कोई
कही नही
जाता
प्रयाण करता
है भी तो
ठिकाना बदलने को
ऊब जाता होगा
शायद
वही चेहरे
वही लोग
सब कुछ वही
निकल पड़ता है
अजनबी
रास्तें की ओर
शायद कुछ
नवीनतम्
देख सकें...
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
कोई
कही नही
जाता
प्रयाण करता
है भी तो
ठिकाना बदलने को
ऊब जाता होगा
शायद
वही चेहरे
वही लोग
सब कुछ वही
निकल पड़ता है
अजनबी
रास्तें की ओर
शायद कुछ
नवीनतम्
देख सकें...
@व्याकुल
मिज़ाज क्या पूछा उनसे
मुस्कुरा दिये वो
मिरे मिज़ाज को
गुलबहार कर गये हो जैसे
मिज़ाज के खातिर
उँगलियां क्या छूई
काँपती हुई सी
कुछ इशारा कर गये हो जैसे
मिज़ाज की नब्ज टटोलने
निगाहें जो फेरी ऊधर
पलक बन्द कर
रूहानियत कर गये हो जैसे
मिज़ाज दरयाफ्त को
गया जो गली तक
होंठ बुदबुदायें ऐसे
सब बयां कर गये हो जैसे
मिज़ाज उनका
बना पैमाना मिरा 'व्याकुल'
जुस्तजू मुसलसल उनकी
हाल नासाज़ कर गये हो जैसे
@व्याकुल
लॉकडाउन में गॉवों की ओर लौटते मजदूरों पर कविता-
हटा दो
उन बेमानी शब्दों को
जो छद्म लोकतंत्र की
परिभाषाए गढ़ रहे।
कर्ज क्यो नही अदा
कर पाये
और छोड़ दिये तड़पता हुआ
सडकों पर
या
रेल की पटरियों पर।
क्या
कदम बढ़े न
अपनी माटी
की ओर
जो लपेटने को
फैलायें है बाँहे...
आत्ममुग्धता नही
हकीकत हूँ
खुशहाली
का
आधार हूँ
खेतों का
या
ईंटों की
दीवार का..
पसीनें छुपे है
घर की छत हों
या कण आटें का ।
कैसे हो परिशोधन
प्रारब्ध का या
मान लूँ
गरीब जन्मता ही गरीब है
और मरता भी गरीब है।
@व्याकुल
चींटी सा ही चलू
पर चलता ही रहूँ
नित नये कलेवर में
जन रवायत है ऐसा
करे जतन विस्मृत का
रंग नये हो या
संग नया हो
प्रमाण देते
पुनर्जीवन का
कौन देखे श्वेत श्याम
खीचें जाये रंगो में
सप्तरंगी हो जाऊ मै
चुन लू जाऊ अपने ढंग से
तिनका हूँ प्रवाह की या
पंक्ति बनू काफिलों की
चींटी सा ही चलू
पर चलता ही रहूं।
@व्याकुल
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ... इस अवसर पर मेरी रचना जो राष्ट्र को समर्पित है..
बात हो आन की
या घट रहे शान की
बलि जाये परार्थ में
घटोत्कच सा रण में
अंत हो दंभ का या
नारी की लाज का
दुर्योधन सी मौत दे
जंघा भी चीर जाये
पुनः एक प्रयास हो
लघु का विस्तार हो
प्यार से जो दे न सके
खींच ले शस्त्र से
रणभेरी बजे काषल से
जैसे शंकरा ने उठायी
संकल्प हो परास्त का
अखंडता उन्मूलन का
मर्यादा क्यों अब लांघना
विदेशियों से क्यो याचना
लोधी क्यो जो बन गये
परायी धरा कर गये
आग सर पर रहे
भरत घर-घर रहे
भुजायें फड़कती रहे
आग धधकती रहे
मना ले ये दिवस खूब
खोज ले एक मंत्र ये
कराग्रे से जो ताल हो
करे जाप राष्ट्र का
@व्याकुल
आत्मसात् करुँ कैसे
इष्ट देव को अपने
पन्नें उलटू हरिवंश का
जो वर्णित करे
ग्वाल को
या भागवत पुराण के
लीला को
या विष्णु पुराण के
रहस्य को
मनाऊँ किस रूप को
आठवें अवतार विष्णु को
या आठवें वसुनंदन को
धन्य हो मथुरा जन्म से जिनके
इठलायें गोकुल बाल क्रीड़ा से जिनके
मोहें मनमोहक कान्हा
रेंगते घुटनों पर
बंशी बजाते नृत्य से
या माखन चोर से
पाप का नाश कर
कंस का वध कर
सारथी बन जीवन तारे
कर्मयोगी का पाठ
पढ़ाकर
पथ दिखाये पार्थ को
पुकारूँ किस नाम से
कृष्ण मोहन गोविन्द
गोपाल
माधव केशव
कन्हैया श्याम
उलझता ही जाऊ
हर-पल प्रतिपल
नटवर बन छकाते
खूब हो
कभी जगन्नाथ बन या
या विट्ठल या श्रीनाथ
या द्वारिकाधीश बन
रूला गये गोपियो
ग्वाल बाल को
त्याग गये भालका मृत्यलोक
चल पड़े वैकुंठ को
@व्याकुल
चार दिनों से उसने खाना पीना बंद कर दिया था। दमयंती जब से ससुराल गयी थी वों अपने आप को तन्हा पा रहा था। यश के घर वालों ने उसे बहुत समझाया पर वों मौन था।
पूरे गॉव में इनके चर्चे थे। दमयंती के घर वाले एक ही बिरादरी व एक ही गॉव के नाते शादी को तैयार नही थे।
शादी दमयंती के ही साथ करने को यश ने कसम खायी थी। दोनों का प्रेम गहरा था। दमयंती के घर वाले सामंती प्रथा के पोषक थे जबकि यश का परिवार सामान्य किसान।
************************
दमयंती का पति विजय नशेड़ी था। शराब पी कर पड़ा रहता था। पुश्तैनी जमीन-जायदाद बहुत सारी थी उसके पास। कभी-कभी सारी रात घर से गायब रहता था।
दमयंती के नसीब में शायद यही लिखा था। रोते रहने के सिवा और कोई चारा भी न था। यही सोचती रहती क्या स्त्री का जन्म सिर्फ कष्ट भोगने के लिये ही हुआ है.... कुछ समझ न आता उसकों... मन यही कहता लौट जाऊ अपने पीहर जहाँ यश था जो उसकी भावनाओं को समझता था।
************************
यश उदास रहने लगा। घर वाले उसकी शादी के दबाव बनाने लगे पर उसने शादी नही करने के लिये स्पष्ट कह दिया था। सब निरूत्तर थे।
यश का गौर वर्ण.. रौबीला चेहरा.. मांसल देह व सबके मन को मोह देने वाला व्यक्तित्व था... फुर्तीला गजब का था.. गॉव में जब भी कबड्डी या कोई खेल होता.. उम्दा तरीके से अपनी टीम को विजयी बनाता। साहस तो कूट-कूट कर भरा हुआ था। गॉव में एक बार डकैतों का हमला हुआ था। उसने अकेले दम पर डकैतों के छक्के छुड़ा दिये थे, उस दिन तो सारे गॉव में उसकी जय-जय होने लगी थी। दमयंती के आँखों में बस गया था वों।
वो मौके की तलाश में रहती कैसे यश से मुलाकात हो जाये। गॉव की एक शादी में दोनों के नैन मिले फिर क्या था दमयंती का चेहरा शर्म से लाल हो गया था।
दोनो की मुलाकात अनवरत् होने लगी थी। दोनों के मकान के बीच में कोलिया (मकानों के बीच पतली गली) थी। वहॉ किसी का भी आना-जाना नही होता था। यश को याद है उसने पहली मुलाकात में दमयंती को कस कर अपनी बाहों में भींच लिया था। दमयंती तो पिघल गयी हो उसके बाहों में।
मेला हो या कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम कोई मौका नही चूकते थे दोनों मिलने का।
************************
जाति-धर्म-कुनबा और न जानें कितनी शब्दावलियाँ है जो प्रेम में आड़े आती रही है। न जाने कितने दिल टूट कर बिखर गये होंगे। समाज की बंदिशें प्रेम पर ही इतना ज्यादा क्यो हैं....
दमयंती की स्थिति पिंजड़े में बंद एक चिड़ियाँ जैसी हो गयी थी। आकाश देख तो सकती है पर छू नही सकती।
आज शादी को एक वर्ष हो गये थे। शादी की वर्षगाँठ ससुराल में बड़ी ही धूमधाम से मनाने की परम्परा थी। विजय कों घर के बड़ो ने ताकीद की थी शाम को समय से घर आने का। मै बहुत खुश थी।
घर बहुत अच्छे ढंग से सजाया गया था। उत्सव जैसा माहौल था घर पर। मेहमानों के आने का क्रम शुरू हो गया था।
विजय को छोड़ सभी आ गये थे।
तभी पुलिस की एक गाड़ी आयी। उस गाड़ी में सफेद कपड़ो में लिपटा कोई मृत शरीर भी था। तभी हवा का एक झोंका आया सफेद कपड़ा आधा उड़ गया था। दमयंती के पॉवों से जैसे ज़मीन ही खिसक गयी थी। वो विजय था। घर में मातम मच गया था।
कुलक्षणी के आरोप लगने लगे। दमयंती को मायके पहुँचा दिया गया।
************************
यश को मुझसे भरपूर सहानुभूति थी।
मै एक दिन मंदिर की परिक्रमा कर रही थी.. तभी वों मुझे वही मिल गया। उसी कोलिया में मिलने के लिये बोल कर निकल गया था।
थोड़ी देर बाद मै भी पहुँच गयी थी। उसने मुझे जैसे ही पकड़ा। मै अपने आपे में नही रही थी। बहुत देर तक एक दूसरे में खोये रहे।
बारिश का मौसम था। मेरे घर कोई नही था। सिर्फ मै अकेली। यश एकाएक किसी बहाने आ गया था। दोनों अपने आपे में नही थे....
घर में कोहराम मच गया था..
"रे नाशपीटी!!!!! किसका पाप ले आयी....."
आज फिर एक डोली उठ रही थी सफ़ेेद कपड़ो में.....
@व्याकुल
जेल के सीखचों के पीछें आ चुका था वों। छोटी सी काल कोठरी अंधकार से भरा हुआ था। सिर्फ पॉव फैला कर लेट सकता था। टहलना तो सपना जैसा था। एक थाली, छोटा गिलास व एक छोटीं सी बक्सीं ही साथ दे रही थी। मेरे कोठरी के बगल में पूरे जेल का कॉमन टॉयलेट होने से सड़ाँध जैसी बदबू आती थी। छोटे-छोटे मच्छर कान में दिन भर भन भन करते रहते थे। कभी-कभी चूहें मेरे बदन को छूते हुये निकल जाते थे।
रात में एक प्रहर ही नींद आती थी। फिर गॉव से लेकर शहर और प्रशासनिक सेवा में चयन तक आँखों के सामने तैरने लगते थे।
अतिशय महत्वाकांक्षा व्यक्ति को हर वो गलत कार्य करने पर मजबूर कर देता है जो वो कभी सोचा नही होता।
जब कभी रात को नींद उचट जाती थी वों छोटे बक्सियाँ से कुछ पुराने कपड़े निकालता और देर तक सीने से लगाये रखता। ये कपड़े उसको प्रेरणा देते रहते थे।
ये कपड़े उसे मॉ ने किश्तों में खरीद कर दिये थे जब वह दसवीं कक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था। बहुत ही खुश थी मॉ उस दिन। सिर्फ यही एक ही कपड़ा था उसके पास। गंदे होने पर रात को धो देता था। दिन में तभी पहनता जब स्कूल जाना होता था, बाकि समय गमछा। रात को सलीके से मोड़ कर तकिये के नीचे दबा देता था।
सफेद पायजामा व हरे रंग की कमीज थी। यही एक ऐसी थाती थी जों मॉ व संघर्ष के दिनों की याद दिलाती थी। जरूरी नही तपस्या पहाड़ पर ही हो... धरातल कम नही मोक्ष के लियें....
मॉ के लिये एकमात्र सहारा मै ही तो था। मै घोर गर्मी में अथक पढ़ सकूँ..मॉ रात भर बेनी (हाथ की बनी पंखी) हिलाती रहती थी। नींद आने पर जब अपने हाथों से मेरे मुँह पर गीले हाथों से सहलातीं... मेरा मन उनके ठोस हाथ पड़ते ही उद्विग्न हो उठता था... दिन भर बच्चों के बैग काँधे व हाथों पर रहता था... रो पड़ता था...ईश्वर संघर्ष के दिनों में ईमान भी कूट कूट कर डाल देता है पर आज ईमान धन तले रौंद दिया था मैने...जब तक कुछ समझ आता बहुत देर हो चुका था।
पिता के गुजर जाने के बाद शहर अपने चाचा के यहॉ कुछ महीने रह पाया था। चाचा-चाची की प्रतिदिन किचकिच होती थी। एक दिन मेरे स्कूल से आते ही मॉ ने कहा था,
"बेटा!!! आज शाम को पास के धर्मशाला में रहने के लिये चलते है.."
मैने बोला था...
"ठीक है मॉ.. पर ऐसा क्यूँ????""""
मेरी मॉ गंभीर व्यक्तित्व की थी। मॉ कुछ भी नही बोली थी। मौन थी। मैने मॉ की आँखों में देखा था। आँसू शायद अंदर की ओर बह रहे थे पर मुझे वों कमजोर नही करना चाहती थी.....
धर्मशाला के सामने बाजार था। दिन भर शोर रहता था। धर्मशाला से लगा हुआ बड़ा सा चबूतरा था। कोने में मेरा नया ठीकाना हुआ.. धर्मशाला के स्वामी जी ने अनुमति दे दी थी चबूतरें पर कपड़ों के टेंटनुमा बना कर रहने के लिये।
अब सिर्फ मॉ और मै दो ही लोंग थे।
रात में टेंट से कपड़ों को हटा देता था ताकिं सड़क पर लगे ट्यूबलाईट की रोशनी से पढ़ सकूँ।
शाम को बाजार की शोर की वजह से मॉ सुला देती थी जिससे रात में मै पढ़ सकूँ। माँ की त्याग की कहानियाँ ऐसे ही नही लिये जाते रहे... मैने तो गवाह था....मेरी मॉ ऐसी ही थी जो उसी जीवटता से मुझे पाल रही थी..
पूरे मोहल्लें में सब खुश थे...
"फुलादेई क लईकवा आई ए एस बन ग"
हर शख्स बधाई दे रहा था.... मेरे जीवन में नया सवेरा हुआ था।
मॉ और मै साथ ही रहे.... हर पेड़ वक्त के साथ ढह जाता है... मुझे भी छाया मिलना बंद हो गया था। उस दिन लगा था मै अनाथ हो गया था।
बाढ़ जब आती है वह रास्ता भूल जाती है... मुझे भी हवा ऐसी लग गयी थी जमाने की। मै धनलोलूपता की बाढ़ में बह गया था और मॉ के दिखायें रास्तें से भटक गया था..
तभी कैदी किशन की आवाज ने तंद्रा भंग कर दी जैसे मेरी नींद टूट गयी हों....
हर दिन की तरह पाकशाला में नाश्ता बनाने की ड्यूटी में जुटा रहा।
@व्याकुल
बात वर्ष 2014 की होगी, जब मैं शोध के सिलसिले में टीकमगढ़ अपने मित्र डॉ उमेश जी के साथ जा रहा था। डॉ उमेश बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन विभाग में सहायक आचार्य हैं। बहुत ही सौम्य व मेहनती है। वें सभी की मदद के लिए हमेशा ही तत्पर रहते हैं। शोध छात्र के रूप में डाटा संग्रहण का कार्य बुंदेलखंड के सभी जिलों में होना था। स्वाभाविक ही था डाटा संग्रहण का कार्य टीकमगढ़, झाँसी व दतिया जिलों में डॉ उमेश जी के साथ ही होना था। मैं और डॉ उमेश जी टीकमगढ़ के लिए चल निकले थे।
टीकमगढ़ पहुंचने से पहले रास्ते में ओरक्षा नामक जगह पर बाँए तरफ ताराग्राम जैसा बोर्ड दिखा। यह हम लोगों के लिए बड़ा ही कौतूहल का विषय था की चलकर देखा जाए। दोनों लोग अंदर गए। संयोग से वहाँ एक महिला अधिकारी मिली जो दिल्ली से आई हुई थी। उन्होंने बहुत ही विस्तार में सामुदायिक रेडियो की चर्चा हम लोगों से की थी।
सामुदायिक रेडियो जैसा विषय मैंने तो पहली बार सुना था । उन्होंने चर्चा के दौरान इसके पीछे एक एनजीओ का नाम भी लिया उस एनजीओ का नाम था डेवलपमेंट अल्टरनेटिव्स (Delelopment Alternative)।
वहाँ ताराग्राम में अधिकारियों-कर्मचारियों का त्याग व समर्पण देखते ही बन रहा था। उन लोगों ने बारीकी से हर एक पहलुओं व कार्य पद्धति की चर्चा की थी। मेरे मित्र चूँकि मास कम्युनिकेशन के आचार्य थे वह हर एक चीज को समझ ले रहे थे पर मेरे लिए एकदम नई जानकारी थी।
हम लोगों से चर्चा हो ही रही थी तभी दोपहर एक बजे बुंदेली लोकगीत का कार्यक्रम शुरू हो गया। जहाँ वर्तमान् में हम अपनी संस्कृति, अपनी लोकगीत, अपनी बोली, अपनी भाषा से विमुख होते जा रहे हैं वहाँ इस प्रकार का कार्य निःसंदेह ही स्थानीय संस्कृतियों को संरक्षित कर आगे ले जाने का कार्य करेगा।
ऐसे एनजीओ की भूरी भूरी प्रशंसा की जानी चाहिए जों संस्कृतियों को बचाने का कार्य कर रही है। उनकी रिकॉर्डिंग पद्धति व उनका वहाँ के स्थानीय जनता से भावनात्मक लगाव आश्चर्यचकित कर देने वाला था।
हम सभी ने "कोस-कोस पर पानी चार कोस पर बानी" तो सुन ही रखी है। बहुत सी जनजातियों की संस्कृति, बहुत सी स्थानीय संस्कृति, स्थानीय विशेषताओं का लोप होता जा रहा है। ऐसे में तारा ग्राम से सीख लेते हुए सरकार को देशज ज्ञान पर कार्य करना चाहिए जिससे आने वाली पीढ़ियों को हम अपनी सुदृढ़ता से अवगत करा सकें।
@व्याकुल
आजकल के युवा पीढ़ी को देखता हूँ तो लगता है किं जैसे उन्होंने प्राचीन परंपरा को आगे बढ़ाने का जिम्मा ले रखा हों। बड़ी-बड़ी मूछें देख कर अहसास होता है महाराणा प्रताप की भी मूछें ऐसी ही रही होंगी।
जिन लोगों ने मूंछें बढ़ा रखी है उनको देखकर ऐसा लगता है जैसे उन्होंने हल्की-फुल्की जिम्मेदारी ले रखी हो। मूछें रखना कोई आसान काम नहीं है। शीशे के सामने प्रतिदिन सेट करना एक महत्वपूर्ण दिनचर्या है।
हम लोग तो नब्बें के दशक में युवा हुए थे। समाज फैशन फिल्मी दुनिया से सीखता है, हमारे जमाने से मूछों का युग खत्म हुआ था। सलमान-शाहरुख अामिर का पदार्पण हो चुका था, मुछमुंड थे सब। क्या करते हम लोगों को मुछमुंड होना ही था। मेरी तो जैसे इज्जत ही बच गई हो विरल मूछों से कैसे अपनी साख बनाता, सघन होने का नाम ही नहीं ले रही थी। खेतों को आप देख लीजिए विरल खेत उतने आनंददायक नहीं होते जितने की सघन फसल।
अच्छा था अस्सी के दशक में युवा नहीं हुए नही तो अमिताभ बच्चन जी के डॉयलाग पक्का तंग करते, "मूछें हो तो नत्थू लाल जैसी वरना ना हो"
जैकी श्रॉफ अनिल कपूर जैसे लोग तो सघन मूछों की प्रेरणा दे रहे हो। बच गया था मैं बाल-बाल।
हमारे गांव वाले चच्चा तो आज भी मूछें रखें है। जब तक वों थोड़ा सा भी नही हँसते है तब तक हम सभी को गम्भीर रहना पड़ता हैं।
हमारे एक भांजे दाढ़ी मूँछ से बड़े प्रभावित रहते थे। अपने कॉलेज में दाढ़ी-मूँछ वाले प्रोफ़ेसर को गुरु मान लिए थे। गुरु के अगर मूँछ के साथ ढाढ़ी भी हो तो विद्यार्थियों पर अलग ही विद्वता का छाप छोड़ देते हैं। ऊपर से वक्ता हुए और ज्ञानी हुए तो आजन्म महिमा बनी रहती है। भांजे महाराज का भ्रम छः माह बाद ही टूट गया था, जब उन्हें पता लगा किं मूंछ ढाढ़ी वाले गुरुजी पढ़ाई छोड़ हर विधा में विद्वान है।
मुंशी प्रेमचंद जी (आज जयंती भी है) की मूछें हो या चार्ली चैप्लिन जी की मूछें.... एक अलग ही दुनिया में ले जाती हैं। जैसे दोनों ने समाज से अलग हटकर कुछ करने की ठान ली हो, दोनों ही लीक से हटकर मूछों का पोषण कर रहे थे।
वैसे मुझे गोविंद वल्लभ पंत की मूछें भाती थी जैसे हँस रही हो।
गाँव में कुछ लोगों की मूछें मट्ठा पीते समय डूब जाया करती थी। पक्का ही वों मस्त हो जाया करती होंगी। दो मिलीमीटर मूछों का मट्ठा में भीगना एक अलग ही शोभा बनाता था।
मूछों का दाढ़ी से मिलन भी किसी किसी विराट पुल से कम नहीं। फ्रेंच कट में कम से कम ऐसा ही बोध होता है।
भारत में मूंछों का नीचे होना बहुत ही अशोभनीय माना जाता है। मूंछों को अनवरत ऊपर ही होना चाहिए। मूंछों से सम्मान का बड़ा ही गहरा संबंध है। जितनी बड़ी हैसियत उतनी ही नूकीली व बड़ी मूछें। अगर आप माफिया बनने जा रहे हैं तो मूछें रखने का शौक पालना ही होगा।
मूंछ बेचारा बहुत ही संभल कर चलता है क्योंकि थोड़ा सा संतुलन इसका बिगड़ा तो इंसानों की शान मानों गयी। लड़ाई भी मूछों की ही होती है... लखनऊ के एक नवाब ऐसे मुकदमे की पैरवी कर रहे थे जिसमे तारीख व आने जाने का खर्च मुद्दें के खर्च से कही ज्यादा था पर बात मूंछो की थी...
अच्छा था मैने मूंछो को अपने से अलग ही रखा...
@व्याकुल
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...