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रविवार, 30 मई 2021

फिल्म न्यूटन और जम्मू कश्मीर चुनाव - 1

 

छुट्टियों में बेहतरीन फिल्म देखने का एक अलग ही मजा होता है। न्यूटन फिल्म किसी नक्सली क्षेत्र में चुनाव ड्यूटी को लेकर बनी है। न्यूटन फिल्म देखते जा रहा था और मुझे 2002 में अपनी ड्यूटी याद आ रही थी जो कि कश्मीर के विभिन्न जगहों पर लगी थी और लगभग मै वहाँ एक महीने रहा था।
लखनऊ से लादे गये और पहुँच गये कश्मीर। शायद वो श्रीनगर का एअरपोर्ट था। वहॉ पहुँचते ही एक हमारे चंचल मित्र किसी फलदार वृक्ष पर चढ़ गये थे और डाल हिला हिला कर लोगो को फल चखने का मौका दिये। बी.एस.एफ. वालो के कहने पर नीचे आये।


@विपिन
श्रीनगर से हम लोगो को पट्टन भेज दिया गया था। श्रीनगर से पट्टन जाते वक्त ऐसे कई बढिया मकान दिखे जो खाली ही था और लग रहा था जैसे सालों से कोई रह न रहा हो। जिस जगह ठहराया गया था उसके ठीक सामने सेब का बाग था। जब सेब खाने का मन होता हम सभी चले जाते और सेब जेबों में भर लाते। बी.एस.एफ वाले बताते थे कि वो बाग किसी कश्मीरी पंडित का था।
पट्टन 7 दिन तक रहा। गोलियों की आवाज सुनाई देना सामान्य बात रहती थी। पट्टन से उड़ी सेक्टर की दूरी ज्यादा नही थी।
बड़ा ही अफवाह व भय का माहौल रहता था....
@व्याकुल
क्रमशः

पढ़ने की आदत और पुस्तकालय

आज की पीढ़ी और आने वाले समय में समाज को एक भयंकर समस्या से ग्रसित होना है.. वह है "पढ़ने की आदत" की समस्या। पुस्तकालयों की मनोदशा के अंदर झाँक कर देखिये। किताबों पर पड़ती धूल। कॉलेजों में कुछ assignment ऐसे मिले जिसमें सप्ताह में एक दिन किसी पब्लिक पुस्तकालय में कम से कम 4-5 घंटे अध्ययन करे व संबंधित प्रोजेक्ट पर कुछ अंक भी निर्धारित हो। पुस्तकालय कदम रखते ही बच्चों को और भी विषय सामग्रियों से वास्ता पड़ेगा जिससे उनमें अध्ययन की आदत पड़ेगी। अध्ययन से विभिन्न विचारों को जानने समझने का मौका मिलता है व खुद के भी विचारों का जन्म होता है। ऐसे ही बड़े विचारकों का जन्म नही हुआ होगा जरूर वे महान पुस्तकालयों की शरण में गये होंगे।

@व्याकुल

(संलग्न आर्टिकल हिन्दूस्तान समाचार पत्र में 12 अक्टूबर, 2019 से लिया गया)


मन

 

कभी कभी कुछ ताना बाना अंदर से निकलता है.. यही आत्मा की सुर होती है शायद......
कहावत सुनता आया हूँ लुटिया डूब गयी। लुटिया डूबेगी नही तो भरेगी कैसे। लुटिया की आकार या बनावट पर जायेंगे तो यहीं पायेंगे किं खाली ही रहता है और लुटिया डूबेगी वही जहा पात्र भरा होगा
कुछ भी खत्म नही होता। बस उसका रूप व प्रकार बदल जाता है। हताश या निराश होना ही नही चाहिये। प्रकृति अपने हिसाब से चीजो को समायोजन कर रही। प्रश्न है किं बलवान कौन???प्रकृति या मानव। निःसंदेह प्रकृति ही होगा। जिसका निर्माण खुद से होगा वही बलवान होगा। मानव तो निर्भर है प्रकृति पर। ऐसे ही मानव का प्रयास खुद को निर्मित करने का होना चाहिये। ये काम कर लिया तो समझो यथार्थता के चरम को पा लिया। एक बार ऐसा तारतम्य बना लिया तो समझो लयबद्ध हो गये आप। फिर प्रश्न उठता है लय कहॉ और किससे। उसी प्रकृति से। करके देखिये एक बार। मन आनंदित हो उठेगा।
राम राम।
@"व्याकुल"

शनिवार, 29 मई 2021

काठ-घोड़ा नृत्य

 

मै बहुत छोटा था जब मैने काठ के घोड़े का नृत्य उत्तर प्रदेश के छोटे से जिले भदोही में देखा था। गजब का उत्साह था नृत्य करने वाले पुरूष का। गोल- गोल घूम कर नृत्य कर रहा था। हम लोग बहुत पीछे चले जाते थे कही घोड़ी पास न आ जाये। 

                                                                     चित्र: गूगल से

बचपन में चेतक घोड़े पर जो कविता सुनी थी उसकों चरितार्थ कर रहा था। हवा से बाते कर रहा था। सजीला घोड़ा था। चमकदार कपड़े पहने हुये था। उस पर बैठा हुआ व्यक्ति पगड़ी पहने किसी राजसी ठाठ वाला व्यक्ति। शादी विवाह में मुख्यतः इस प्रकार का नृत्य दिख जाता था।  राजस्थान में इस नृत्य को कच्छी घोड़ी नृत्य कहा जाता है।जरूर इस प्रकार के नृत्य का कोई इतिहास रहा होगा। आधुनिकता में कही गुम हो गया ये नृत्य भी।

©️विपिन



लौंगलता


यूँ तो बनारस की जो छवि बचपन से थी वो ठगो के शहर से थी। मैने जब पहली बार इस फक्कड़ी शहर में कदम रखा तो लगा यहा शहर नही हिन्दुस्तान बसता है। देशीपना या यूँ कहे ठेठपना तो आपको यही मिलेगा। कुछ तो है इस माटी में जो विदेशियो को भी आकर्षित करती रही है।

जहाँ तक ठगे जाने की बात है। वहाँ रहने के बाद आज भी ठगा महसूस करता हूँ चाहे वो लौंग लता ने ठगा हो चाहे गलियो ने ठगा हो चाहे घाटो की मस्तियो ने ठगा हो। कौन नही चाहेगा बार-बार ठगे जाना।

बी. एच. यू. में अगर आपने लौंग लता नही खायी इसका मतलब कुछ नही किया आपने।

                                        @विपिन

अगर आपने लौंग लता कभी नही देखी और आपके मन में किसी सुन्दर मिठाई की शक्ल दिमाग में आ रही तो आप इस बनारसी मिठाई के बारे में गलत फहमी पाल रखे है। भोले बाबा के नगरी में ऐसे कैसे हो सकता है। सजी सँवरी मिठाई का ख्याल ही छोड़ दीजिये।

गाढ़ी चासनी में डूबे फिर लौंग का नशा सीधे भक्ति मार्ग पर ले जाकर ही छोड़ती है।

डायबीटीज अपने चरम पर हो और लौंग लता सामने। कौन जीवन को तृप्त करना नही चाहेगा।


@विपिन "व्याकुल"

रेल लाईन या टोटका...



बचपन में एक बार उत्तर प्रदेश के जिला भदोही के अपने गॉव सनाथपुर (सुरियाँवा) से देवदासपुर (जहॉ हमारी बूआ का घर था। जब मन करता था मै और हमारे अनुज क्षमाकांत निकल लिया करते थे। क्षमाकांत आयु में मुझसे एक वर्ष छोटे है पर बाल्यपन् में सामाजिक व्यवहारिकता मुझसे कही ज्यादा था। बहुत कुछ इनसे सीखने को मिल जाता था) जाते समय रेलवे लाईन पड़ता था। उस दिन हम लोगो को खुराफात सूझा। ट्रैक पर पड़े पत्थरों के टुकड़ों को लोहे के गाडर पर सजा दिया था जिस पर से गाड़ियों का पहिया चलता है। तभी गेटमैन ने दूर से हमको देख लिया था। डंडा लिये दौड़ा लिया था। एक साँस मे जितनी तेज दौड़ सकता था दौड़ लिये थे हम लोग। 


ख्वाबों ख्यालों की दुनिया थी तब। लोहे के कील से गाड़ी का पहिया निकल जाये तो चुम्बक बन जायेगा, ऐसी हम लोगो की मान्यता थी। गॉवों के बीच का ये लाईन हमे हमेशा टोटके जैसा लगता था।


जैसे ही रेलवे लाईन पार की लगता था दूसरे देश आ गया हूँ। मन को उलझा देता था। साईकिल के साथ पार करना तो और भी दूभर। 


आज भी जैसे ही कोई रेलवे लाईन दिखता है। सामने टोटके सा अहसास होता है। पार करना और भी मुश्किल। आँखों के सामने वही गिट्टीयाँ, गेटमैन और भागना तैरने लगते है....


@व्याकुल

महा पं. राहुल सांकृत्यायन

 "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।"


महापंडित, शब्द-शास्त्री, त्रिपिटकाचार्य, अन्वेषक, यायावर, कथाकार, निबंध-लेखक, आलोचक, कोशकार, अथक यात्री जैसे नामों से शोभायमान् राहुल सांकृत्यायन की जयंती (9 अप्रैल) पर उन्हे नमन💐🙏🏻


साहित्य जगत में उनका परचम लहराता था। तभी तो आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने राहुलजी की भाषण शक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा था, ’’मैं गोष्ठियों, समारोहों, सम्मेलनों, में वैसे तो बेधडक बोलता हूँ लेकिन जिस सभा, सम्मेलन या गोष्ठी में महापंडित राहुल सांकृत्यायन होते हैं, वहाँ बोलने में सहमता हूँ। उनके व्यक्तित्व एवं अगाध विद्वत्ता के समक्ष अपने को बौना महसूस करता हूँ।‘‘


राष्ट्र भक्ति तो एक भाषण से सिद्ध होता है जब उन्होनें कहा था, ’’चौरी-चौरा कांड में शहीद होने वालों का खून देश-माता का चंदन होगा।‘‘


#राहुलसांकृत्यायन

#मलॉव

#जयंती

बड़का तारा और गंगा मैया


छु्ट्टियाँ गर्मी की। गॉव का सैर ही ठीकाना रहता था दो महिने। बड़का तारा हम बच्चों के अन्वेषण का केन्द्र।बड़का तारा (हमरे गॉव की भाषा में तालाब को तारा बोलते है) में गॉव के तमाम खेल हुआ करते थे। तारा गोलाई में था और उसकी परिधि 400 मीटर से कम नही। चारों ओर आम के पेड़ गोलाई में एक अलग ही दृश्य बनाते थे। पशुओं में हाथियों को भी डुबकी लगाते देखा था तारा में। इंसान तो स्नान करते ही थे। बड़का तारा पहुँच गये तो समझिये साँझ होने पर ही घर वापसी।  एक बार हम सभी थक ही गये थे। प्यास बहुत जोरों की लग गयी थी। मध्य दुपहरी। अब वहॉ से घर जाने को कोई तैयार ही नही था। हम सभी ठहरे महान चिंतक। एक बार कुछ बोल दिया तो मतलब गलत हो ही नही सकता। हम सभी के उस विचार मंथन में तय हुआ किं 'ई तारा क पानी क कनेक्शन गंगा मैया से बा। तबई ई कबहू नाही सूखत।' फिर तो आप सभी समझ ही सकते है।


जै हो गंगा मैया अऊर हमार तारा मैया


©️व्याकुल

गणेश जी और आत्मसमर्पण

 

गणेश जी की सवारी की है एक बार। मुँगराबादशाहपुर से सुजानगंज तक सन् 1985 में। मेरी बुआ का घर। ठसाठस भरी थी टैम्पो। साँस लेने की फुर्सत नही। मै उसी भीड़ में दुबका हुआ बैठा था। अझेल था। रास्ते में जो भी दिखता बैठा लेता टैम्पो वाला। मै तो हिचकोलें खा रहा था। तभी महसूस हुआ किं मुँह में अंदर से कुृछ आ रहा। मुझे कुछ खट्टा सा लगा। मेरी अंतड़िया डगमग डगमग कर रही थी। फिर मुँह में वही स्वाद। इतना अंदर था कि बाहर के झरोखों में इंसानो के कई लेयर बन जाने से कोई गुंजाईस ही नही थी कि थूक के एक कण की तिलांजलि दे सकूँ। असहाय दबा हुआ क्या करता बेचारा। कई बार अंदर के हिचकोलों को शांत करने का अभिमन्यु सा प्रयास करता। पर वार तगड़ा रहा इस बार। इस बार लहरों ने सीधे मुँह की नही सुनी। बाहर आ ही गये। मै समर्पण कर चुका था। चूँकि बीच में दबा बैठा था किसी को कुछ पता ही नही चला। एकाएक हल्ला मचा। मै शांत चुप्पी साधे योग मुद्रा में था।


©️व्याकुल

जोरा-जामा

 जोरा-जामा

©️विपिन

आजकल शादी के बहुत दिन पहले से ही दुल्हा तैयारी शुरू कर देता है किं किस डिजाइन और कौन से रंग का शेरवानी पहनना है। दुल्हन के घर बारात लेकर जायें तो सबसे विशिष्ट लगे। बड़े शौक से शादी के कई महिनों पहले से तैयारियाँ शुरू हो जाती है। वर माला के समय के लिये अलग वस्त्र व रात में शादी के लिये दूसरा वस्त्र की खोज बड़ी शिद्दत से लोग करते है पर पुरानी शादियों में मैने कई शादियाँ ऐसी देखी थी जिसमें दूल्हा पीले रंग का वस्त्र धारण किये रहता था और रात भर वही पिताम्बर या पियरी धारण किये रहता था। सर पर बड़ा सा मौर एक अलग ही शोभा बनाते थे। मौर सर पर कपड़े की पट्टी से बँधा होता था। मौर को नाऊ काका ही कस कर बाँध सकते थे। जोरा जामा के नीचे धोती व बनियान धारण किये रहता था दूल्हा। बाद में कुछ लोग धोती की जगह पायजामा पहनने लगे थे। दिखावे की अँधी दौड़ व फिल्मी दुनिया की चकाचौंध ने इस परम्परा को हमसे छीन लिया।

©️व्याकुल 

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...