सुबह उठते ही
मुझे ही ढूढ़ते थे
कितने धीर हो
जाते थे तुम..
बड़े ही शौक से
तुमने चुना था मुझे
कई थे वहा
मेरे प्रतियोगी में..
जब तुमने मुझे
देखा तो
फिर कोई और
पसंद नही आया..
ध्यान इतना देते
थे कि
थोड़ा सा भी
मैल नही होने
देते थे..
एक दिन
मैं गिरा
डंडा
बदलवाया
फिर तू
लापरवाह
हो गया..
आज
गज़ब कर
दिया
एक हाथ
दिया और
गुस्से में मुझे
गिरा दिया..
पहले भी
मेरे ऊपर
बैठ गए थे
मेरी तो आह!
निकल गयी थी
कभी श्रृंगार
सा था
अब नाज़ायज़
सा..
यही फितरत है
तुम इंसानो की
मतलब ही रिश्ते
निभा रहा है
अन्यथा सब बेकार
है..
@व्याकुल
������
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंबहुत अच्छा लगा सर चश्में से अनकहा रिश्ता
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
हटाएंWah kya gazab ke riste ka avlokan kia hai sir chasme
जवाब देंहटाएंAur insan ke bich,... Isi bahane insani fitrat ko bhi....
शुक्रिया
हटाएंचश्मे के दर्द ने हमें हंसने पर विवश कर दिया। बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
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