औसत मध्यम वृक्ष लसोड़ा का। थोड़ा घना। फल गोल। अंदर से ताकत इतनी की नगाड़ा बन जाता था। फिर तो धिन् धिन् ता ता धिन् धिन्।
चित्र: गूगल से
ये भी एक नवाचार (innovation) रहा है बालपन का। पुरवा या कुल्हड़ और परई या कसोरा का भरपूर उपयोग। लसोड़ा में इतना दम तो होता ही था कि कागज को मिट्टी के बर्तनों में कस कर बाँध देती थी। हमारा ढोलक व नगाड़ा तैयार हो जाता था।
वैसे जब थोड़ी समझदारी बढ़ी तब लसोढ़ा का उपयोग सिरके (vinegar) में भी देखा या जाना कि इसकी उपयोगिता आयुर्वेदिक में भी हो सकती है।
आज से 25-30 वर्ष पहले प्रकृति के बीच से ही खिलौना बना लेते थे तब शायद ही कृत्रिम खिलौना होता हो। पर लसोढ़ा की पहचान मेरे लिये नगाड़ा और ढोलक बनाने तक था और इससे बेहतरीन खिलौना कुछ और नही लगता था।
चित्र: गूगल से
इसके गूदा को पुरवा और परई के किनारों पर लगा कर कागज चिपका दिया करते थे फिर देर तक धूप में सुखाकर उपयोग में लाते थे। ये देखना जरूरी होता था कागज ढीला न हो जिससे ध्वनि में टंकार रहे।
गॉव में शायद 1-2 पेड़ थे लसोड़ा के। मै तो अपने घर के दक्षिण दिशा में लगे हुये लसोड़ा का ही प्रयोग करता था।
लसोड़ा जरूर लगाये अपने आस-पास। सिर्फ जीव-जन्तुओं की प्रजाति ही खतरे में नही हो सकती कुछ पेड़-पौधे भी हो सकते है....
@व्याकुल
लाजवाब, अति उत्तम
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंeska ek aur prayog apne nhi btaya iske patte ka dona bhi aj ke plastik bartan se kam nhi tha aur vo bhi free ka
जवाब देंहटाएंएकदम सही... शुक्रिया
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