FOLLOWER

मंगलवार, 21 जून 2022

हिचकियां

 ये

हिचकियां

सिर्फ

इंसानो के 

गले में

अटकी

नही होती..


इंसानों से

इतर

हिचकियां

समेट लेती है

यादों को

और 

मिला देती 

है

अपनों को

आपस में..


जैसे

पहाड़ टूट

कर जमीं

से मिले

या बर्फ

पिघल कर 

नदी में

या बहकते 

समुद्र के

ज्वार

तटों को

सराबोर कर दें....

@व्याकुल

शनिवार, 4 जून 2022

विश्व पर्यावरण दिवस


यही जून का महीना था। शादी में निमंत्रण था। जाना तो था ही। कपार फोड़ई में बज्जर कचौरी। सबेरे कलेवा में गरमागरम चना-चाय और जलेबी। फिर वापसी में बस की यात्रा। रात की कचौरी पच नही पायी थी ऊपर से बस के हिचकोले। माहौल बन रहा था। मुझे बस कभी शूट ही नही किया। बस की यात्रा हमेशा से मुझे गणित के सवालों जैसा लगता था। चक्कर आने लगते थे। इन सब चक्करों में सुबह खाये गये चनों का अबोध हत्या होना ही था। बस एक बार पल्टी होने की देर थी।


चचेरे भाई साथ में थे। मेरी हालत समझ चुके थे। बस रुकवा दिये थे। भऊजी के मायके जाना है। बस रुकी ही थी ये मारा पल्टी!!!!! अब आप नेताओं की पल्टी से तुलना नही कीजियेगा। उनके पल्टी में कुछ निकलता नही। सब अंदर ही जाता है।

साबूत चना बाहर आ गया था। भऊजी का मायका तीन किमी. से कम नही होगा। उल्टी के बाद प्यास लगती। अंदर की चक्की उलटी चलने लगी थी। रास्ते में चापाकल के पानी से प्यास बुझा कर थोड़ी दूर बढ़ता ही पल्टी हो जाती। 


हैरान-परेशान रास्ते में बैठने का सवाल ही नही था। रेगिस्तान जैसे सड़क के दोनों ओर पेड़ का नामो-निशान नही था। छॉव के लिये तड़प गया था मै पर भऊजी का घर आने तक चापाकल-पल्टी-चापाकल का खेल खेलता रहा था। 


ऐसा कभी किसी बालक के साथ न होवे इसलियें पेड़ अवश्य लगावें। 


विश्व पर्यावरण दिवस की हार्दिक शुभकामनायें🌳🌳🌳🌴🌴


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

गुरुवार, 2 जून 2022

पंडोह का इनारा

 


चाँदनी रात थी उस दिन। चाँद बादलों से अठखेलियां खेल रहा था। ट्रेन के प्लेटफार्म से जाते ही स्टेशन भी वीरान हो चुका था। शायद यह अंतिम ट्रेन थी। स्टेशन मास्टर जंभाई ले रहे थे। उनके कक्ष में एक बड़ा सा लटकता बल्ब जल रहा था। हल्की सी हवा चलते ही झूलने लगता था। बाहर एक कुत्ता दोनों टाँगे आगे किये हुये अपना मुँह टिकाये हुये था। लग रहा था जैसे वो भी अर्धनिद्रा में हो। कुल मिलाकर स्टेशन पर तीन लोग थे। मै, कुत्ता और स्टेशन मास्टर।


सोचा स्टेशन से बाहर बाजार में कोई न कोई मिल ही जायेगा। पर सभी दुकानें बंद थी। दुकानों के बाहर खाट पर पसरे हुये लोग थे। खर्राटों की आवाज और भयावह लग रही थी। स्टेशन से घर दूर था। कोई साधन नही था। पैदल चलने का मन बना चुका था। 


सड़क पर अकेला चलता जा रहा था। कभी कभी बादल सड़क पर तैरते दिख जाते थे। मन हो रहा था क्यो इस अंतिम ट्रेन से चलने का भूत सवार हो गया था। जूता भी ऐसा था जो खट-खट की आवाज कर वीरानियों को चीर रहा था। जिससे कुत्तों की नींद में खलल पड़ रहा था। वों दबे पॉव नजदीक आकर भूँकने लगते। मै वही खड़ा हो जाता। प्रतिकार करके आफत मोल नही ले सकता था। माहौल शांत होने फिर आगे बढ़ जाता। 


लगभग 2 किमी. से ज्यादा चल चुका था। गॉव के अंदर प्रवेश कर चुका था। एक बाधा और थी। बचपन से जो चीज डराती आयी थी वह थी "पंडोह का इनारा" (कुँओ को गॉव में इनारा भी कहते है) पंडोह के इनारे में भूत-चुड़ैल है। कोई आज तक बच नही पाया, ऐसी बाते बचपन से सुनता आ रहा था। दूर से पंडोह का इनारा दिख रहा था। भूत दिमाग में तैरने लगे थे। कदम ठीठक रहे थे। जैसे-जैसे "पंडोह का इनारा" आ रहा था डर बढ़ता ही जा रहा था। तभी हनुमान चालीसा का पाठ तेज तेज पढ़ने लगा था। "भूत पिशाच निकट नही आवै..." वाली पंक्ति के बाद बढ़ ही नही पा रहा था। आँखे सीध मे कीये हुये पंडोह के इनारे को जैसे ही पार किया जान में जान आयी। 


घर पहुंचते ही पिता की डांट मिली। इतनी रात को खाने में कुछ नही मिलेगा। चुपचाप सो जाओ। 


पर मेरी जान "पंडोह के इनारे" पर ही लटकी थी। नींद कैसे आती!!!!!!


@डॉ विपिन पाण्डेय "व्याकुल"

रविवार, 8 मई 2022

मॉ की बिंदिया


मुझें कुछ भी अगर पसंद था

मॉ के माथे की तमाम बिंदिया


बिंदियों को जतन से रखती थी

उसी ऊँट बने डिब्बें में 


उनके माथे की बड़ी बिंदी

हमेशा ही खिसक जाया करती


कभी पसीने से मोर्चे में

या जीवन के झंझावतो से


बिंदियों को सेट करती थी

बड़े चाव से छोटे से शीशे से


चेहरे की शिकन छुपा लेती थी

उन लाल-हरी बड़ी सी बिंदियो से


लापरवाह हो चली है मेरी मॉ भी

भूल जाया करती है बिंदियो को लगाना


अब उन्हे ऊँट बना डिब्बा दिखता नही

बूढ़ी हो चली है मेरी मॉ भी


मन होता है कह दूँ मॉ से

पर पिता का विछोह गुम कर गयी मॉ की बिंदिया भी


@विपिन "व्याकुल"

रविवार, 1 मई 2022

तुलसीदल

हर घर के आँगन में या दुआरे में तुलसी का पौधा देखने को मिल जाता है। अध्यात्म व श्रद्धा से जुड़े इस पौधे को भारत में शायद ही कोई ऐसा होगा जो अपरिचित होगा। 


मै 16 वर्ष का था जब छोटे बाबा को उनके अंत समय में तख्त से ज़मीन पर दक्षिण दिशा में पैर करके लिटा दिया गया था। उल्टी सांस चल रही थी। घर के सभी सदस्य बारी-बारी से तुलसी गंगाजल उनके मुँह में रखा जाता है।


ऐसा कहा जाता है किं तुलसी धारण करने वाले को यमराज कष्ट‌ नहीं देते। मृत्यु के बाद दूसरे लोक में व्यक्त‌ि को यमदंड का सामना नहीं करना पड़े इसल‌िए मरते समय मुंह में गंगा के साथ तुलसी का पत्ता रखा जाता है।


मै कुछ दिन पहले एक अखण्ड रामायण सुनने हेतु गया था वहाँ कथा वार्ता आदि में आने के लिये और प्रसाद रूप में तुलसीदल बाँटा जाता है । कहीं कहीं मंदिरों और साधुओं वैरागियों की और से भी तुलसीदल निमंत्रण रूप में समारोहों के अवसर पर भेजा जाता है ।

@विपिन "व्याकुल"

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

पृथ्वी दिवस

1) ठीक-ठीक सन् याद नही पर वो समय सन् 1985 से सन् 1990 के बीच का रहा होगा। उस समय हमारे गॉव (सनाथपुर,सुरियाँवा, भदोही) के अधिकांश कुँए सूख चुके थे। पूरे गॉव में सिर्फ 1-2 कुँओं में ही पानी रहा होगा। सारे गॉव का लोड यही 1-2 कुँए झेलते थे। स्थिति बाद में ठीक कैसे हुयी याद नही। ये बात गर्मियों की है। शायद बरसात के आने पर ठीक हुयी होगी। 35 वर्ष पहले ऐसी भयावह स्थिति हुआ करती थी।


2) घर के बगल में बगीचा हुआ करता था। तब घर में कुल सदस्यों की संख्या 10-15 की रही होगी। एक मकान में सभी रहते थे। ये 1990 की बात होगी। अब चार मकान है। चारो मकानों में कुल सदस्य 6 है। बगीचा गायब है। ये विकास हुआ है गॉव का। निरीह प्रकृति का दोहन।
3) प्रयागराज के मीरापुर मोहल्ले में नल से पानी की आपूर्ति ठप्प जब भी होती थी। महिला उद्योग इंटर कॉलेज में बना हुआ कुँआ ही आसरा बनता था। ये घटना भी उसी समय का है। 
4) पहले दो लेन का हाइवे होता था। चार लेन का हुआ। 6 लेन। अब 8 लेन। बगल के पेड़ नदारद। नये के रोपड़ की कोई निशानी नही।
5) बचपन के गौरैया, गिद्ध और पता नही कितने पक्षी दिखने बंद हो गये। पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ा तो कोई संभाल नही पायेगा। कोविड की भयावहता के सामने सारा विकास धरा रह गया था।
6) सबमर्सिबल घर-घर में व्याप्त है। गॉव हो या शहर। दोहन का कोई हिसाब नही। जनचेतना सुषुप्ता अवस्था में। 
सन् 1970 से हर वर्ष "पृथ्वी दिवस" मनाया जाने लगा। हर वर्ष "पृथ्वी दिवस" के लिए एक खास थीम रखी जाती है। पृथ्वी दिवस 2022 की थीम 'इन्वेस्ट इन आवर प्लैनेट' (Invest in Our Planet) है। मानव जाति की भूख खत्म नही हुयी है अभी तक। इन्वेस्ट क्या करेंगे!!!!!!!!!!!!

@विपिन "व्याकुल"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

डरा रहता हूँ

डरा रहता हूँ...

डरा ही रहता हूँ..


कंपित मन बुजुर्गों के बिछड़ने से

या गंभीर से खामोश लफ्जों से


बड़ों की बढ़ती झुर्रियो से  

शुन्यता पर उलझतें नजरों से


महफ़िलो में सधे अल्फ़ाजो से

कोठरियों में हाफते फेफड़ों से


काँपते उँगलियों की थपकियों से

अन्तर्मन में बहते अश्रुओं से


ढलते उम्र की शीर्षता से

या घाटी से झुके कंधो से


अवसान की सीढ़ियों से

या डग मग बढ़े कदमों से


डरा रहता हूँ...

डरा ही रहता हूँ..


@व्याकुल

मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

बढ़ते भाव और टोटकहा नींबू

 


हमारे पड़ोस के दो लोगों में जबर्दस्त झगड़ा होता था। ये दोनो ऊपर नीचे रहते थे। ये तो पता नही कि नीचे वाले के आँगन में कौन नींबू और कपड़े में बँधा हुआ सिंदूर फेंक जाता था। नारियल भी होता था। पूरे मोहल्लें में आनन्ददायक माहौल रहता था। एक बार कई दिनों तक कोई आवाज नही आयी। मोहल्ला शूकून में था। 


लम्बे अंतराल के बाद एक दिन फिर जोर से झगड़े की आवाज आने लगी। दोनों के झगड़े में एक पक्ष से मै भी था। मुझे लग रहा था इसमे किसी तीसरे का हाथ था जिसने मजे लेने के लिये ये सब किया होगा। विरोधी पक्ष के पैरोकार मुझसे एक कदम आगे निकले नारियल मुँह मेें डालकर बोले," आप लोग फालतू में घबड़ा रहे है, मुझे देखिये नारियल खा गया और कोई फर्क नही पड़ा"


खैर उनके नारियल खाते ही झगड़ा खत्म हो गया। आज जब नींबू के दाम इतने बढ़ गये है तो शायद विरोधी पक्ष के पैरोकार नारियल खाने के साथ-साथ नींबू भी घर ले जाते और पत्नी के साथ शिकंजी पी रहे होते और ऐसे ही झगड़े होने की उन्हे दरकार होती।


@विपिन "व्याकुल"

रविवार, 10 अप्रैल 2022

हरि मंदिर में राम नवमी

 

"भए प्रगट कृपाला दीनदयाला |

कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी |

अद्भुत रूप बिचारी॥...."


मॉ की पूजा में ये स्वर आज के दिन विशेष रूप से सुनायी पड़ता था। प्रयागराज के मीरापुर मोहल्ला में हरि मंदिर में आज के दिन हर्षोल्लास का माहौल रहता था।

इस दिन भंडारे का भी आयोजन होता था। मेरी आयु बहुत ही छोटी थी। मुझे तो सिर्फ भंडारा ही समझ आता था। हरि मंदिर में प्रवचन का भी आयोजन होता था। मजे की बात ये थी कि ढोलक हमारे मुहल्ले के एक मुस्लिम बजाया करते थे। 

हरि मंदिर के ट्रस्टी में ज्यादातर पंजाबी लोग है जिनके पूर्वज सन् 1947 की त्रासदी झेले थे।

आज भी जब प्रयागराज जाता हूँ। हरि मंदिर मे अवश्य ही जाता हूँ। अब इस मंदिर में भीड़ कम ही देखने को मिलता है। मन दुःखी हो जाता है। सारी भीड़ का खिंचाव मॉ ललिता मंदिर में दिखायी देता है।

आज भी इस मंदिर में जाता हूँ तो दॉये हाथ की अनामिका अपने-आप बजरंग बली की मूर्ति को छू जाती है... जैसे मस्तक पर खुद टीका लगा लूँ... पर आयु अब बाल मन पर हावी हो चुका है...



राम नवमी की आप सभी को बधाई व शुभकामनायें....

@विपिन "व्याकुल"

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

गॉव और बम्बई की नौकरी

 

हमारे एक मित्र की आई. आई. टी. की पढ़ाई करने के बाद नौकरी किसी सॉफ्टवेयर कम्पनी में लगी थी। गॉव में जब भी कोई काम-धन्धें के विषय में पूछता। वो बड़े मासूमियत से जवाब देता,"फलॉ कम्पनी में है।" लोग ज्यादा कुछ जवाब नही देते।

कोई समझ ही नही रहा था कि देश के बड़े संस्थान में बहुत ही परिश्रम से प्रवेश लिया था। चार साल मेहनत के बाद इंजीनियरिंग पूर्ण कर पाया था। 

गॉव के एक बुजुर्ग एक दिन बोले थे। बेटा, " तुम गॉव के बाकी युवाओं की तरह नौकरी छोड़ गॉव वापस न आना।"

मित्र ने बोला था, "चाचा, मै इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद कम्पनी में गया हूँ"

वों बुजुर्ग ज्यादा कुछ समझ नही पायें।


थोड़ा और डिटेल में गया तो पता लगा कि गॉव के बहुतेरे युवा जब भी बम्बई जाते थे तो गॉव में उस कम्पनी की बढ़-चढ़ कर बढ़ाई करते थे। चार महीने बाद जब घर वापसी करते थे तो कम्पनी की खस्ता हालत का रोना रो देते थे जिससे गॉव वालों का कम्पनी शब्द से ही विश्वास उठ चुका था। 

मेरे मित्र ने भी कसम खा ली थी कि अब गॉव में लोगों को सिर्फ इंजीनियर ही बताऊँगा नौकरी के नाम पर।

@विपिन "व्याकुल"

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...