निषेध
हो
उन
दिवस
का
जो
लघु
करे
असंख्य
अनुभूतियों
का...
सींचती
हर
पल
प्रतिपल
निर्माण
करती
पूर्ण
देह
अस्तित्व
का..
अशक्त
है
अक्षरें
भी
जो
भर सके
रिक्त
वाक्य
मान
का...
@व्याकुल
#महिलादिवस
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
निषेध
हो
उन
दिवस
का
जो
लघु
करे
असंख्य
अनुभूतियों
का...
सींचती
हर
पल
प्रतिपल
निर्माण
करती
पूर्ण
देह
अस्तित्व
का..
अशक्त
है
अक्षरें
भी
जो
भर सके
रिक्त
वाक्य
मान
का...
@व्याकुल
#महिलादिवस
समय कलेवा का था। राजन मुँह बनाए बैठा था। कलेवा शुरू कैसे करें। रेडियो तो दिखा ही नहीं । लड़की वाले भी राजन के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। तड़पा ही दिया था लगभग। तभी राजन के आँखों में चमक आ गई थी। बुश रेडियो को उसने देख लिया था ।
हंसी-खुशी विदाई के वक्त कार में एक तरफ दुल्हन तो दूसरी तरफ रेडियो था राजन के ।
दुल्हन की आंखों में आंसू था। पर राजन रेडियो के बटन को समझने में लगा था। उसने रेडियो ऑन ही किया था कि विविध भारती की चिर - परिचित संगीत सुनाई दी थी। तभी विविध भारती पर बज रहे एक गीत ने उसके खुशी पर पंख लगा दिया था।
'बाबुल का घर छोड़ के बेटी......'
राजन चकित था जैसे विविध भारती सब देख रहा हो।
दुल्हन ने फिर सुबकना शुरू कर दिया था।
राजन बहुत ही खुश था अब उसको नागेश के घर नहीं जाना पड़ेगा। गाना सुनने के लिए उसका सबसे पसंदीदा कार्यक्रम दोपहर के दो बजे का था। उस वक्त भोजपुरी गीत का कार्यक्रम होता था।
शादी के अगले दिन राजन नीम के पेड़ के नीचे खाट पर लेटा हुआ था। उसके सर के पास रेडियो पर गाना बज रहा था। आज दो बजे जैसे ही पहला गाना शुरू हुआ वो झूम उठा था।
'हे गंगा मैया, तोहे पियरी चढ़इबे...'
खेत - खलिहान कहीं भी जाता रेडियो साथ ही रहता। उसके शरीर का एक आवश्यक अंग बन चुका था। दिलीप कुमार का एक गाना सुनते ही नाचने लगा था वो....
'नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक....'
दुल्हन के सामने गाने की आवाज तेज कर देता था। वह प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करता पर दुल्हन को उसके रेडियो से चिढ़ हो गई थी। रेडियो को सौतन जैसे देखती थी वो।
रात को मनपसंद गीत सुनते - सुनते सो गया था वह। सुबह उठा तो रेडियो गायब था। बहुत परेशान था वह। रेडियो के बिना उसे लगा जैसे उसका प्राण निकल गया हो।
शायद दुल्हन की आँखों को खटकती वो सौतन बलि चढ़ गयी।
@व्याकुल
बनारस की संकरी गलियों में उसका मकान था। उस शाम को उसने घर पर बुलाया था। बस कॉलेज से घर आते ही शाम का इंतजार। चाय भी शायद उस शाम को नहीं पिया था।
कुछ दिन पहले उससे मुलाकात चाय की दुकान पर हुई थी। उसका परिवार मूलतः आसाम से था। उसकी चेहरे की बनावट काफी कुछ असमियों जैसी ही थी । मेरे पास चाय वाले को देने के लिए फुटकर पैसे नहीं थे । उसने तुरंत मेरे भी पैसे दे दिए थे । मैं मना करता तब तक दुकान वाले ने पैसे अपने गुल्लक में रख लिए थे । चलते वक्त बस संक्षिप्त परिचय हो पाया था। उस दिन के बाद आज फिर कॉलेज के कैंटीन में मुलाकात हो गई थी। उसके घर बुलाने के निवेदन को ठुकरा नहीं पाया था।
मद्धम ठंड थी सफेद शॉल तन पर था। किसी पुराने फिल्म के हीरो की तरह शॉल ओढ़े चल पड़ा था । उसके घर का पता एक - दो बार ही पूछना पड़ा था।
बहुत पुराना मकान था किसी हवेली जैसा। छोटें छोटें कमरे थे छतें उँची। मुझे उसने बड़े सत्कार से बैठाया था। फाइन आर्ट की छात्रा थी वो। मुझसे बहुत देर तक पेंटिंग इत्यादि के विषय में बात करती रही थी। मैं एक अबोध बालक की तरह उसके ज्ञान से सराबोर होता रहा था। तभी चाय का दौर चला फिर उसने पूरे परिवार से परिचय कराया था। बहुत ही खुश मिजाज थी। अलग-अलग विषय के विद्यार्थी होने के बावजूद अपने भारतीय संस्कृति के मुद्दे पर हम एक थे। शायद यही कारण था हमारी मुलाकात का दौर थमा नहीं। पूरे छः महीने तक चलता रहा।
उसके घर के सारे सदस्य प्रगतिशील थे। कभी कोई रोक - टोक नहीं। कभी-कभी शाम को घाट पर भी बैठ जाया करते थे हम लोग। एक दिन उसको पता नहीं क्या हो गया था। बोली थी,
'नए वर्ष में क्या प्लान है दिनेश जी।'
मैं चुप था।
नए वर्ष का आगमन हो गया था। मैं वर्ष के पहले दिन उसके घर गया भी था। ताला बंद था। सोचा, शायद वो लोग कहीं घूमने गये हों। आज की तरह उस जमाने में मोबाइल तो था नहीं। कई बार उसके घर गया। मायूस लौट जाता था।
होली की छुट्टियां होने वाली थी। अपने गांव जाने से पहले उससे मिल लेना चाहता था। घर के दरवाजे की जैसे ही कॉल बेल बजाई उसके पापा ने दरवाजा खोला। बड़ी ढाढ़ी बेतरतीब बाल। मैंने उनके पैर छुए तो बिना कुछ बोले ड्राइंग रूम में आने का इशारा किया था। मै चुपचाप ड्राइंग रूम में बैठ गया था। थोड़ी देर बाद उन्होनें मुझे एक चमकीले कागज में बँधा हुआ एक सामान दिया। सामान देने के बाद उनकी आंखों में आंसू फूट पड़े थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
"बेटा, उसे कैंसर हो गया था अब वो नहीं रही।"
मैं अवाक रह गया था।
मेरे हाथों में उसकी बनाई हुई अंतिम तस्वीर जिसमें उसके साथ मैं भी था व कैंटीन का वही कोने वाला टेबल था।
मैं ठगा सा चुपचाप अपने लॉज के रास्ते पर था।
@विपिन "व्याकुल"
नाकाबिल है फिरन को
लउट आयेन पश्च मालामालन को
बन हनु उदास लौटे दुआरन को
करत मन ही मन पश्चातापन् को
चोंगा तरबतर हुई जात पसीनन को
पलक उलट गयों अनिन्द्रन को
"व्याकुल" है बड़ी उलझन कों
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...