FOLLOWER

शनिवार, 29 जनवरी 2022

शहीद दिवस



लक्ष्य

साधते

चीटीयाँ

कण-कण

समेटते...


सीमाओं 

पर

रक्त

बहाते

सहते वार

हाड़

कवच

से...


लघु

प्रयास

जन-जन

का

बन

अदृश्य

शक्ति

राष्ट्र निर्माण का...


नमन 

चेतन-अचेतन

राम-शबरी

पल-पल

शहीद

होते

प्रतिपल

लक्ष्य

भेंदते


@व्याकुल

अस्तित्व

 


शून्य ही

रखना

जुड़ सकू

कही भी

नही सम्भाल

पाऊँगा

दम्भ

मद

सा 

खुद को...


अट्टहास

कराने को

न 

बनू

दशानन

या

जलाया

जाऊँ

जन जन में...


आहार

बनू

चीटियों का

और 

ओढ़

सके

कोई उरंग

ढेर को....


@व्याकुल

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

साझा

साझा 

कभी 

टिकता नही

मन का

ख्याल से

वाणी का

विचार से

राह का

पथिक से...


साझा

जिंदा

रहता है

जीवन की 

संझा व

चंद

लकड़ियों

 में....


@व्याकुल

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बॉयोग्राफी

किसी ने मुझसे बहुत वर्ष पहले कहा था... स्वास्थ्य ठीक करना हो तो अपने birthplace पर जाओ.. क्योंकि ये शरीर उसी माटी की है उस माटी से मिलकर प्रफुल्लित हो जाती है। हर्ष का अनुभव स्वंयमेव हो जाता है... आज बॉयोग्राफी एक सोशल मीडिया में लिखते वक्त कई बाते आँखों के सामने तैर गये....

कहानी सनाथपुर, सुरियाँवा, भदोही से शुरु होती है। कच्चा मकान तो नही कच्चे दलान को देखा था। ताश व आती-पाती बगीचे में दिन भर खेलते रहने... पुरानी बाजार में कपड़ा प्रेस कराना... डाकखाने में उत्सुकता से चिट्ठियों को खोजना फिर गॉव में उसका पत्र पढ़कर सुनाना... चौथार में आज भी पकोड़े का आनन्द लेना क्योंकि उसमे देशीपना की सोंधी महक होती थी। क्रासिंग के पास भरोस की दुकान की मिठाई व चाय से बच कौन पाया। टिनहवा टॉकिज व एक बंद कमरा में VCR से सिनेमा का आनन्द। मेरी बचपन से शिक्षा इलाहाबाद में होने के बावजूद छुट्टियों में चचेरे भाई के साथ उनके स्कूल मनीगंज.. जूनियर हाई स्कूल में एस. डी. आई. की आयत पर प्रश्नोत्तरी फिर सेवाश्रम कॉलेज में नकल कराना (चूँकि उस भाई से मै एक कक्षा आगे था)। बी.एल.... पी. पी... अपर इण्डिया... बुन्देलवा.... बम्बईया... (काशी एक्सप्रेस नही जानता था)... इलाहाबाद स्टेशन के पूछताछ काउंटर पर बम्बईया ट्रेन पूछना.. आस-पास वालों का व्यंग्यात्मक मुस्कान.. ए. जे. वा टरेन जंघई तक का सफर बाकी साथी विद्यार्थियों के साथ सफर गर्मियों में किसी पहाड़ों के सफर कम नही था। मेरा उत्तर मेरे बॉयोग्राफी में और मेरे अच्छे जीवन का यह बेहतरीन हिस्सा सदैव रहेगा जब भी कोई पूछेगा तुमने क्या जीवन जीया आज तक... 

@व्याकुल




गुरुवार, 20 जनवरी 2022

उदारीकरण का इश्क

नब्बें का दशक और विश्वविद्यालयी माहौल। आजकल का जो माहौल आप देख रहे उसकी बीज नब्बे के दशक में पड़ चुकी थी। उदारीकरण ने माहौल बदल कर रख दिया.... 


उदारीकरण

और दशक नब्बे का

सब कुछ

खुल्लम-खुल्ला

जवां होते

धड़कने

खुले 

बाजार

चपेट

में

इश्क

था

लपेट में

शर्ट नये

नये चश्में

गिफ्ट नया-नया

फिल्मीकार

भी

गुनगुना उठे

ईलू ईलू

कह उठे

मुशरन

बनते

धड़कने

नैन भी

मुक्त हुयें

इश्क

बेखबर

हुआ

नियंत्रण

प्रतिबंध

मुक्त

हुये

वो दौर

ही

बिक गये..


लाइसेंस

कत्ल 

का

शिकार

हुआ

चल पड़ी

गोलियाँ..

छल्ले

उड़ाते

युवतियां

कर

इतिहास

तोड़ते।


@व्याकुल

बोझ

 


थोप देना

सर पर भारी बोझ

कुन्तल दो कुन्तल

या जितना 

तुम चाहो


शून्य है

हाड़-माँस 

शिराओं 

से 

रक्त

नही बहते

इसमें


क्या कभी

देखा

तुमने

पूरी

गृहस्थी

बसाये-समाये

सर

को 


सफेद 

पोश गण

झूटे

बहस

पर 

बहस

करते रहते

टी.वी.

रेडियो पर...


लाद देते

चुनावी 

वादे

और

फेंक देते

सर की गठरी

मनुज 

की...


@व्याकुल

बुधवार, 19 जनवरी 2022

गणतंत्र दिवस

गणतंत्र दिवस त्योहार का दिवस है। कितने बलिदान हुये मानसिक बंधन से मुक्त को। यह मुक्ति सालों साल शोषण से मुक्ति भी था। विचारों का प्रकाट्य आपके चेतना का परिचायक है...

रचना नं. 1

पवित्र त्योहार से लगते हो


जब भी आते गंगा बनकर आते हो

विशुद्ध समष्टि चेतना भर कर आते हो

पवित्र त्योहार से लगते हो


कल कल पावनी बहते हो जन जन में 

तन तन उमंग से लाते हो मन मन में

पवित्र त्योहार से लगते हो


अंगज हो तुम विशुद्ध आत्मा विद्वानों की

जिसके पग ने किया पवित्र भरत भूमि की

पवित्र त्योहार से लगते हो


काल काल से साक्ष्य बनी सुत के चित्कारों की

प्राणमयी बन तार दिये लिये अंक भागीरथी सी

पवित्र त्योहार से लगते हो


कर क्रंदन कितने घाव अंकित रक्तपात वीरों के

क्षत्रिय बन मुट्ठी भी भींच लिया जल अंगारों में

पवित्र त्योहार से लगते हो


सौ सौ निडर बीज पड़े सो रहे उर में है जिसके

कर पल्लवित दमन करे तम भ्रष्ट दलालों के

पवित्र त्योहार से लगते हो


नमन नत् करूँ कैसे मै उस चेतन पावन को

कण कण श्वास श्वास में राष्ट्र प्राण भरे हो जिसने

पवित्र त्योहार से लगते हो

@व्याकुल

रचना नं. 2

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🇮🇳

राष्ट्र के उत्तुंग शिखर पर
जन-जन के उन्मुक्त मन पर
राग राग सा छाया है
गणतंत्र दिवस आया है...

संघर्षो की भीषणता को
स्मृतियों से उद्गार को
जिसने मन को हर्षाया है
गणतंत्र दिवस आया है...

कुटिलों के पराभव को
चेतना के निर्माण को
एक नया युग आया है
गणतंत्र दिवस आया है...

तरूणो के उमंग को
रक्तबीज के मर्दन को
संकल्पीत जीवन आया है
गणतंत्र दिवस आया है...

राम की धरा पर
शापित के तारन को
नव युग फिर आया है
गणतंत्र दिवस आया है..

@व्याकुल


शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

पतंग

शनिवार का दिन खूबसूरत होता था। स्कूल में हॉफ डे। दिन-दोपहर घर आते ही सीधे छत पर, फिर पतंगबाजी। ज्यादा छोटा था तब लटाई पकड़ने का काम रहता था। चौआ करना तभी सीखा था। मोहल्लें के नब्बे मीयाँ की दूकान में सद्दी.. मँझा व छोटी-बड़ी पतंगे मिल जाया करती थी। नब्बे मियाँ के यहाँ कंचे से लेकर हमारे काम के सब कुछ मिल जाया करता था। गिन्नी देना एक कला होता था। मोहल्ले के एक सरदार जी थे वो अपने घर में रखी बड़ी पतंग दिखाया करते थे। बताते थे कि पंजाब में ऐसी ही बड़ी बड़ी पतंगे लोग उड़ाते है। हम बच्चों के लिये कौतूहलता रहती थी। डी. ए. वी कॉलेज के मैदान में पतंगबाजी की प्रतियोगिता भी होती थी। मुझे एकाध पतंगबाज का नाम जो याद आ रहे है वो नाम है तूफानी। और भी कई पतंगबाज़ थे पर समय के साथ नाम भूल रहा हूँ। ये सब पतंगबाज हम लोगों के लिये किसी सुनील गावास्कर से कम नही थे।



कभी-कभी सद्दी को माँझा बनाने की नाकामयाब कोशिश भी होती थी। बैटरी की कालिख में काँच को पीस मिला लेते थे। उसमें सद्दी को मिलाकर माँझा बनाने का प्रयास करते थे।

पतंग उड़ाने के प्रशिक्षण की शुरूआत कन्ना बाँधने से होता था। पतंग लूटना भी एक कला होता था। गली-कूचों की भीड़ से निकलना व पतंग लूटने के लिये एकाग्रचित्त बनाये रखना माहिराना अंदाज होता था। मेरे एक ममेरे भाई पतंग लूटने में गच्चा खा गये थे। छत से गिर गये थे। मै भी वही था। मार पड़ी थी।

खिचड़ी.. बसंत पंचमी... पतंगबाज़ो के लिये उत्सव का दिन होता था....अब सिर्फ आकाश में निगाहें उन पतंगो को खोजती है...तब तो दिन में भी चाँदकट या तिरंगा पतंगे आकाश में दिख जाया करती थी।

@व्याकुल

शनिवार, 8 जनवरी 2022

हिमालय

 


बनना तो 

चोटी

हिमालय

श्रृंग सा...


 पिघल 

भी 

जाना  

तृप्त 

करने को...


करके 

आत्मसात 

छोटे 

नीर को...


इठला 

कर 

भटक 

न जाना

राह में...


भर 

आना 

झोली 

हाथ फैलाए

इंसानों की...


दाता 

बनना 

या 

समाये 

रखना 

बीज 

प्रकृति का....


इतना 

ही 

करना 

हिमालय सा 

अटल 

बने रहना...


@व्याकुल

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

कथरी

घुटने को माथे तक सिकोड़ ली

गरीब की कथरी जब पैरो से सरक गयी...

आँसु बेसुध से बह गये

रोटी की भूख से जब पड़ोसी तड़प गये...

माथे की लकीरे बयाँ कर गयी

खेत की बेहन जब दगा कर गयी...

फंदा तलाशता रहा रात भर

वो भी मुझसे दगा कर गयी...

नजरे चुरा फिरता रहा 'व्याकुल'

खेत रेहन से जो उलझ गयी...

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...