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शुक्रवार, 26 जून 2020

नाना


नाना स्वर्गीय पं. राम नारायण पाण्डेय, जिनका आज पुण्य तिथि है, को सत् सत् नमन।💐💐🙏🏻🙏🏻

आपका जन्म सन् 1921 के आस पास ग्राम शुकुलपुर, मेजा, जनपद इलाहाबाद हुआ था। आपने वकालत सन् 1947 में डिस्ट्रिकट कोर्ट में  शुरूआत की थी। आप दीवानी के वरिष्ठ वकील थे। 

नाना जी को पूरे मोहल्लें वाले व रिश्तेदार "काका" कह कर बुलाते थे।

आप प्रखर वक्ता व तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। बहुत ही अनुशासित व साहसी व्यक्तित्व के धनी थे। डर नाम का शब्द तो आपके शब्दकोश में था ही नही। सैकड़ों ऐसे उदाहरण रहे है जिनसे आपके निडरता का परिचय मिलता है। अपनी बात को तर्क से सिद्ध करते थे। वाक् पटू थे आप। आपसे तात्कालिक डी. एम. भूरे लाल प्रभावित रहते थे।

आप पूर्ण व्यक्तित्व के स्वामी रहे है। कोई ऐसी विधा नही जहां आप दखल न रखते रहे हो प्रमुख रूप से चाहे वों राजनीति हो या सामाजिक क्षेत्र या धार्मिक क्षेत्र इत्यादि। आपने पूरे भारत का भ्रमण किया है। यहॉ तक की अंडमान निकोबार तक का भी।

आप हिन्दू महासभा से जुड़े रहें हैं। गोडसे के ज्येष्ठ भ्राता इत्यादि से घनिष्ठ संबंध रहा है। आप राष्ट्रीय शिव सेना से भी जुड़े रहे है। आप विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके है जिसमें आप सन् 1974 में चौधरी चरण सिंह जी की पार्टी "भारतीय क्रांति दल" से प्रत्याशी थें।  आप राजनीति मेें अत्यन्त सक्रिय रहे है। 

आप धार्मिक गतिविधियों में सक्रिय भूमिका अदा करते थे। मीरापुर, प्रयागराज रामलीला कमेटी के अध्यक्ष रहे है।

आपकी बार काउंसिल के चुनावों में भी सक्रियता व उम्मीदवारी रही है। आप बी. एच. यू., ए. डी. ए. व कई सरकारी विभागों के लीगल एडवाइजर थे। आप हर एक केस को अपनी डायरी में लिखते थे जीतने व हारने की वजह भी उल्लिखित किया करते थे। इससे आपकें वकालत व्यवसाय के प्रति समर्पण के भाव का पता चलता है। आप राम चन्द्र मिशन की तरफ से मुकदमे की पैरवी हेतु दक्षिण अफ्रीका भी जा चुके है।

आप शिक्षा जगत से भी जुड़े रहे है। कई स्कूलों के प्रबन्ध कमेटियों में भी रहे है।

आप 78 वर्ष की आयु में (27 जून, 1999 को) हम सबकों असहाय कर गोलोकवासी हो गये।

आज आपकें पुण्यतिथि पर पुनः आपकों सत् सत् नमन करता हूँ💐💐💐🙏🏻🙏🏻


सोमवार, 4 मई 2020

प्याला

बरबाद गुलिस्ता करने को एक ही प्याला काफी है।

आज ऐसे ही आभासी दुनिया में भ्रमण करते रहने पर पाया कि पंजाब में आँख में डालने वाली दवा को  'दारू' शब्द से नवाजा जाता है। वैसे है ये बड़ा ही ठेठ शब्द। गँवरपन का एहसास होता है। ठेका से भी कम स्तरी का बोध होता है।

बेवड़ा से भी कुछ देशीपन व घटिया स्तर का अहसास होता है।

सुरा शब्द से तो इसके प्राचीनता का आभास होता है जैसे कलयुग से अनन्त युग पीछे चले गये हो।

कविताओं का शौक जैसे ही बढ़ा और बच्चन साहब को सुना 'मदिरालय' 'मधुशाला' सुनने को मिली।

गजल सुनने पर मयखाना बहुत सुनने को मिलता था, है ये उर्दू शब्द।

जो अपने को आधुनिक समझते है वो ब्रांडी रम इत्यादि से खुश हो लेते है। हॉ, अगर पैसा न हो तो देशी से भी काम चला लेते होंगे चुपके चुपके।

ऐसे ही एक टीचर थे हमारे। तनख्वाह मिलने के कुछ दिन तक सीगार पीते थे पैसा जैसे ही कम होने लगता था सिगरेट पर आ जाते थे। अंतिम के पाँच दिन बीड़ी का सुट्टा लगाते थे।

आगे फिर कभी.......

@व्याकुल

रविवार, 26 अप्रैल 2020

लट्ठ

गये थे फिरने गलियन में
नाकाबिल है फिरन को

दर्शन करन लट्ठधारन को
लउट आयेन पश्च मालामालन को

मुँह बाँध न पावें बाबा घूमन को
बन हनु उदास लौटे दुआरन को

सूजत मुँह दोष देत भ्रमरन को
करत मन ही मन पश्चातापन् को

मन ललचावत ढेहरी से खेलन् को
चोंगा तरबतर  हुई जात पसीनन को

दिन में देखत सपन को रोना को
पलक उलट गयों अनिन्द्रन को

फँस गयें बीच दिल दिमागन कों
"व्याकुल" है बड़ी उलझन कों

@व्याकुल

रविवार, 19 अप्रैल 2020

मोहल्ला

                               चित्र स्रोत: गूगल

गुलजार सा'ब की पंक्तियाँ याद आ ही जाती है जब अपना मोहल्ला सोचता हूँ-

मिरे मोहल्ले का आसमां सूना हो गया है।
बुलंदियों पर अब आकर पेंचे लड़ाए कोई।।

मोहल्ला न कहिये इसे। संस्कृति का मजबूत अनौपचारिक केंद्र। भाषा में ठेठपन लिये आचार विचार में एकसमान।

मोहल्ला में हल्ला शब्द भी कमाल करता है। ये न हो तो मोहल्ला का भी कोई अस्तित्व है क्या।

मेरे मोहल्ले में एक हल्ला गुरू रहते थे एक बार अगर बाँग दे दिये तो क्या मजाल कोई सोता रह जायें।

हर मोहल्ले की अलग अलग संस्कृति होती है। रंगबाजी भी अलग टाईप की। मजाल कोई दूसरा वहाँ आ जायें।

हर शहर के कुछ मोहल्ले वहाँ की जाति के नाम पर भी होते थे। कुछ मोहल्ले का नाम किसी खास व्यक्ति के नाम पर। जरूर वो व्यक्ति अपने जमाने से आगे रहा होगा।

मेरे हिसाब से तो परफेक्ट मोहल्ला वही होता है जहाँ अपने मकान के चबूतरें पर बैठे बैठे सामने अपने चबूतरे पर बैठे हुए से अनवरत बात हो सके

नये मोहल्लों में वो बात कहा। पता पूछने निकल जाओं तो सांय-सांय की आवाज या घर से भूँकते कुत्ते।
पुराने मोहल्ले मे किसी का पता पूछो तो पूरा खानदान का हुलिया बताने के साथ साथ घर तक पहुँचा कर ही दम लेते है।

जब आप शहर से दूर होते है तो वही पुराने मोहल्ले ही स्मृतियों मे रह जाते है। होली पर तो उन्ही पुराने मोहल्लों की सैर हो जाया करती थी जो उत्साह व उमंग वहाँ देखने को मिलता है वो बात भद्र लोक में नही आ सकती।

तभी तो गुलजार सा'ब भी कह ही देते है -

बचपन में भरी दूपहरी में नाप आते थे पूरा मोहल्ला।
जब से डिग्रीयां समझ में आई पाँव जलने लगे।।

मै भी कहा मानने वाला हूँ हँसते रहे हँसने वाले। सलीम अहमद की शेर को फलीभूत कर ही देता हूँ -

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं।
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ।।

@व्याकुल

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

पत्थर




पत्थर से पाला बहुत ही छोटी उम्र में ही पड़ गया था। हमारे मोहल्ले में प्रतिदिन पत्थरबाजी होती थी। एक ग्रुप जो कारगिल जैसी चढ़ाई पर था हम लोग नीचे रहते थे। लेकिन जीतते हम लोग ही थे।

दूसरा पाला पड़ा जब थोड़े समझदार हुए। कुछ मकानों की नींव पर पत्थर देखा। पता किया तो शंकरगढ के पत्थर थे।

पत्थर को अगर समझना हो तो तीन शब्दो से समझा जा सकता है 'कड़ी कलेवरवाली सामग्री'।

फिर थोड़े बड़े हुए तो मुहावरों में पढ़ा
'पत्थर का कलेजा'  मतलब कठोर ह्रदय। आजकल इस मुहावरे को उल्ट भी सकते है।

मुहावरा पढ़ने की श्रंखला में एक मुहावरा ये भी पढ़ा 'पत्थर की छाती' मतलब कभी न हारनेवाला दिल। ये भी दिख जाता है जब हमारी सुरक्षा दल धैर्य का पूर्ण पालन कर रही होती है।

इसी श्रृंखला में एक और मुहावरा मिला 'पत्थर को जोंक लगाना' मतलब अनहोनी बात करना। भाई पत्थर पर जोंक लगाने का कोई मतलब नही। जोंक लगाना ही है उनके दिमाग पर लगाओं जिनका दिल पत्थर का हो गया है।

पत्थर में वो भाव नही आ पाते जो भाव शिला से आते है। शिला में एक ठहराव दिखता है पत्थर तो खुद टूटा हुआ है नकारात्मकता तो होगी ही।

कही मै पढ़ रहा था तो पता चला कि रोमानिया के किसी गाँव में पत्थर का आकार दिन प्रतिदिन वहाँ बढ़ रहा है। काश! यहाँ पर भी छतों पर रखे पत्थर का आकार बढ़ जाये जिससे उठाने वालो का हाल.....

दिक्कत तो तब है अगर पत्थर अपने अपनो पर फेंके। सुहैल अज़ीमाबादी लिखते भी है -

'पत्थर तो हज़ारों ने मारे थे मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आ कर इक दोस्त ने मारा है'

हम तो ठहरे पक्के हिन्दुस्तानी पत्थर में भी देवता तलाश लेते है।
पत्थर बन गये लोगो को भी तार देते है ।

पत्थर की मुश्किलों को कौन समझ पाया है आजतक। समझना हो तो मदन मोहन दानिश की पंक्तियों को पढ़ो -

'पत्थर पहले ख़ुद को पत्थर करता है
उसके बाद ही कुछ कारीगर करता है'

अब चूँकि सोशल मीडिया का जमाना है तो ख्वाहिश व्यक्त कर ही दूँ एक ईमोजी पत्थर फेकने का भी हो जो पोस्ट अच्छा न लगे उस पर एक पत्थर तो बनता ही है!!!!!!!!!!!

@व्याकुल

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

इलाहाबाद

कहाँ से शुरू करू??
कर्मस्थली इलाहाबाद!
बचपन इलाहाबाद!
आध्यात्मिक इलाहाबाद!

मीरापुर के एम. एल. कान्वेंट से स्कूली शिक्षा प्रारम्भ होकर जमुना क्रिश्चियन से होते हुए जी. आई. सी. तक हुई।

जमुना क्रिश्चियन में पढ़ाई के दौरान बेंत आज भी याद है। यहॉ पढाई के दौरान कॉलेज के पीछे जमुना घाट तक चले जाने का साहस करना फिर डरते रहना कोई गुरू जी न आ जायें।

जी. आई. सी. इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान हिन्दी की कक्षाओं में गायब हो जाना और कई बार पकड़े जाना। हिन्दी के वही गुरू जी का हमारी आयु के हिसाब से बाते करना व साथी विद्यार्थीयों का ठसाठस कक्षा में पुनः अवतरण।

कौन इलाहाबाद को भूलना चाहेगा चप्पल घिसना माघ मेले में। एकाएक मूड बना लेना फिर साईकिल से कटरा स्थित सिनेमा देख आना।

बड़े होने का या बौद्धिक प्राणी का अहसास करना होना हो तो कॉफी हाऊस घूम आना।

दोस्तों के साथ रात में पार्टी फिर सिविल लाईन्स चर्च पर फोटो खिचवाना।

अंतहीन सिलसिला है.. तन कही भी रहे मन घूम फिर कर इलाहाबाद ही अटक जाता है असीम यादें है जो चिरन्तन है।

वासी मीरापुर। विश्वविद्यालय में प्रवेश करते ही सिविल का भूत समा जाता है वहाँ से गिरे तो डॉक्टरेट या कुछ कर गुजरने का नशा पलकों पर विराज हो ही जाता है।

वाह रे इलाहाबाद!!!!!

@व्याकुल

रविवार, 12 अप्रैल 2020

सुलेमानी कीड़ा



हमारे एक घनिष्ट मित्र जैसे ही टिवट्रर पर अकाउंट बनाये। उनके सबसे पहले फॉलोअर बने सुलेमानी कीड़ा। मै आश्चर्यचकित हो गया कि उस कीड़े को कैसे पता की यें बड़ा वाला कीड़ा है। शब्दकोशो की छानबीन की तो इसका अर्थ न मिला।

कुछ अपनी बची हुई मंद बुद्धि पर पगलाये दिमाग से सोचा तो लगा 'फटे में ऊँगली करना' से कुछ कुछ मिल रहा।

सुलेमानी कीड़ा नीति नियामक का एहसास दिलाता है जबकि 'फटे में ऊँगली करना' कार्यपालिका की भूमिका में।

जो लोग सुलेमानी कीड़ा के रोग से ग्रसित होते है उनका कोई इलाज नही। बड़े बड़े डॉक्टर हाथ जोड ही लेते है।

प्रश्न उठता है इसके उद्भव का। इसका उत्तर आपको खुद ही खोजना होगा व पहचानना होगा इस महान कीड़े से ग्रसित महानुभावों कों।

अगर बैठे ठाले आप किसी को मुसीबत में डालने मे सक्षम हो जाय या खुद किसी मुसीबत में फसते रहे तो आप समझिये आप इसके विशेषज्ञता की श्रेणी में आ गये है।

हो रहे न आप आश्चर्यचकित। ज्यादा बोलने की गुस्ताखी की तो आपके अंदर का सुलेमानी कीड़ा शिकार न बना ले। फिलहाल आनंद ले हाल फिलहाल के सुलेमानी कीड़ा का।

@विपिन पाण्डेय "व्याकुल"
#सुलेमानीकीडा

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

रिक्शा


यूँ जिन्हे तलाश रहा
वों डरे हुए से बैठे है
नज़र कर मुझ पर
बावस्ता मंजिल हूँ

सिल दिये क्यों मुझें
तड़पता सा राह पर
इशारा ही कर देना
गले आ लिपटूँगी 

वजह हो खफा का
या गुम हो शहर से
इधर महकती हवा से
पैगाम खुद का दे जाना

लहर सी तरंगे पैरों मे
खुद ब खुद चल दे
करे महसूसियत उनका
या आ जाना ख्यालों में

@व्याकुल

इलाहाबादी चुनाव

मुझे अपने जीवन का पहला चुनाव याद है जब अमिताभ जी चुनाव लड़े थे इलाहाबाद से । उस समय का एक नारा बड़ा प्रसिद्ध हुआ था..आई मिलन कि बेला .........ऐसे ही कई नारे प्रचलन में आ गये थे..स्कूल मे अध्यापिकाएं सिर्फ अमिताभ कि बात करती थी। प्रतिदिन कुछ न कुछ नयी कहानी कक्षाओं में होती थी। ऐसा लगता था फिल्मी स्टार दूसरी दुनिया से होंगे। बड़ा मजा आता था उन दिनों। मेरे घर के बगल से जया जी की गाड़ी निकली तो सारा मोहल्ला पीछे पीछे। शॉल को बाँह के नीचे से लपेटकर पहनने का फैशन की शुरूआत भी तभी से मानी जाती हैं।  

उस समय चुनाव में मेला जैसा माहौल हुआ करता था। अनाप सनाप खर्च होता था और ध्वनि प्रदुषण अलग से।

अब तो इतनी सख्ती हो गयी है कि पता ही नहीं चलता और चुनाव हो गया .............................

@व्याकुल

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

गुमशुदा

मत पूछ धुँआ क्यों उड़ा रहा हूँ
उदासियाँ पिघल रही हो जैसें

ढरक गये अश्क जो पोरो से
गमों का सागर उमड़ आया हो जैसें

सिलवटें बता रही बिस्तर की
ख्वाबों को भुला आया हो जैसें

चला गया आज उसी मोड़ पर
खबर उसने भिजवा दिया हो जैसें

बुत बना रह गया आज उसी जगह
राहे जुदा हो गयी हो जैसें

मुस्कुराता रहा जमाने भर से
दर्द छुपा रहा हो जैसें

हाथ जो मिलाता रह गया उनसे
खुद कही गुम हो गया हो जैसें

@विपिन "व्याकुल"

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...