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गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

उपभोक्तावादी संस्कृति

विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान कभी-कभी चर्चा का विषय सुष्मिता व ऐश्वर्या रहती थी। कई तरह के तर्क सुनने को मिल जाया करते थे। आखिर इन भारतीय सुन्दरियों में क्या खूबी रही जो इनको विश्व स्तर पर पहचान दिला रहा था। ये दोनो 1994 में विश्व सुन्दरियां चुनी गयी थी। भारत भी आर्थिक उदारीकरण के दौर से गुजर रहा था जिसकी शुरुआत 1991 से हो चुकी थी। ये समझने में समय लग रहा था कि आखिर भारतीय बालायें सुन्दर हो रही थी या उपभोक्तावादी संस्कृति की नींव पड़ रही थी। समय के साथ समझने में देर नही लगी कि ये सौन्दर्य प्रशाधन के प्रोत्साहन का भी परिणाम हो सकता है व बाकी लड़कियों के लिये ऐसे प्रोडक्ट का प्रयोग करने हेतु उत्साहवर्धन का भी कार्य कर सकता है जो दिखावे की संस्कृति व भोग की संस्कृति की ओर समाज को ले जाने वाला है।

हरनाज संधु का 2021 में मिस युनिवर्स चुना जाना निःसंदेह 1994 के दौर में जाने- अनजाने में ले गया। दुनिया में महिलाओं की कुल आबादी 387 करोड़ है, जिसमें से 15% महिलाएं युवा हैं। जिनमें 18% भारतीय महिलायें है। अब इससे बड़ा बाजार कहाँ मिलेगा?????

@व्याकुल

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

धूमिल गलियाँ

पुरानी गलियों या मोहल्लों में जाने पर नजरे कुछ-कुछ झुक जाती है। 45 डिग्री का कोण बना लेती है। निशान ढूंढ़ने लगती है। कुछ तो मिले। सड़क किनारे के चबूतरे ही मिले जहाँ कभी स्कूल से आते बैठकर थकान मिटाते थे। आइसक्रीम वही तो बैठकर खत्म होती थी। घर आकर सिर्फ नाटक करना होता था बहुत तेज भूख लगने की। उसी चबूतरे पर किसी बुजुर्ग को सुबह चाय को अखबार के साथ सिप करते हुये भी देखना सुखद होता था। अब तो शायद ही किसी मोहल्ले में 75 वर्ष से ऊपर के 10 बुजुर्ग मिल जायें नजरे बोझिल हो उठती है जब उसे कुछ नही मिलता। आँखे मला जाता है फिर से नजरों को साफ करने के लिये। याद आता है ये तो वही चबूतरा है जहाँ हीरो फिल्म की कहानी खत्म हुई थी। शोले फिल्म की कहानी तो हनु ने इसी चबूतरे पर किश्तो में सुनाई थी। 


भूले से कोई शख्स मिल ही जाये अगर तो जैसे हीरा मिल गया हो। हर बाते होने लगती है। हर शख्स मेें बचपन अपनी परछाई ढूढ़ता है। बुढ़ापे ने तो जैसे खुदखुशी कर रखी हो। सेतू ही न रहेगा तो पीढ़ियाँ जुड़ेंगी कैसे.....

सदियों का सफर दिनों में कैसे कट जाता है। कुछ निशानी तो हो जिसे लपेट लूँ.... कुछ वर्ष पहले पिताजी कोलकाता गये थे.. नीरसता ही हाथ लगी थी.. इंसान तो क्षणिक है भूगोल तो नही.. फ्लाईओवर से कैसे तलाशेंगे जमीं की हकीकत.... नजरे धोखा खाती रही...

डलिया पर मकोई रखे रामू काका ही दिख जाते जिसे खाते ही एक बार मूर्छा आ गयी थी या स्कूल के साईकिल स्टैंड पर बनवारी जिन्होंने कत्था खाते देखते ही बोला था, " गया मर्द जो खाये खटाई"

गलियाँ बड़ी हुआ करती थी... "बोनतड़ी" अब कैसे खेलेंगे....बाहर गाड़ियों ने अड्डा जमा लिया... गलियों के किनारे खड़े पुराने मूक मकान असीम सुख दे जाते है अब जैसे कह रहे हो तुम्हारे नाली से निकले गेंदो के निशानों को मैने अब तक संभाल रखा है.....

@व्याकुल

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

जाल

सदियों

की शोषित

परम्परा

जाल का 

खेल

कौन 

नही बुनता..


और

शिकारी

टकटकी

लगाये रहता

फिर 

मादकता 

से

चमक उठता

मांसल से

देह का..

@व्याकुल

बुधवार, 17 नवंबर 2021

बिग बॉस

शिल्पा शेट्टी पर हुये बवाल के बाद हिन्दुस्तान में बिग ब्रदर जैसे किसी कार्यक्रम की जानकारी आमजन को हुई थी। तब इस तरह के कार्यक्रम विदेशों तक ही सीमित थे। 'बिग बॉस' 'बिग ब्रदर' का भारतीय वर्ज़न है. वहीं 'बिग ब्रदर' में ही एक्ट्रेस शिल्पा शेट्टी को 2007 में रंगभेद का सामना करना पड़ा था। इसका प्रचार प्रसार विश्व के 42 देशों तक फैल चुका है।

2007 में बिग बॉस ने भारत में शुरुआत की। अब ये घर-घर तक घुसपैठ कर चुका है। साल के तीन महीने सब समीक्षा में लग जाते है। कौन कैसा खेल रहा... किसके जीतने की सम्भावनाये है..कौन फाईनलिस्ट होगा.. इत्यादि इत्यादि।

अच्छे खासे पढ़े- लिखे लोगों के रिव्यु करते दिख जायेंगे.. अगर आपकी प्रवृत्ति ताक-झाँक की है तो ये कार्यक्रम निश्चित रूप से पसंद आयेगी जैसे- कौन किसके साथ फ्लर्ट कर रहा... कौन कैसी चुगली कर रहा... कौन नारद की भूमिका में है... कौन शब्दों से पलटी मार रहा.... सामान्य जीवन में ये सब प्रत्यक्ष रूप से देख नही पाते है। यहॉ ये सब कैमरा दिखा देता है।

प्रपंच न हो तो जीवन कैसा- मसाला भरा न हो जीवन में तो जीवन कैसा- प्रपंच ऐसा कि सब दिख रहा पर जैसा जीवन जी आये उससे मुक्ति कैसे हो। प्रवाह में बह ही जाना है...अहं बहता है गाली-गलौज व अपशब्दों में। दर्शक आँखे फाड़ कर खिखियाता है और बच्चों में नये संस्कारों का इंजेक्शन धीरे से घुसपैठ बना लेती है....

@व्याकुल

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

ज्येष्ठाश्रमी

"दूध का उबलना" एक सटीक बहाना होता था पत्नी को शहर अपने साथ ले जाने के लियें। कुछ लोंग हाथ जला लेते थे। मॉ-बाप पत्नी को साथ ले जाने की अनुमति दे ही देते थे किं ये समझते हुये कि ये बहाना बना रहा। 

कुछ तो मुँह ऐसा बना कर घर आते थे जैसे सालों से खाना न खाया हो। ये संकेत होता था लड़का व्याकुल है बाहर साथ ले जाने को।

मूलतः ये समस्या संयुक्त परिवार में ज्यादा होता था। बड़े-बुजुर्गो को भी डर लगा रहता था कहीं बच्चें बाहर जाकर बिगड़ न जायें। पाबंदी होती थी पर अभिनय में सफल में हो गये तो समझिये काम बन गया।

मेरे साथ तो सही में एक घटना हो गयी थी। पत्नी प्रयागराज थी। सुबह दूध गर्म करने को रखा था। अॉफिस निकलने के समय तक याद ही नही रहा। दूध, भगोने सब जलने लगे। मकान मालिक क्या करते बेचारे???तब मोबाइल फोन का चलन भी नही था। टेलीफोन डायरेक्टरी में एच. बी. टी. यू. का नं. खोजा गया। मेरे डायरेक्टर का फोन मिला। उनके पी. ए. को फोन पर सूचना मिला। मुझे व्यंगात्मक लहजे में बताया गया, "क्या गुरु, कहाँ भगोना जला रखे हो" मुझे मामला समझ आ गया। तुरंत घर आया। धुँयें से घर भर गया था।

तभी से लापरवाही का ठप्पा लग गया था। किचेन कार्य से मुक्ति भी मिल गयी थी।

खैर!!!! आप सभी ऐसा जोखिम न लीजियेगा....

@व्याकुल

बुधवार, 10 नवंबर 2021

अलगौझी

भैया बम्बई जबसे कमाने गये, भाभी के तो जैसे पंख लग गये। भैया गॉव छोड़कर कही नही जाना चाहते थे। वे खुश थे अपने बाप-दादाओं की जमीन पर। स्वाभिमान की रोटी खाना उन्हे पसंद था। कहते थे जितनी मेहनत हम दूसरों के लिये करेंगे उतना मेहनत अपने गॉव में रहकर करना पसंद करेंगे। 

भैया दर्शन शास्त्र से परास्नातक थे। विश्वविद्यालय स्तर पर गोल्ड मेडलिस्ट थे। पढ़ाई के बाद गॉव का मोह उन्हे खींच लाया था। 

भाभी को बहुत परेशानी थी। कहती रहती निठल्ले जैसे पड़े रहते हो। मेरे पिता ने किसी निठल्ले से शादी नही की थी। दिन भर ताना मारा करती थी।

अपने दोस्त सुरेश को देखिये। मुम्बई में बच्चे साफ-सुथरे कपड़े पहनते है। बाहर खाना खाते है और आप यही कथरी ढोते रहिये।

भैया मजबूत इच्छा शक्ति वाले थे। कोई फर्क नही पड़ता था उन्हे।पढ़ाई  के दौरान प्रो. रामकृष्ण ने कई बार उनसे कहा भी था, "निखिल बेटा, पी. एच. डी. भी कर लो।" पर निखिल कुछ और ही सोचे बैठा था।

आज सुबह से ही भाभी घर सर पर उठा रखी थी। बर्तनों को पटकने का दौर जारी थी। जिद्द पकड़ ली थी बाहर कमाने के लिये। बोली,  "मै इतने लोगों का खाना नही बना सकती।" भाभी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। डर के मारे पिता कुछ नही बोले थे। भैया बेचारे क्या करते!!!!!

अगली सुबह ही भैया बैग लटकाये बम्बईया ट्रेन से मुम्बई चले गये थे। भाभी के खुशी का ठीकाना नही था। सुरेश की पत्नी जैसा जीवन जीने का मौका मिलेगा उसे। 

निखिल भैया के मुम्बई जाने के बाद भाभी का जो मन होता वही करती।


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निखिल के मुम्बई जाने के बाद से ही पिता घर की कलह सह न पाने की वजह से चल बसे थे। छोटा भाई अखिल पर जैसे दुःखों का अम्बार टूट पड़ा था। भाभी भैया के एक-एक पैसे का हिसाब रखने लगी थी। पिता के जाने के बाद सारे परिवार की जिम्मेदारी अखिल पर आ गयी थी। भैया का परिवार से कोई मतलब नही रह गया था। 

अखिल सुबह 3 बजे उठ कर चौराहे पर पहुंच जाता था जिससे अखबार की फेरी लगा सके। उससे सबसे ज्यादा चिन्ता छोटी बहन के ब्याह की थी।

अखिल सेठ के घर दरवानी (चौकीदारी) की नौकरी करने लगा था। जब मौका मिलता कुछ न कुछ पढ़ता रहता। प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता। 

बहन-मॉ का कष्ट देखा नही जाता था अखिल को। जो मेहनत करके कर सकता था करता रहता। निखिल भैया या भाभी से कुछ कह नही सकता था। 

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भैया को मुम्बई से आये चार दिन हो चुके थे। आज तक बात करने को किसी को मौका नही मिला था। भाभी बात करने का मौका ही नही देती थी। निखिल भैया भाभी के सामने आत्मसमर्पण कर चुके थे।मजाल है कोई बात कर ले। 

आज सुबह फेरी लगाकर आने के बाद से ही भैया मॉ के पास बैठे थे। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। पर थोड़ी देर बाद मॉ के सुबकने की आवाज सुनाई दे रही थी। 

भैया कठोर हो चले थे। थोड़ा बहुत आवाज जो सुनाई पड़ रही थी। कह रहे थे, "अब अलगौझी (बँटवारा) हो जाना चाहिये"

मै हतप्रभ था। घर बँटा नही था पर मानसिक तौर पर दूरी तो पिता के अवसान के बाद से ही बन गया था। भैया अगर न भी कहते अलग होने को तो भी दिल के टुकड़े तो बहुत पहले ही हो गया था। ये घोषणा की क्या जरूरत थी।

आज सुबह से ही सारे घर में शांति थी। सारे घर के सदस्य उदास लेटे हुये थे। बीच-बीच में भाभी के चहकने की आवाज शूल जैसा चुभ जाता था।

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आज अखिल का चयन बैंक में हो गया था। खुशियाँ किससे बाँटता। खुशियाँ भी अलगौझी का शिकार हो गया था। भैया सुबह से दिख नही रहे थे। पैर छू कर आशीर्वाद लेता पर उनके कमरा का ताला लटका मिला। पड़ोसियों ने बताया था भाभी-भैया मुम्बई चले गये। खुशियाँ बार-बार आँखों पर आँसु बन टपक जाता। 

पिता बारम्बार याद आ रहे थे। 

मन रो पड़ा था। 

हाय रे अलगौझी!!!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 7 नवंबर 2021

नमकीन फिल्म

कई दिनों से फेसबुक के वीडियों सेक्शन में एक फिल्म के क्लिप दिख रहे थे। संजीव कुमार के अभिनय का शुरू से ही कायल रहा हूँ। फिल्म का नाम था - "नमकीन"

रात 11 बजे मूड बना कि ये फिल्म देखी जाये। 2 घंटे 9 मिनट की फिल्म रात 1 बजे तक देखी गयी। 

एक बेहतरीन फिल्म। शबाना आजमी की एक्टिंग गजब की है। आधी फिल्म तक पता ही नही चला वों गूँगी है। जब हीरो को बताया गया तभी पता चला। वैसे भारत में दूरदर्शन की क्रांति 1984 में आयी थी। तभी ज्यादातर पुरानी फिल्में देखी थी। ये फिल्म 1982 की है। शायद तब नयी होने की वजह से दूरदर्शन पर न दिखायी गयी हों। वहीदा हो या शर्मीला.. सभी बेहतरीन अभिनय करते दिखे। 

हर उन छोटी-छोटी चीजों को दिखाना जो हम अपने प्रतिदिन के जीवन में करते है फिल्म की यही विशेष खाशियत है जैसे- बिजली का स्विच अनजाने में ऑन कर देना जबकि पता है बिजली का कनेक्शन ही नही है या खाते वक्त खुले व खाली टिफिन को संभाले रखना।

मजबूरी व्यक्ति की दशा और दिशा दोनो बदल देता है। आशा की किरण थोड़ी दिखायी दी थी पर हीरो के घर छोड़कर चले जाने से रही सही कसर जाती रही। गरीबी व असहाय से दुःखी व्यक्ति को जो करना था वही किया। एक का प्राणांत व दूसरी का नौटंकी में काम।

अब इंतेजार है दूसरे फिल्मी क्लिप का....

@व्याकुल

ओरहन

वैसे ऐसा कभी कोई काम नही किया जिसमे कभी किसी ने मेरी ओरहन (शिकायत) की हो। बचपन में एक गुस्ताखी की थी वों भी एक भईया ने कहलवाया था। 

छत पर बैठा हुआ था। थोड़ी दूर के छत पर टहलते हुये एक सज्जन डी. एम. कहने से चिढ़ते थे। मै चिल्ला कर बोला था "डी. एम."

मुझे देख तो नही पाये थे पर समझ गये थे इसी मकान से किसी ने संबोधन किया है। तुरंत ही घर आये। बड़ो से शिकायत की। घर के सब बच्चों को बुलाकर डांट लगाया गया।

कुछ दिनों बाद किसी ने बताया किं "देहाती मग्घा" का संक्षिप्त रूप है "डी. एम."

उनके चिढ़ने की शुरूआत कैसे हुई- ये पता नही चला। 

फिलहाल अब वों हमारे बीच नही है। नमन उनकों।

@व्याकुल

बुधवार, 3 नवंबर 2021

दीपावली


घटनायें कभी-कभी बड़ी सीख दे जाती है। अनुभवहीनता भी घटनाओं को जन्म देता है। दिवाली के दिन की घटना है। मै ममेरे भाई, जो मुझसे 3-4 वर्ष छोट होंगे, के साथ रॉकेट छुड़ाने जा रहा था। तब मै 8-10 वर्ष का रहा था और वह 6-7 वर्ष का। गोल-मटोल था वह। भैया, ये रॉकेट छुड़ा दीजिये। हम लोगो ने खाली बोतल का इंतजाम किया। छत पर कोई और नही था। रॉकेट को बोतल में डालकर माचिस लगाई। मेरे तो जान निकल गयी थी। रॉकेट के दिशा को देखा ही नही था। वो उसके बाल को छूते निकल गयी थी। मेरे हाथ-पाँव सूज गये थे। बहुत दिन तक परेशान था कि अगर वह रॉकेट उसके चेहरे से टकरा जाता तो क्या होता??? और वो हँसते मुस्कुराते चला गया था किं मैने रॉकेट छुड़ाया। उसे शायद आभास ही नही था कि एक बड़ी दुर्घटना से वो बच गया था। 

आज तक कभी किसी से शेयर करने से डरता रहा। बच्चों को जब भी पटाखे दें साथ जरूर बैठे। थोड़ी चूक जिन्दगी भर की मुसीबत बन सकती है। उस घटना के बाद जब भी पटाखे छुड़ाने जाता पूरी सुरक्षा का ध्यान रहता।

कोई ऐसी दिवाली नही जब मैने उस घटना को याद न किया हो। मजे की बात आज वो भाई इंजीनियर है और अमेरिका मेट्रो में अपनी सेवायें दे रहा।

@व्याकुल

रविवार, 31 अक्टूबर 2021

एकता


सारे मोहल्ले में कोहराम मचा हुआ था धूँ धूँ कर घर जल रहे थे। दंगाई लूट में लगे हुए थे। उन्हें लग रहा था कितना ही सामान लूट ले। कुछ सामानों को जलाने में लगे हुए थे, कुछ और भी गिरी हुई हरकतें कर रहे थे। 

मेरा घर मोड़ पर था। एक महिला अपने दो जवान बेटियों को लेकर भागी थी। मेरा घर मोड़ पर होने की वजह से जैसे ही वो सब दंगाइयों की आंखों से ओझल हुई बड़ी तेजी से उन लोंगो ने मेरा घर का दरवाजा खटखटाया था। मेरी माँ ने तुरंत ही गेट खोल कर उन माँ बेटियों को घर के अंदर सुरक्षित कर लिया था। वो सब बुरी तरह से डरी हुई थी। दंगाई जैसे ही मोड़ पर मेरे घर पर पहुंचे उनको ये लोग नहीं दिखे।

हताश दंगाइयों को जब कोई नही दिखा वो सब लौट चुके थे।

अब बड़ी समस्या थी उनको उनके स्थान तक पहुँचाना। मेरी माँ ने उस महिला से पूछा था 

"आपको कहाँ पहुंचा दिया जाए" 

उस महिला ने बड़े ही मासूमियत से जवाब दिया था पास के ही पूजा स्थल तक छुड़वा दीजिए। 

माँ बड़ी ही दयालु थी उन्होंने मुझे आदेश दिया था "बेटा, गंतव्य स्थल तक पहुंचा दो।"

मैंने भद्र महिला, जो शायद विधवा थी, को उनके पूजा स्थल तक पहुंचाया। उनकी आँखों में आंसू था। शायद उन्हें अपनी जान से ज्यादा परवाह अपने बेटियों की इज्जत की थी।

मानवीय दृष्टिकोण से ही एकता का रास्ता जाता है। धर्म की कट्टरता मानव का सबसे बड़ा दुश्मन है सही धर्म कभी भी मानवता को चोट नहीं पहुंचा सकती।

मेरी आयु तब 12-13 वर्ष की रही होगी। लेकिन उस दिन की घटना आज भी मेरे मन में तैरती रहती है। मन में सिहरन सी मच जाती है ये सोचकर किं वों पुत्रियाँ अगर दंगाइयों के हाथ लग जाते।

दंगाइयों का उपद्रव तभी शांत हुआ जब सेना ने फ्लैग मार्च किया लेकिन तब तक बहुत ही नुकसान हो चुका था।

उसके बाद फिर शायद ही कभी दिखे हो वो सब। एकता दिवस में जेहन में ये पुरानी घटना उतर आयी।

मर्यादा और सम्मान ही इंसानों को एकता का पाठ पढ़ा सकती है।

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...