जल कर धूँ धूँ हो रहा था। व्यथित मन से अपनी आशाओं को धूूँआ धूँआ होता देख रहा था सपने तार तार हो रहे थे। गरीबी मजाक बन कर रह गयी थी 10 वर्ष पहले ही तिनका-तिनका जोड़कर एक छोटी सी दुकान रख पाया था। अभी तो सिर्फ एक ही बेटी व्याह पाया था।
वह तो बस घर आया ही था या यूँ कहे खाकर जैसे ही बिस्तर पर पड़ सोने की कोशिश कर रहा था कुछ चीखने चिल्लाने की आवाज सुनाई पड़ी थी पर उठने की हिम्मत नही उठा पाया था फिर भी जब आवाज कम होने का नाम ही नही ले रही थी तभी सोचा, देखू, 'क्या हो रहा?', आवाज कहाँ से आ रही।
आँखे फटी की फटी रह गयी।
मौसिया चाय की दुकान को, जहाँ युवाओं व नेताओं के सपने कुल्हड़ का चाय सिप करते हुए परवान चड़ते, आग ने अपने आगोश मे पूरी तरह ले लिया था।
राय क्लिनिक, कहने को किसी बडे डाँक्टर की क्लिनिक नही पर हर प्रकार के इलाज की व्यवस्था, भी धूँ धूँ हो रहा था जहाँ पूरे हिन्दुस्तान मे अधिकतर डाँक्टर सिर्फ पैसे और प्रसिद्धि के लिये कैसे लक्ष्मी के आगे हवसिया नज़र रखते वहाँ यही तो है गरीबो का मसीहा, इलाज बिना पैसे के अगले महीने दिहाड़ी के पैसे मिलने के आश्वासन पर करता था।
केसा चौराहे के पास इस अग्नि ने तो भूचाल ही ला दिया था हम लोगो के लिये ये घटनाये रात्रि स्वप्न से ज्यादा कुछ नही रात गयी बात गयी पर उनके लिये क्या जिनके सारे सपने चूर चूर हो कर जमींदोज हो गये।
गरीबी उन्ही राख मे से फिर से तिनका तलाश कर रही.…………
@व्याकुल
अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंNice line
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंआपके लेखन में कमाल की भावुकता है। मुझे मुंशी प्रेमचंद्र के दिनों के विषयों की याद दिलाती है। बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपके प्रेरणादायी शब्द कुछ बेहतर लिखने को प्रेेेरित करेंगी...
हटाएंवाह संवेदनशील , सुंदर अभिव्यक्ति डॉ💐💐
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सा'ब
हटाएंअच्छा लेख
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंबहुत भावपूर्ण रचना।
जवाब देंहटाएंप्रणाम मामा जी... शुक्रिया
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