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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

पतंग

शनिवार का दिन खूबसूरत होता था। स्कूल में हॉफ डे। दिन-दोपहर घर आते ही सीधे छत पर, फिर पतंगबाजी। ज्यादा छोटा था तब लटाई पकड़ने का काम रहता था। चौआ करना तभी सीखा था। मोहल्लें के नब्बे मीयाँ की दूकान में सद्दी.. मँझा व छोटी-बड़ी पतंगे मिल जाया करती थी। नब्बे मियाँ के यहाँ कंचे से लेकर हमारे काम के सब कुछ मिल जाया करता था। गिन्नी देना एक कला होता था। मोहल्ले के एक सरदार जी थे वो अपने घर में रखी बड़ी पतंग दिखाया करते थे। बताते थे कि पंजाब में ऐसी ही बड़ी बड़ी पतंगे लोग उड़ाते है। हम बच्चों के लिये कौतूहलता रहती थी। डी. ए. वी कॉलेज के मैदान में पतंगबाजी की प्रतियोगिता भी होती थी। मुझे एकाध पतंगबाज का नाम जो याद आ रहे है वो नाम है तूफानी। और भी कई पतंगबाज़ थे पर समय के साथ नाम भूल रहा हूँ। ये सब पतंगबाज हम लोगों के लिये किसी सुनील गावास्कर से कम नही थे।



कभी-कभी सद्दी को माँझा बनाने की नाकामयाब कोशिश भी होती थी। बैटरी की कालिख में काँच को पीस मिला लेते थे। उसमें सद्दी को मिलाकर माँझा बनाने का प्रयास करते थे।

पतंग उड़ाने के प्रशिक्षण की शुरूआत कन्ना बाँधने से होता था। पतंग लूटना भी एक कला होता था। गली-कूचों की भीड़ से निकलना व पतंग लूटने के लिये एकाग्रचित्त बनाये रखना माहिराना अंदाज होता था। मेरे एक ममेरे भाई पतंग लूटने में गच्चा खा गये थे। छत से गिर गये थे। मै भी वही था। मार पड़ी थी।

खिचड़ी.. बसंत पंचमी... पतंगबाज़ो के लिये उत्सव का दिन होता था....अब सिर्फ आकाश में निगाहें उन पतंगो को खोजती है...तब तो दिन में भी चाँदकट या तिरंगा पतंगे आकाश में दिख जाया करती थी।

@व्याकुल

शनिवार, 8 जनवरी 2022

हिमालय

 


बनना तो 

चोटी

हिमालय

श्रृंग सा...


 पिघल 

भी 

जाना  

तृप्त 

करने को...


करके 

आत्मसात 

छोटे 

नीर को...


इठला 

कर 

भटक 

न जाना

राह में...


भर 

आना 

झोली 

हाथ फैलाए

इंसानों की...


दाता 

बनना 

या 

समाये 

रखना 

बीज 

प्रकृति का....


इतना 

ही 

करना 

हिमालय सा 

अटल 

बने रहना...


@व्याकुल

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

कथरी

घुटने को माथे तक सिकोड़ ली

गरीब की कथरी जब पैरो से सरक गयी...

आँसु बेसुध से बह गये

रोटी की भूख से जब पड़ोसी तड़प गये...

माथे की लकीरे बयाँ कर गयी

खेत की बेहन जब दगा कर गयी...

फंदा तलाशता रहा रात भर

वो भी मुझसे दगा कर गयी...

नजरे चुरा फिरता रहा 'व्याकुल'

खेत रेहन से जो उलझ गयी...

@व्याकुल

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

महामना अटल से

अटल दोनो थे

महामना भी..

मालवा की

निशानी भी..

नक्षत्र एक थे

बँटे हुये काल के..

मानक थे

उन विधाओं के..

शिक्षा को 

नभ सा

विस्तार देते..

या

नव आयाम

देते

क्षुद्र होती 

राजनीति

ऊठा-पटक कों..

नमन उन

धीर नमना को..

करू प्रणाम

अटल युक्त

महामना

व 

महामना सा

अटल को...


@व्याकुल


शनिवार, 18 दिसंबर 2021

शादी की उम्र

38 वर्ष(1891 से 1929) लगे 12 से 14 वर्ष होने में... 20 वर्ष (1929 से 1949) लगे 15 वर्ष होने में... सिर्फ छः वर्ष यानि 1955 में 18 वर्ष की गयी... 66 वर्ष लग गये 21 होने में... भारतीय समाज में पहले बच्चों की संख्या ज्यादा होने से शादी पर विशेष फोकस होता था जिससे माँ-बाप जल्दी उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाये.. अधिकतर लड़कियाँ प्राथमिक तक ही सीमित हो जाती थी... इसलिये शादी की उम्र सरकार क्या निर्धारण कर रही.. कोई ध्यान नही देता था। दक्षिण भारत का नही पता पर उत्तर भारत में 30-35 वर्ष पहले तक लड़कियाँ 18 वर्ष से पहले तक व्याह दी जाती थी।शिक्षा का प्रसार व ललक बढ़ने के साथ ही घर से बाहर लड़कियों के निकलने की शुरुआत हुई। प्रेम विवाह के ही समय न्यूनतम  देखा जाने लगा किं कैसे विवाह को अवैध घोषित किया जायें। अब 21 वर्ष होने से इस उम्र से पहले तक प्रेम विवाह करने वालों पर आफत आयेगी। न्यूनतम उम्र बढ़ने का पता नही समाज में इसका क्या असर होगा...कुछ कह पाना मुश्किल होगा...वैसे अमेरिका, फ्रांस व जर्मनी में न्यूनतम आयु 18 वर्ष है जबकि ब्रिटेन जैसे देश में 16 वर्ष। इन विकसित देशों में इतनी कम आयु (खासकर ब्रिटेन में) होने का मतलब वहाँ कम आयु मेें ही बच्चों का परिपक्वता प्राप्त कर लेना ही दर्शाता है। अच्छी बात ये है कि लड़का या लड़की की न्यूनतम आयु में जेंडर आधारित कोई भेदभाव नही किया गया है।बहुत से एशियाई देशों में आज भी जेंडर के आधार पर आयु में विभिन्नताएं मिल जायेंगी।  खैर इससे संबंधित समिति ने 16 विश्वविद्यालय के छात्रों से प्राप्त फीडबैक के आधार पर अपनी संस्तुति दी थी।

@व्याकुल

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

उपभोक्तावादी संस्कृति

विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान कभी-कभी चर्चा का विषय सुष्मिता व ऐश्वर्या रहती थी। कई तरह के तर्क सुनने को मिल जाया करते थे। आखिर इन भारतीय सुन्दरियों में क्या खूबी रही जो इनको विश्व स्तर पर पहचान दिला रहा था। ये दोनो 1994 में विश्व सुन्दरियां चुनी गयी थी। भारत भी आर्थिक उदारीकरण के दौर से गुजर रहा था जिसकी शुरुआत 1991 से हो चुकी थी। ये समझने में समय लग रहा था कि आखिर भारतीय बालायें सुन्दर हो रही थी या उपभोक्तावादी संस्कृति की नींव पड़ रही थी। समय के साथ समझने में देर नही लगी कि ये सौन्दर्य प्रशाधन के प्रोत्साहन का भी परिणाम हो सकता है व बाकी लड़कियों के लिये ऐसे प्रोडक्ट का प्रयोग करने हेतु उत्साहवर्धन का भी कार्य कर सकता है जो दिखावे की संस्कृति व भोग की संस्कृति की ओर समाज को ले जाने वाला है।

हरनाज संधु का 2021 में मिस युनिवर्स चुना जाना निःसंदेह 1994 के दौर में जाने- अनजाने में ले गया। दुनिया में महिलाओं की कुल आबादी 387 करोड़ है, जिसमें से 15% महिलाएं युवा हैं। जिनमें 18% भारतीय महिलायें है। अब इससे बड़ा बाजार कहाँ मिलेगा?????

@व्याकुल

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

धूमिल गलियाँ

पुरानी गलियों या मोहल्लों में जाने पर नजरे कुछ-कुछ झुक जाती है। 45 डिग्री का कोण बना लेती है। निशान ढूंढ़ने लगती है। कुछ तो मिले। सड़क किनारे के चबूतरे ही मिले जहाँ कभी स्कूल से आते बैठकर थकान मिटाते थे। आइसक्रीम वही तो बैठकर खत्म होती थी। घर आकर सिर्फ नाटक करना होता था बहुत तेज भूख लगने की। उसी चबूतरे पर किसी बुजुर्ग को सुबह चाय को अखबार के साथ सिप करते हुये भी देखना सुखद होता था। अब तो शायद ही किसी मोहल्ले में 75 वर्ष से ऊपर के 10 बुजुर्ग मिल जायें नजरे बोझिल हो उठती है जब उसे कुछ नही मिलता। आँखे मला जाता है फिर से नजरों को साफ करने के लिये। याद आता है ये तो वही चबूतरा है जहाँ हीरो फिल्म की कहानी खत्म हुई थी। शोले फिल्म की कहानी तो हनु ने इसी चबूतरे पर किश्तो में सुनाई थी। 


भूले से कोई शख्स मिल ही जाये अगर तो जैसे हीरा मिल गया हो। हर बाते होने लगती है। हर शख्स मेें बचपन अपनी परछाई ढूढ़ता है। बुढ़ापे ने तो जैसे खुदखुशी कर रखी हो। सेतू ही न रहेगा तो पीढ़ियाँ जुड़ेंगी कैसे.....

सदियों का सफर दिनों में कैसे कट जाता है। कुछ निशानी तो हो जिसे लपेट लूँ.... कुछ वर्ष पहले पिताजी कोलकाता गये थे.. नीरसता ही हाथ लगी थी.. इंसान तो क्षणिक है भूगोल तो नही.. फ्लाईओवर से कैसे तलाशेंगे जमीं की हकीकत.... नजरे धोखा खाती रही...

डलिया पर मकोई रखे रामू काका ही दिख जाते जिसे खाते ही एक बार मूर्छा आ गयी थी या स्कूल के साईकिल स्टैंड पर बनवारी जिन्होंने कत्था खाते देखते ही बोला था, " गया मर्द जो खाये खटाई"

गलियाँ बड़ी हुआ करती थी... "बोनतड़ी" अब कैसे खेलेंगे....बाहर गाड़ियों ने अड्डा जमा लिया... गलियों के किनारे खड़े पुराने मूक मकान असीम सुख दे जाते है अब जैसे कह रहे हो तुम्हारे नाली से निकले गेंदो के निशानों को मैने अब तक संभाल रखा है.....

@व्याकुल

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

जाल

सदियों

की शोषित

परम्परा

जाल का 

खेल

कौन 

नही बुनता..


और

शिकारी

टकटकी

लगाये रहता

फिर 

मादकता 

से

चमक उठता

मांसल से

देह का..

@व्याकुल

बुधवार, 17 नवंबर 2021

बिग बॉस

शिल्पा शेट्टी पर हुये बवाल के बाद हिन्दुस्तान में बिग ब्रदर जैसे किसी कार्यक्रम की जानकारी आमजन को हुई थी। तब इस तरह के कार्यक्रम विदेशों तक ही सीमित थे। 'बिग बॉस' 'बिग ब्रदर' का भारतीय वर्ज़न है. वहीं 'बिग ब्रदर' में ही एक्ट्रेस शिल्पा शेट्टी को 2007 में रंगभेद का सामना करना पड़ा था। इसका प्रचार प्रसार विश्व के 42 देशों तक फैल चुका है।

2007 में बिग बॉस ने भारत में शुरुआत की। अब ये घर-घर तक घुसपैठ कर चुका है। साल के तीन महीने सब समीक्षा में लग जाते है। कौन कैसा खेल रहा... किसके जीतने की सम्भावनाये है..कौन फाईनलिस्ट होगा.. इत्यादि इत्यादि।

अच्छे खासे पढ़े- लिखे लोगों के रिव्यु करते दिख जायेंगे.. अगर आपकी प्रवृत्ति ताक-झाँक की है तो ये कार्यक्रम निश्चित रूप से पसंद आयेगी जैसे- कौन किसके साथ फ्लर्ट कर रहा... कौन कैसी चुगली कर रहा... कौन नारद की भूमिका में है... कौन शब्दों से पलटी मार रहा.... सामान्य जीवन में ये सब प्रत्यक्ष रूप से देख नही पाते है। यहॉ ये सब कैमरा दिखा देता है।

प्रपंच न हो तो जीवन कैसा- मसाला भरा न हो जीवन में तो जीवन कैसा- प्रपंच ऐसा कि सब दिख रहा पर जैसा जीवन जी आये उससे मुक्ति कैसे हो। प्रवाह में बह ही जाना है...अहं बहता है गाली-गलौज व अपशब्दों में। दर्शक आँखे फाड़ कर खिखियाता है और बच्चों में नये संस्कारों का इंजेक्शन धीरे से घुसपैठ बना लेती है....

@व्याकुल

शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

ज्येष्ठाश्रमी

"दूध का उबलना" एक सटीक बहाना होता था पत्नी को शहर अपने साथ ले जाने के लियें। कुछ लोंग हाथ जला लेते थे। मॉ-बाप पत्नी को साथ ले जाने की अनुमति दे ही देते थे किं ये समझते हुये कि ये बहाना बना रहा। 

कुछ तो मुँह ऐसा बना कर घर आते थे जैसे सालों से खाना न खाया हो। ये संकेत होता था लड़का व्याकुल है बाहर साथ ले जाने को।

मूलतः ये समस्या संयुक्त परिवार में ज्यादा होता था। बड़े-बुजुर्गो को भी डर लगा रहता था कहीं बच्चें बाहर जाकर बिगड़ न जायें। पाबंदी होती थी पर अभिनय में सफल में हो गये तो समझिये काम बन गया।

मेरे साथ तो सही में एक घटना हो गयी थी। पत्नी प्रयागराज थी। सुबह दूध गर्म करने को रखा था। अॉफिस निकलने के समय तक याद ही नही रहा। दूध, भगोने सब जलने लगे। मकान मालिक क्या करते बेचारे???तब मोबाइल फोन का चलन भी नही था। टेलीफोन डायरेक्टरी में एच. बी. टी. यू. का नं. खोजा गया। मेरे डायरेक्टर का फोन मिला। उनके पी. ए. को फोन पर सूचना मिला। मुझे व्यंगात्मक लहजे में बताया गया, "क्या गुरु, कहाँ भगोना जला रखे हो" मुझे मामला समझ आ गया। तुरंत घर आया। धुँयें से घर भर गया था।

तभी से लापरवाही का ठप्पा लग गया था। किचेन कार्य से मुक्ति भी मिल गयी थी।

खैर!!!! आप सभी ऐसा जोखिम न लीजियेगा....

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...