन्हे गलत रास्ते पर ले गया और वे सामाजिक परिदृश्य से गायब हो गये।
साहस के साथ भावुकता, विवेक और सकारात्मकता बनाये रखे तभी जीवन की सार्थकता होगी....
@व्याकुल
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...