FOLLOWER

शनिवार, 29 मई 2021

रेल लाईन या टोटका...



बचपन में एक बार उत्तर प्रदेश के जिला भदोही के अपने गॉव सनाथपुर (सुरियाँवा) से देवदासपुर (जहॉ हमारी बूआ का घर था। जब मन करता था मै और हमारे अनुज क्षमाकांत निकल लिया करते थे। क्षमाकांत आयु में मुझसे एक वर्ष छोटे है पर बाल्यपन् में सामाजिक व्यवहारिकता मुझसे कही ज्यादा था। बहुत कुछ इनसे सीखने को मिल जाता था) जाते समय रेलवे लाईन पड़ता था। उस दिन हम लोगो को खुराफात सूझा। ट्रैक पर पड़े पत्थरों के टुकड़ों को लोहे के गाडर पर सजा दिया था जिस पर से गाड़ियों का पहिया चलता है। तभी गेटमैन ने दूर से हमको देख लिया था। डंडा लिये दौड़ा लिया था। एक साँस मे जितनी तेज दौड़ सकता था दौड़ लिये थे हम लोग। 


ख्वाबों ख्यालों की दुनिया थी तब। लोहे के कील से गाड़ी का पहिया निकल जाये तो चुम्बक बन जायेगा, ऐसी हम लोगो की मान्यता थी। गॉवों के बीच का ये लाईन हमे हमेशा टोटके जैसा लगता था।


जैसे ही रेलवे लाईन पार की लगता था दूसरे देश आ गया हूँ। मन को उलझा देता था। साईकिल के साथ पार करना तो और भी दूभर। 


आज भी जैसे ही कोई रेलवे लाईन दिखता है। सामने टोटके सा अहसास होता है। पार करना और भी मुश्किल। आँखों के सामने वही गिट्टीयाँ, गेटमैन और भागना तैरने लगते है....


@व्याकुल

महा पं. राहुल सांकृत्यायन

 "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।"


महापंडित, शब्द-शास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक, यायावर, कथाकार, निबंध-लेखक, आलोचक, कोशकार, अथक यात्री जैसे नामों से शोभायमान् राहुल सांकृत्यायन की जयंती (9 अप्रैल) पर उन्हे नमन💐🙏🏻


साहित्य जगत में उनका परचम लहराता था। तभी तो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने राहुलजी की भाषण शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा था, ’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधडक बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘


राष्ट्र भक्ति तो एक भाषण से सिद्ध होता है जब उन्होनें कहा था, ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘


#राहुलसांकृत्यायन

#मलॉव

#जयंती

बड़का तारा और गंगा मैया


छु्ट्टियाँ गर्मी की। गॉव का सैर ही ठीकाना रहता था दो महिने। बड़का तारा हम बच्चों के अन्वेषण का केन्द्र।बड़का तारा (हमरे गॉव की भाषा में तालाब को तारा बोलते है) में गॉव के तमाम खेल हुआ करते थे। तारा गोलाई में था और उसकी परिधि 400 मीटर से कम नही। चारों ओर आम के पेड़ गोलाई में एक अलग ही दृश्य बनाते थे। पशुओं में हाथियों को भी डुबकी लगाते देखा था तारा में। इंसान तो स्नान करते ही थे। बड़का तारा पहुँच गये तो समझिये साँझ होने पर ही घर वापसी।  एक बार हम सभी थक ही गये थे। प्यास बहुत जोरों की लग गयी थी। मध्य दुपहरी। अब वहॉ से घर जाने को कोई तैयार ही नही था। हम सभी ठहरे महान चिंतक। एक बार कुछ बोल दिया तो मतलब गलत हो ही नही सकता। हम सभी के उस विचार मंथन में तय हुआ किं 'ई तारा क पानी क कनेक्शन गंगा मैया से बा। तबई ई कबहू नाही सूखत।' फिर तो आप सभी समझ ही सकते है।


जै हो गंगा मैया अऊर हमार तारा मैया


©️व्याकुल

गणेश जी और आत्मसमर्पण

 

गणेश जी की सवारी की है एक बार। मुँगराबादशाहपुर से सुजानगंज तक सन् 1985 में। मेरी बुआ का घर। ठसाठस भरी थी टैम्पो। साँस लेने की फुर्सत नही। मै उसी भीड़ में दुबका हुआ बैठा था। अझेल था। रास्ते में जो भी दिखता बैठा लेता टैम्पो वाला। मै तो हिचकोलें खा रहा था। तभी महसूस हुआ किं मुँह में अंदर से कुृछ आ रहा। मुझे कुछ खट्टा सा लगा। मेरी अंतड़िया डगमग डगमग कर रही थी। फिर मुँह में वही स्वाद। इतना अंदर था कि बाहर के झरोखों में इंसानो के कई लेयर बन जाने से कोई गुंजाईस ही नही थी कि थूक के एक कण की तिलांजलि दे सकूँ। असहाय दबा हुआ क्या करता बेचारा। कई बार अंदर के हिचकोलों को शांत करने का अभिमन्यु सा प्रयास करता। पर वार तगड़ा रहा इस बार। इस बार लहरों ने सीधे मुँह की नही सुनी। बाहर आ ही गये। मै समर्पण कर चुका था। चूँकि बीच में दबा बैठा था किसी को कुछ पता ही नही चला। एकाएक हल्ला मचा। मै शांत चुप्पी साधे योग मुद्रा में था।


©️व्याकुल

जोरा-जामा

 जोरा-जामा

©️विपिन

आजकल शादी के बहुत दिन पहले से ही दुल्हा तैयारी शुरू कर देता है किं किस डिजाइन और कौन से रंग का शेरवानी पहनना है। दुल्हन के घर बारात लेकर जायें तो सबसे विशिष्ट लगे। बड़े शौक से शादी के कई महिनों पहले से तैयारियाँ शुरू हो जाती है। वर माला के समय के लिये अलग वस्त्र व रात में शादी के लिये दूसरा वस्त्र की खोज बड़ी शिद्दत से लोग करते है पर पुरानी शादियों में मैने कई शादियाँ ऐसी देखी थी जिसमें दूल्हा पीले रंग का वस्त्र धारण किये रहता था और रात भर वही पिताम्बर या पियरी धारण किये रहता था। सर पर बड़ा सा मौर एक अलग ही शोभा बनाते थे। मौर सर पर कपड़े की पट्टी से बँधा होता था। मौर को नाऊ काका ही कस कर बाँध सकते थे। जोरा जामा के नीचे धोती व बनियान धारण किये रहता था दूल्हा। बाद में कुछ लोग धोती की जगह पायजामा पहनने लगे थे। दिखावे की अँधी दौड़ व फिल्मी दुनिया की चकाचौंध ने इस परम्परा को हमसे छीन लिया।

©️व्याकुल 

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

नियुक्ति पत्र

आज उसके नाम का एक पत्र प्राप्त हुआ। पत्र पढ़तें ही घर में कोहराम मच गया था। बहुत दिनों से राजेश कम्पटीशन की तैयारी कर रहा था। चार बहनों में राजेश सबसे छोटा था। बड़ी अपेक्षा थी सबकों राजेश से। किसी को कुछ समझ ही नही आ रहा था। घर के सारे सदस्यों ने एक-एक कर पत्र कों धुँधलें आँखों से ही देख पा रहे थें। पिछले वर्ष पिता के जाने के बाद से ही परिवार का सारा बोझ उस पर आ गया था। 

बी. एच यू. से बी. एस. सी. करने के बाद गॉव के ही छोटे से प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा था, साथ ही ट्यूशन भी पढ़ाया करता था। बहुत परिश्रमी था वो। बहनों की शादी उसने जो कुछ जमा-पूँजी थी उससे की। उसे अपने सफल होने का पूरा भरोसा था पर परीक्षा में असफल परिणाम आते ही मन ही मन टूटता चला गया था वों।

उसकी हालत दिन प्रतिदिन खराब होती गयी। नींद गायब हो गयी थी। लग रहा था जैसे जीवन वीरान हो गया हो। कोई सहारा देने वाला नही था सिवाय मॉ के। 

आज उसकी मॉ का अस्पताल में चेक हुआ। कैंसर का पता चला। कैसे बर्दाश्त कर पाता वों। गहरी निराशा में डूब चुका था वों। 


चाँद बिसराई भोर होत

सूरज हेराई शमवा के...


यही गाता रहा था पिछले कुछ दिनों से। गाँव में पड़ोस के घर शादी का माहौल था। घर के सभी सदस्य वही गये हुये थे। हताश राजेश दूर जा चुका था। 

नियुक्ति पत्र बेसहारा जमीन पर हवा के झोंको के आगोश में था।

@व्याकुल

शनिवार, 6 मार्च 2021

नारी

निषेध

हो

उन

दिवस

का

जो

लघु

करे

असंख्य

अनुभूतियों

का...


सींचती

हर

पल

प्रतिपल

निर्माण

करती

पूर्ण

देह

अस्तित्व

का..


अशक्त

है

अक्षरें

भी

जो

भर सके

रिक्त

वाक्य

मान

का...

@व्याकुल

#महिलादिवस

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

कलेवा - 1



शादी के मंडप पर बैठा राजन बहुत ही उदास था। उसने शादी के बहुत पहले ही रेडियो की माँग कर दी थी वो भी बुश कंपनी की। इधर कई बार पंडितों ने उसकी तंद्रा भंग की थी पर वह रेडियो के ख्यालों में डूबा था ।

समय कलेवा का था। राजन मुँह बनाए बैठा था। कलेवा शुरू कैसे करें। रेडियो तो दिखा ही नहीं । लड़की वाले भी राजन के धैर्य की परीक्षा ले रहे थे। तड़पा ही दिया था लगभग। तभी राजन के आँखों में चमक आ गई थी। बुश रेडियो को उसने देख लिया था ।

हंसी-खुशी विदाई के वक्त कार में एक तरफ दुल्हन तो दूसरी तरफ रेडियो था राजन के ।

दुल्हन की आंखों में आंसू था। पर राजन रेडियो के बटन को समझने में लगा था। उसने रेडियो ऑन ही किया था कि विविध भारती की चिर - परिचित संगीत सुनाई दी थी। तभी विविध भारती पर बज रहे एक गीत ने उसके खुशी पर पंख लगा दिया था।

'बाबुल का घर छोड़ के बेटी......'

राजन चकित था जैसे विविध भारती सब देख रहा हो।

दुल्हन ने फिर सुबकना शुरू कर दिया था।

राजन बहुत ही खुश था अब उसको नागेश के घर नहीं जाना पड़ेगा। गाना सुनने के लिए उसका सबसे पसंदीदा कार्यक्रम दोपहर के दो बजे का था। उस वक्त भोजपुरी गीत का कार्यक्रम होता था। 

शादी के अगले दिन राजन नीम के पेड़ के नीचे खाट पर लेटा हुआ था। उसके सर के पास रेडियो पर गाना बज रहा था। आज दो बजे जैसे ही पहला गाना शुरू हुआ वो झूम उठा था। 

'हे गंगा मैया, तोहे पियरी चढ़इबे...'

खेत - खलिहान कहीं भी जाता रेडियो साथ ही रहता। उसके शरीर का एक आवश्यक अंग बन चुका था। दिलीप कुमार का एक गाना सुनते ही नाचने लगा था वो.... 

'नैन लड़ जैंहे तो मनवा में कसक....'

दुल्हन के सामने गाने की आवाज तेज कर देता था। वह प्रतिक्रिया जानने का प्रयास करता पर दुल्हन को उसके रेडियो से चिढ़ हो गई थी। रेडियो को सौतन जैसे देखती थी वो।

रात को मनपसंद गीत सुनते - सुनते सो गया था वह। सुबह उठा तो रेडियो गायब था। बहुत परेशान था वह। रेडियो के बिना उसे लगा जैसे उसका प्राण निकल गया हो। 

शायद दुल्हन की आँखों को खटकती वो सौतन बलि चढ़ गयी।

@व्याकुल

अकथ


 


बनारस की संकरी गलियों में उसका मकान था। उस शाम को उसने घर पर बुलाया था। बस कॉलेज से घर आते ही शाम का इंतजार। चाय भी शायद उस शाम को नहीं पिया था। 


कुछ दिन पहले उससे मुलाकात चाय की दुकान पर हुई थी। उसका परिवार मूलतः आसाम से था। उसकी चेहरे की बनावट काफी कुछ असमियों जैसी ही थी । मेरे पास चाय वाले को देने के लिए फुटकर पैसे नहीं थे । उसने तुरंत मेरे भी पैसे दे दिए थे । मैं मना करता तब तक दुकान वाले ने पैसे अपने गुल्लक में रख लिए थे । चलते वक्त बस संक्षिप्त परिचय हो पाया था। उस दिन के बाद आज फिर कॉलेज के कैंटीन में मुलाकात हो गई थी। उसके घर बुलाने के निवेदन को ठुकरा नहीं पाया था। 


मद्धम ठंड थी सफेद शॉल तन पर था। किसी पुराने फिल्म के हीरो की तरह शॉल ओढ़े चल पड़ा था । उसके घर का पता एक - दो बार ही पूछना पड़ा था। 


बहुत पुराना मकान था किसी हवेली जैसा। छोटें छोटें कमरे थे छतें उँची। मुझे उसने बड़े सत्कार से बैठाया था। फाइन आर्ट की छात्रा थी वो। मुझसे बहुत देर तक पेंटिंग इत्यादि के विषय में बात करती रही थी। मैं एक अबोध बालक की तरह उसके ज्ञान से सराबोर होता रहा था। तभी चाय का दौर चला फिर उसने पूरे परिवार से परिचय कराया था। बहुत ही खुश मिजाज थी। अलग-अलग विषय के विद्यार्थी होने के बावजूद अपने भारतीय संस्कृति के मुद्दे पर हम एक थे। शायद यही कारण था हमारी मुलाकात का दौर थमा नहीं। पूरे छः महीने तक चलता रहा।


उसके घर के सारे सदस्य प्रगतिशील थे। कभी कोई रोक - टोक नहीं। कभी-कभी शाम को घाट पर भी बैठ जाया करते थे हम लोग। एक दिन उसको पता नहीं क्या हो गया था। बोली थी, 


'नए वर्ष में क्या प्लान है दिनेश जी।'


मैं चुप था।


नए वर्ष का आगमन हो गया था। मैं वर्ष के पहले दिन उसके घर गया भी था। ताला बंद था। सोचा, शायद वो लोग कहीं घूमने गये हों। आज की तरह उस जमाने में मोबाइल तो था नहीं। कई बार उसके घर गया। मायूस लौट जाता था। 


होली की छुट्टियां होने वाली थी। अपने गांव जाने से पहले उससे मिल लेना चाहता था। घर के दरवाजे की जैसे ही कॉल बेल बजाई उसके पापा ने दरवाजा खोला। बड़ी ढाढ़ी बेतरतीब बाल। मैंने उनके पैर छुए तो बिना कुछ बोले ड्राइंग रूम में आने का इशारा किया था। मै चुपचाप ड्राइंग रूम में बैठ गया था। थोड़ी देर बाद उन्होनें मुझे एक चमकीले कागज में बँधा हुआ एक सामान दिया। सामान देने के बाद उनकी आंखों में आंसू फूट पड़े थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। 


"बेटा, उसे कैंसर हो गया था अब वो नहीं रही।" 


मैं अवाक रह गया था। 


मेरे हाथों में उसकी बनाई हुई अंतिम तस्वीर जिसमें उसके साथ मैं भी था व कैंटीन का वही कोने वाला टेबल था।


मैं ठगा सा चुपचाप अपने लॉज के रास्ते पर था।


@विपिन "व्याकुल"

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

यादों को बाँधू तो कैसे


यादों को बाँधू तो कैसे

शिकन पेशानी पर यूँ बढ़ती रही
लम्हें भी टूट कर बिखर जाते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

गम को मेरा गम देखा जाता न रहा
खून के घूँट आँखों में उतर जाते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों के दरख्त भी अब रूठ से गये
पसीने बन चाँदनी रात भिगोते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे






पन्नों पर लिखी इबारत कैसे पलटते
हर्फ भी नजरों को धोखा देते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादें ही थी मिटती रही जेहन से
चश्में भी दिमाग को लगते रहे
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों को "व्याकुल" सहेजते कैसे
जो बेचैन से दर-बदर घुटते रहे 
यादों को बाँधू तो कैसे

यादों को बाँधू तो कैसे

@विपिन "व्याकुल"





धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...