हवायें गुफ्तगु
कर रही
नैनो से
फुसफुसाये यूँ
आँसु न रूके
पलको की..
जलें यूँ जैसे
पेट के लिए
रतिजगा
किये हो
शहर बदहवास है
बैचैन क्यों
दम क्यों घुट रहा
आगोश में
उसके..
ऊँचाइयों का
अर्थ क्या
इतना ही है
जहॉ छलनी हो
जाये तन
व
जीन की
परिष्कृता पर
हो जाये सेंध..
@व्याकुल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें