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शनिवार, 25 सितंबर 2021

फेसबुक

"घुटनों का ग्रीस कैसे बनाये" गलती से फेसबुक पर देख कर हटा ही था कि दूसरा वीडियो "घुटनों से कट-कट की आवाज कैसे कम करे" आ गया।  फेसबुक की महिमा का बखान कैसे करे। मन की भाव को समझ लेता है। एक वीडियो से हटे नही कि उसी टाईप के वीडियों की झड़ी लगा लेता है जैसे किसी दुकान पर पहुंच बस जाइये। कुछ न कुछ आपको पकड़ा ही देगा। 

मोटापा था तो सोचा "चर्बी कैसे घटाऊ" देख लूँ। फिर क्या था... अजवाईन पानी.. जीरा पानी... पता नही क्या क्या...सलाह पर सलाह...

एक विद्वान से बात की तो बोले ये सब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का कमाल है... मशीनी इंटेलिजेंस... वर्च्युल इंटेलिजेंस और पता नही क्या क्या सुनने को मिल जाते है आजकल। मानवीय इंटेलिजेंस तो जैसे गायब ही हो गये है आजकल।मशीन ही सही मामलों में इस मशीनी युग में रिश्ता निभा रहा है।

मानवीय इंटेलिजेंस तो देखा व सुनता आ रहा हूँ पर वो भी किसी के मनोभावों को समझने व ताड़ने में चूक करता रहा है।

भावुक कर देता है फेसबुक। कुमार विश्वास के कविता से उठा ही था कि कविता तिवारी काव्य पाठ करती आ गयी। बनारस के कवि दुबे जी प्रगट हो गये। थोड़ा आगे बढ़े मुशायरा से वाकिफ हुये।

कुछ तो अनचाहा मेहमान की तरह प्रगट हो जाते है। 

मै तो सोच-सोच कर हैरान रह जाता हूँ... क्या देखूं और क्या न देखूं... 

खैर अब मुझे साँपों से कम डर लगता है क्योंकि मुरलीवाले हौसला का वीडियो देखता रहता हूँ.....

ऐसे ही आनन्द लेते रहियें.. बस मोबाइल में डेटा हो और चार्जर जेब में....

@व्याकुल

गऊखा

गऊखा पूर्वी उत्तर प्रदेश के गॉवों के पुराने मकानों या पुराने ज़माने के पक्के मकानों में देख़ने को आराम से मिल जायेगा। गऊखा लगभग हर मकान का अनिवार्य हिस्सा है... 

पुराने जमाने में बिजली में मामले में बहुत ही पिछड़े थे हम सब। शहरों को छोड़कर बहुत कम जगहों पर बिजली होती थी। ढिबरी रखने के लिये गऊखा ही प्रयोग में लाया जाता रहा होगा। अँधेरे को प्रकाशमयी करने के लिये छोटी शीशी में मिट्टी का तेल डाल कपड़े की बत्ती बनाकर ढिबरी बनाया जाता था। अब तो ढिबरी का कोई चलन ही नही। न तो मिट्टी का तेल ही उपलब्ध है और न ही बिजली की कोई समस्या। 


अधिकतर इसके ऊपर का हिस्सा मेहराबनुमा होती है। गऊखा को अलग-अलग नामों से संबोधित किया जाता है जैसे ताखा, पठेरा, गोखलो, दियरख, आला इत्यादि इत्यादि।

गऊखा में प्रतिदिन उपयोग की छोटे-मोटे सामान भी रखे जाते रहे है। इसे तिजोरी ही समझिये।

अपनी महत्ता बनाये रखे। पता नही कौन आपकों गऊखा में उठा कर रख दें....

@व्याकुल

शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

साहस

जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं 

वही दुनिया बदलते जा रहे हैं 

जिगर मुरादाबादी सही ही लिखते है। दुनिया वही बदल सकते है जो झंझावात झेले रहते है। साहस का जन्म भी यही से होता है। 

उन्हे तो आसमां छूने की ललक होती है। वों चैन की साँस कभी नही लेते। अधिकांश के ऐसे ही लोग आदर्श होते है। 

ऐसे लोग त्वरित (quick) निर्णय भी ले लेते है। ऐसे लोग जब सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगते है तब उनके जिद्दी होने की संभावना बढ़ जाती है। फिर वे किसी की नही सुनते। उन्हे लगता है जो वे कर रहे है सही कर रहे है। 

साहस अपने पराकाष्ठा पर जब होता है तो गलत निर्णय भी ले लेते है। किसी की भावनाओं को भी चोट पहुँचा जाते है। स्व-मूल्यांकन का समय नही होता।

साहसी लोग अनोखे होते है। जो कार्य पूर्ण करने की सोच लेते है निष्ठा से लग जाते है फिर कुछ नही सोचते। या तो गिरते है या आगे बढ़ जाते है। गिरने का मतलब उनके लिये ये नही होता कि चुप होकर बैठ जाये। अगले पल फिर कोई नया लक्ष्य।

उनके साहस से डर लगता है। मैने दो बड़े प्रशासनिक अधिकारी ऐसे ही देखे है जिनका साहस ही उन्हे गलत रास्ते पर ले गया और वे सामाजिक परिदृश्य से गायब हो गये।

साहस के साथ भावुकता, विवेक और सकारात्मकता बनाये रखे तभी जीवन की सार्थकता होगी....

@व्याकुल

बुधवार, 22 सितंबर 2021

लसोड़ा

औसत मध्यम वृक्ष लसोड़ा का। थोड़ा घना। फल गोल। अंदर से ताकत इतनी की नगाड़ा बन जाता था। फिर तो धिन् धिन् ता ता धिन् धिन्। 


                         चित्र: गूगल से

ये भी एक नवाचार (innovation) रहा है बालपन का। पुरवा या कुल्हड़ और परई या कसोरा का भरपूर उपयोग। लसोड़ा में इतना दम तो होता ही था कि कागज को मिट्टी के बर्तनों में कस कर बाँध देती थी। हमारा ढोलक व नगाड़ा तैयार हो जाता था। 

वैसे जब थोड़ी समझदारी बढ़ी तब लसोढ़ा का उपयोग सिरके (vinegar) में भी देखा या जाना कि इसकी उपयोगिता आयुर्वेदिक में भी हो सकती है। 

आज से 25-30 वर्ष पहले प्रकृति के बीच से ही खिलौना बना लेते थे तब शायद ही कृत्रिम खिलौना होता हो।  पर लसोढ़ा की पहचान मेरे लिये नगाड़ा और ढोलक बनाने तक था और इससे बेहतरीन खिलौना कुछ और नही लगता था।


                         चित्र: गूगल से

इसके गूदा को पुरवा और परई के किनारों पर लगा कर कागज चिपका दिया करते थे फिर देर तक धूप में सुखाकर उपयोग में लाते थे। ये देखना जरूरी होता था कागज ढीला न हो जिससे ध्वनि में टंकार रहे।

गॉव में शायद 1-2 पेड़ थे लसोड़ा के। मै तो अपने घर के दक्षिण दिशा में लगे हुये लसोड़ा का ही प्रयोग करता था।

लसोड़ा जरूर लगाये अपने आस-पास। सिर्फ जीव-जन्तुओं की प्रजाति ही खतरे में नही हो सकती कुछ पेड़-पौधे भी हो सकते है....


@व्याकुल

रविवार, 19 सितंबर 2021

द्विचक्रिका

 

हवाओं से बात करूँ

जो रख सकूँ पाँव पैडिलों पर

गलियों की हूकूमत करूँ

जो बैठ सकूँ तिकोन सीट पर..


मुनादी करवा दी जंगलों में

जो बजा दी तेज घंटो को

तीनों लोक नाप सके पल में

जो चलाये तेज चक्रों को

@व्याकुल



शनिवार, 18 सितंबर 2021

चिलबिल

चिलबिल का पेड़ मेरे बचपन से जुड़ा एक शानदार पेड़ है। घर के बगल कब्रिस्तान के एक कोने में अकेला खड़ा। तने का रंग जामुन के रंग जैसा। गहरे हरे रंग की आकर्षित करती पत्तियां। पेड़ पुराना था। इतनी ऊंचाई पर था कि हम लोग उसकी छांव नही ले सकते थे। 


 चित्र: गूगल से

अरस्तू कहते थे जिस मनुष्य को समाज की आवश्यकता नही, वह या पशु या देवता होगा। अकेले पेड़ को क्या कहेंगे??? हम बच्चों की कोलाहल से निःसंदेह खुश हो जाता होगा।

जब सूखी पत्ती जैसी फली हवा के झोंको से जमीन पर गिरती रहती थी। याद नही किसने ये बताया था कि इसके अंदर एक छोटा सफेद बीज खाया जा सकता है। उसी ज्ञानी ने यह भी बताया था कि इसका तो लोग हलवा खाते है। फिर क्या था बकझक के बीच इसका बीज खा लिया करते थे।

इसके भी कई नाम है जैसे हम लोगो के होते है - चिलबिल, चिरमिल, पापरी, करंजी, बेगाना, बनचिल्ला। 

थोड़ा इस पर अध्ययन किया तो पाया कि छाल, पत्ती और बीज सभी स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है। 

फिर क्या?? चिलबिल पर मेहरबान हो जाइये। लगा डालिये कही मैदान या खाली जगहों पर। 

प्रकृति से बेहतरीन चिकित्सक कौन हो सकता है भला...

@व्याकुल

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

कैनवस बॉल टूर्नामेंट

एक दौर था कैनवस की गेंद के टूर्नामेंट का। हर मोहल्ले के गली-कूचों में टूर्नामेंट होता रहता था। उत्साह का माहौल रहता था। 30-40 फिट चौड़ी सड़क पर भी आराम से हो जाया करता था। जरूरी नही टूर्नामेंट का टाईम दिन में हो, अमूमन रात में ही होता था।

जीतने वाले मैच के कप्तान को ट्रॉफी, मैन अॉफ द मैच, मैन अॉफ द सीरिज सबकों ट्राफी मिलती थी। 

एक बार हमारें छोटे भ्राता श्री अपने छोटे दल को लिये एक टूर्नामेंट में भाग लिये थे। 1-2 राउंड जीतने के बाद, मुझे और मेरे कई हमउम्र को शामिल किये थे (वैसे मै क्रिकेट में बहुत अच्छा नही था, पर छोटकी गोल से थोड़ा बेहतर था)।

जब यह टूर्नामेंट क्वार्टर या सेमीफाइनल में पहुँचा ज्यादातर खिलाड़ी बड़े स्तर के आ गये थे। मेरे बड़े भाई, जो उस वक्त 'ए' डिवीजन लीग मैच खेलते रहे थे, की साथियों के साथ टीम में इंट्री हो गयी थी।  

छोटी वाली गोल से सिर्फ छोटे भ्राता कप्तान थे। शुरुआत के सारे खिलाड़ी नदारद थे। 

ये पहला ऐसा मैच था जिसके फाईनल में तीनों भाई थे। घर में पॉच मेडल आये थे।

इसके नियम भी अजीब थे। छक्का एकदम नही था। दो रन और चार रन होते थे। टप्पा खाकर गेंद चॉक के बने बाउंड्रीवॉल से बाहर चला जाये तो चार रन। 

मैच की खूबी यह थी कि संयमित खेल होता था। आस-पास के घरों के शीशे शायद ही कभी टूटते हो।

@व्याकुल

क्षारीय भोजन

एक मजेदार घटना का जिक्र करता हूँ। कुछ वर्ष पहले मै अध्ययन के दृष्टिगत चित्रकूट में था। उसी समय वहॉ एक संत पधारे थे। अपने भक्तों से बोल रहे थे कि अगर आप सभी को स्वस्थ रहना है तो आटे को कच्चा ही खाये। पका कर न खाये। सब भक्त गण चिंतित। ऐसा कैसे संभव। मेरे समझ में तुरंत आ गया। पकाने की परम्परा की शुरुआत निश्चित रूप जीभ के स्वाद से जुड़ी होगी। पकी हुई चीजों में मूल स्वास्थ्यवर्धक तत्व गायब हो जाता है। तभी सलाद व फल स्वास्थवर्धक रहता है।

हम जितना आधूनिकता की ओर बढ़ते जा रहे उतना ही खान-पान और रहन-सहन भी बदलता जा रहा। जो भी मिल गया खा लिया। यही आदतें हमे बीमारियों की ओर ले जा रही। अगर हमें स्वस्थ्य व दीर्घायु रहना है तो खान-पान में सुधार करना होगा।

हमे इसका ज्ञान होना चाहिये कि हम क्या खायें और क्या न खायें। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि हम अन्न में क्या ले रहे। कही हमने अपने लीवर को प्रयोगशाला तो नही बना रखा। 

आजकल हम मैदे से बनी सामग्री, तेल या तली हुई सामग्री प्रचुरता में रहे है। जीभ का स्वाद प्रमुख हो गया है। शरीर का स्वाद या लीवर का स्वाद गौण हो गया है। 

अम्लीय भोजन ठूसे जा रहे है। अपच्य व गैस की बीमारी का शिकार होते जा रहे। जबकि हमारे आयुर्वेद में क्षारीय भोजन की सलाह दी गयी है। फाइबर प्रचुरता वाले भोजन लेने की बात कही गयी है। 

अम्लीय भोजन की अधिकता से तमाम तरह की बीमारियां घर कर रही है। एक बीमारी ने घुसपैठ की तो समझिये बाकी बीमारियों की श्रृंखला बन ही जायेगी।

क्षार पद्धति से इलाज भी दो प्रकार से होता है: 1.पहला, खाने वाला व 2. दूसरा, घाव या अंग पर लगाने वाला। 

मौसमी फल अवश्य खाये।

आज से ही शुरु कर दीजिये क्षारीय प्रचुर वाले भोजन की.......


@व्याकुल

बुधवार, 15 सितंबर 2021

नमक

किसी ने सही कहा है:

"तुम ने एहसान किया है कि नमक छिड़का है 

अब मुझे ज़ख़्म-ए-जिगर और मज़ा देते हैं"

नमक का महत्व हमारे जीवन में गहरे तक जुड़ा हुआ है। खाने में नमक ज्यादा हो या कम ही हो जायें तो कोहराम मच जाता हैं।

नमक का संतुलन नितान्त आवश्यक है। समुद्र के खारे पानी में से भी अपने लायक कुछ निकाल लेना छोटी बात नही है। 

पुराने जमाने में लोंग जल्दी किसी का नमक नही खाते थे। एक बार नमक खा लिया तो साथ देने से मुकरना नही है या ताउम्र वफादार बने रहना है। गुपचुप ऐसा न करना कि कहना पड़े...

"दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़ 

तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो"


हफ़ीज़ बनारसी सही ही कहते है:

दुश्मनों की जफ़ा का ख़ौफ़ नहीं 

दोस्तों की वफ़ा से डरते हैं...

हम तो रसायन शास्त्र में पढ़े है.. सोडियम क्लोराइड... ये तो मुझे ऐसा ही लगता है दूबे जी विदेश गये हो और कोई कह दे मि. डूबे...

1973 में एक फिल्म आयी थी "नमक हराम।" इस फिल्म का डॉयलाग भी गजब का था:

"जीने की आरज़ू में मरे जा रहे हैं लोग.… मरने की आरज़ू में जीए जा रहा हूं मैं!"

कही कोई लेख पढ़ रहा था तो लिखा भी था। ताउम्र जवाँ रहना है तो नमक कम कर दें।

नमक अकेला नही है। इस दुनियां में कई भाई-बहन है उसके। जैसे- समुद्री नमक.. सेंधा नमक... काला नमक....

मै कुछ भी लिखुँ और बचपन न आये। हो ही नही सकता। 

बचपन में गॉवों में नेवता के लिये भी जाना होता था तो कोहड़े की सब्जी मिल ही जाती थी...हिमालयी सम्मा (पूरा) आलू की तलहटी में कोहड़ा संघर्षरत्। बस नमक मिलाने की देर होती थी। फिर क्या था??? मति हेराय जात रहा.... चुटकी भर नमक का कमाल आज भी जीभ को याद है.....

@व्याकुल

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

पाचन

मै पिछले दो वर्षो से बहुत ही परेशान रहा। सन् 2020 में 2-3 महिने लॉकडाउन में घर बैठना हो गया। फिर 2021 में एक महीने। इन दो वर्षो में अपच्य का शिकार हो गया। गैस का तो पूछिये ही मत। दिन भर गैस। जिंदगी में नही सोचा था किं मुझे कब्जियत भी होगी। 

खैर!!!!! होमियोपैथी से इलाज शुरू किया। जब तक इलाज चलता रहा तब तक ठीक रहा। फिर वही लक्षण व बीमारी। मै परेशान हो गया। 

इसके बाद आयुर्वेदी पद्धति पर आ गया। दवाइयां ली। पर फिर वही। मै परेशान हो गया था। इतनी भयंकर समस्या थी कि बाईक नही चला पाता था। कुर्सी पर बैठना तो मुश्किल ही था। ये बीमारी भी ऐसी होती है कि आप ज्यादा किसी से शेयर नही कर सकते। 

वैसे मै हमेशा से ही दवाइयां खाने से बचता रहा हूँ। मुझे लगता है किं किसी भी बीमारी का इलाज नैसर्गिक (natural) तरीके से करना चाहिये। भले ही आपकों खान-पान से समझौता करना पड़े।

मैने दवाइयां सब बंद कर दी। प्रण ले लिया था खान-पान सुधारने के लिये।

सबसे पहले गाज गिरी समोसा व बताशे (फुल्की) पर। पूड़ी, तेल की बनी सारी चीजे बंद की। जब इन सब चीजों पर नियंत्रण पा लिया। फिर आया शाम के भोजन पर। बहुत ही नियंत्रित भोजन लेने लगा। शाम का भोजन छः बजे तक करने लगा। कभी-कभी पौष्टिक तरल से ही काम चलाने लगा। सिर्फ सुबह पूरा भोजन लेता। बाकि समय लिक्विड। 

परिणाम आश्चर्यचकित कर देने वाले थे। गैस का राम नाम सत्य हो गया। कब्जियत शब्द को भूल चुका हूँ। 

अभी सुबह का टहलना... रात जल्दी सोना और नियमित रूप से व्यायाम पर चिंतन जारी है....

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...