FOLLOWER

रविवार, 13 फ़रवरी 2022

गॉव की ओर


कुछ 

ठहराव लें

प्रतिदाय

करें

उन हवाओं का 

जो आज

भी

फेफड़ो

को

निर्मल कर

रही...


नथुने तक

माटी की 

सोंधी खुशबु

उच्चस्तरीय

मानकीय

इत्र से भी

टिकाऊ...


कितना दूर 

का सफर

रहा

गॉव से 

शहर तक का

सात

समुन्दर

भी लाँघ

गये

माटी की

परीक्षा

आखिर

कब तक....


स्नेह सिंचित

कर तुम्हे

बहुक्षम बनाती

याद करो

पोखरा

भैस की

सवारी कर

खुद यमदूत

बन जाया

करते थे....


अश्रु मिश्रित

आमंत्रण

स्वीकार कर

लो

और

लौट जाओ

जड़ 

की ओर....


@व्याकुल

पुलवामा


पुलवामा के शहीदों को नमन💐🇮🇳


भारतीय वीर जवानों ने अपने पराक्रम से न सिर्फ़ देश का मान रखा वरन् दुश्मनों के दाँत भी खट्टे कर दिये..इसी को ध्यान में रखते हुये एक कविता:


तपती दिवा-मध्य हो

या कँटीले रास्ते

पग बढ़ चलें

जहाँ दुश्मनो की कतार हो..


गिद्ध सी निगाह हो

या लक्ष्य को भेदना 

अपलक अचूक हो

ये हिमालयी बाँकुरे...



प्रगलित लौह सा भुज हो

या कवच सा वक्ष हो

चण्डी का अवतार हो

या प्राकृतिक दिवार हो..


भूख हो या प्यास हो

डिगे न लाख आँधी हो

शिकन न आये आन पर

हौसलो की उड़ान हो...


@व्याकुल

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा


"चंदा मामा आरे आवा पारे आवा नदिया किनारे आवा ।

सोना के कटोरिया में दूध भात लै लै आवा

बबुआ के मुंहवा में घुटूं ।।"

आवाहूं उतरी आवा हमारी मुंडेर, कब से पुकारिले भईल बड़ी देर ।

भईल बड़ी देर हां बाबू को लागल भूख ।

ऐ चंदा मामा ।।

मनवा हमार अब लागे कहीं ना, रहिलै देख घड़ी बाबू के बिना

एक घड़ी हमरा को लागै सौ जून ।

ऐ चंदा मामा ।।


https://youtu.be/R7zBQmlKb60


बचपन में ये गाना सुनता रहा हूँ... खाना खाने का मन न होते हुये भी मुँह खुल जाता था। ये गाना सुनकर लगता था चंदा रूपी मामा बस आने ही वाले है। मुझे लगता है 70 व 80 के दशक में घर-घर तक बहुत ही लोकप्रिय था ये गाना। इस गाने के बोल अवधी बोली के पर्याय है। इस गाने को लिखने वाले मजरूह सुल्तानपुरी सुल्तानपुर के थे तो स्वाभाविक है।

ऐसी अवधी गीत को गाने व जन-जन तक ले जानी वाली सुर कोकिला को मेरा नमन....आज दिनांक 6 फरवरी, 2022 को उनकी पुुुण्य तिथि पर मेरी भावपूर्ण श्रृद्धांजलि...

@व्याकुल

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

जाति या स्टेट्स



बहुत दिनों से इस पर लिखने की सोच रहा था पर विषय की संवेदनशीलता को लेकर लिखने में संकोच कर रहा था। पहलें बचपन की  2-3 घटनाओं का उल्लेख करना चाहूँगा-

1) प्रयागराज में एक विशेष जाति के भैया दूध लेकर आते थे। उनके आने और मेरे स्कूल जाने का समय एक ही हुआ करता था। अधिकतर दिनों में उनके साथ ही सुबह का नाश्ता होता था। कभी जाति जैसा कोई शब्द नही सुना था और न ही कोई चर्चा।

2) पिछले कई वर्षो से जब भी गॉव जाता हूँ 2-3 विभिन्न जातियों के यहाँ से मट्ठा.. दही व दूध इत्यादि खाने को मिल जाता हैं। आज भी कोई भेदभाव नही दिखता।

ऐसे कई दृष्टांत आप हमेशा देखते होंगे पर चुनाव के समय जातियों के बीच की खाई कुछ ज़्यादा ही बढ़ जाती हैं। शादी-विवाह हो... या खान-पान व्यक्ति का स्टेट्स ही देखा जाता है। आपने कभी इस बात पर ध्यान ही नही दिया होगा कि आप साल भर शायद ही अपने स्टेट्स से बड़े लोंगो के यहाँ गये होंगे। शायद कुछ अपवाद को छोड़कर। बहुत अमीर हो तो सिर्फ स्टेट्स ही चलता है। जाति कोई मायने नही रखती। भीड़ बढ़ानी हो या आपका दुरुपयोग करना हो तो जाति का महत्व और बढ़ जाता हैं। चुनावी मौसम है भीड़ बढ़ाने का मौसम।

हिंदुस्तान विविधताओं का देश है... जाति.. उपजाति... उप-उपजाति..लोंगो को अपने में समाहित करने की कला हमारें खून में है कितने विदेशी आये यहाँ की मेजबानी के कायल हो कर रह गयें..शायद यह कला हम अपनों के मध्य में ही रह कर सीख पायें... देश की वैविध्यता का आनंद लीजिये और जाति भूलकर अपने स्टेट्स तक ही सीमित रहिये....

@विपिन "व्याकुल"

शनिवार, 29 जनवरी 2022

शहीद दिवस



लक्ष्य

साधते

चीटीयाँ

कण-कण

समेटते...


सीमाओं 

पर

रक्त

बहाते

सहते वार

हाड़

कवच

से...


लघु

प्रयास

जन-जन

का

बन

अदृश्य

शक्ति

राष्ट्र निर्माण का...


नमन 

चेतन-अचेतन

राम-शबरी

पल-पल

शहीद

होते

प्रतिपल

लक्ष्य

भेंदते


@व्याकुल

अस्तित्व

 


शून्य ही

रखना

जुड़ सकू

कही भी

नही सम्भाल

पाऊँगा

दम्भ

मद

सा 

खुद को...


अट्टहास

कराने को

न 

बनू

दशानन

या

जलाया

जाऊँ

जन जन में...


आहार

बनू

चीटियों का

और 

ओढ़

सके

कोई उरंग

ढेर को....


@व्याकुल

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

साझा

साझा 

कभी 

टिकता नही

मन का

ख्याल से

वाणी का

विचार से

राह का

पथिक से...


साझा

जिंदा

रहता है

जीवन की 

संझा व

चंद

लकड़ियों

 में....


@व्याकुल

शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बॉयोग्राफी

किसी ने मुझसे बहुत वर्ष पहले कहा था... स्वास्थ्य ठीक करना हो तो अपने birthplace पर जाओ.. क्योंकि ये शरीर उसी माटी की है उस माटी से मिलकर प्रफुल्लित हो जाती है। हर्ष का अनुभव स्वंयमेव हो जाता है... आज बॉयोग्राफी एक सोशल मीडिया में लिखते वक्त कई बाते आँखों के सामने तैर गये....

कहानी सनाथपुर, सुरियाँवा, भदोही से शुरु होती है। कच्चा मकान तो नही कच्चे दलान को देखा था। ताश व आती-पाती बगीचे में दिन भर खेलते रहने... पुरानी बाजार में कपड़ा प्रेस कराना... डाकखाने में उत्सुकता से चिट्ठियों को खोजना फिर गॉव में उसका पत्र पढ़कर सुनाना... चौथार में आज भी पकोड़े का आनन्द लेना क्योंकि उसमे देशीपना की सोंधी महक होती थी। क्रासिंग के पास भरोस की दुकान की मिठाई व चाय से बच कौन पाया। टिनहवा टॉकिज व एक बंद कमरा में VCR से सिनेमा का आनन्द। मेरी बचपन से शिक्षा इलाहाबाद में होने के बावजूद छुट्टियों में चचेरे भाई के साथ उनके स्कूल मनीगंज.. जूनियर हाई स्कूल में एस. डी. आई. की आयत पर प्रश्नोत्तरी फिर सेवाश्रम कॉलेज में नकल कराना (चूँकि उस भाई से मै एक कक्षा आगे था)। बी.एल.... पी. पी... अपर इण्डिया... बुन्देलवा.... बम्बईया... (काशी एक्सप्रेस नही जानता था)... इलाहाबाद स्टेशन के पूछताछ काउंटर पर बम्बईया ट्रेन पूछना.. आस-पास वालों का व्यंग्यात्मक मुस्कान.. ए. जे. वा टरेन जंघई तक का सफर बाकी साथी विद्यार्थियों के साथ सफर गर्मियों में किसी पहाड़ों के सफर कम नही था। मेरा उत्तर मेरे बॉयोग्राफी में और मेरे अच्छे जीवन का यह बेहतरीन हिस्सा सदैव रहेगा जब भी कोई पूछेगा तुमने क्या जीवन जीया आज तक... 

@व्याकुल




गुरुवार, 20 जनवरी 2022

उदारीकरण का इश्क

नब्बें का दशक और विश्वविद्यालयी माहौल। आजकल का जो माहौल आप देख रहे उसकी बीज नब्बे के दशक में पड़ चुकी थी। उदारीकरण ने माहौल बदल कर रख दिया.... 


उदारीकरण

और दशक नब्बे का

सब कुछ

खुल्लम-खुल्ला

जवां होते

धड़कने

खुले 

बाजार

चपेट

में

इश्क

था

लपेट में

शर्ट नये

नये चश्में

गिफ्ट नया-नया

फिल्मीकार

भी

गुनगुना उठे

ईलू ईलू

कह उठे

मुशरन

बनते

धड़कने

नैन भी

मुक्त हुयें

इश्क

बेखबर

हुआ

नियंत्रण

प्रतिबंध

मुक्त

हुये

वो दौर

ही

बिक गये..


लाइसेंस

कत्ल 

का

शिकार

हुआ

चल पड़ी

गोलियाँ..

छल्ले

उड़ाते

युवतियां

कर

इतिहास

तोड़ते।


@व्याकुल

बोझ

 


थोप देना

सर पर भारी बोझ

कुन्तल दो कुन्तल

या जितना 

तुम चाहो


शून्य है

हाड़-माँस 

शिराओं 

से 

रक्त

नही बहते

इसमें


क्या कभी

देखा

तुमने

पूरी

गृहस्थी

बसाये-समाये

सर

को 


सफेद 

पोश गण

झूटे

बहस

पर 

बहस

करते रहते

टी.वी.

रेडियो पर...


लाद देते

चुनावी 

वादे

और

फेंक देते

सर की गठरी

मनुज 

की...


@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...