पुरानी गलियों या मोहल्लों में जाने पर नजरे कुछ-कुछ झुक जाती है। 45 डिग्री का कोण बना लेती है। निशान ढूंढ़ने लगती है। कुछ तो मिले। सड़क किनारे के चबूतरे ही मिले जहाँ कभी स्कूल से आते बैठकर थकान मिटाते थे। आइसक्रीम वही तो बैठकर खत्म होती थी। घर आकर सिर्फ नाटक करना होता था बहुत तेज भूख लगने की। उसी चबूतरे पर किसी बुजुर्ग को सुबह चाय को अखबार के साथ सिप करते हुये भी देखना सुखद होता था। अब तो शायद ही किसी मोहल्ले में 75 वर्ष से ऊपर के 10 बुजुर्ग मिल जायें नजरे बोझिल हो उठती है जब उसे कुछ नही मिलता। आँखे मला जाता है फिर से नजरों को साफ करने के लिये। याद आता है ये तो वही चबूतरा है जहाँ हीरो फिल्म की कहानी खत्म हुई थी। शोले फिल्म की कहानी तो हनु ने इसी चबूतरे पर किश्तो में सुनाई थी।
भूले से कोई शख्स मिल ही जाये अगर तो जैसे हीरा मिल गया हो। हर बाते होने लगती है। हर शख्स मेें बचपन अपनी परछाई ढूढ़ता है। बुढ़ापे ने तो जैसे खुदखुशी कर रखी हो। सेतू ही न रहेगा तो पीढ़ियाँ जुड़ेंगी कैसे.....
सदियों का सफर दिनों में कैसे कट जाता है। कुछ निशानी तो हो जिसे लपेट लूँ.... कुछ वर्ष पहले पिताजी कोलकाता गये थे.. नीरसता ही हाथ लगी थी.. इंसान तो क्षणिक है भूगोल तो नही.. फ्लाईओवर से कैसे तलाशेंगे जमीं की हकीकत.... नजरे धोखा खाती रही...
डलिया पर मकोई रखे रामू काका ही दिख जाते जिसे खाते ही एक बार मूर्छा आ गयी थी या स्कूल के साईकिल स्टैंड पर बनवारी जिन्होंने कत्था खाते देखते ही बोला था, " गया मर्द जो खाये खटाई"
गलियाँ बड़ी हुआ करती थी... "बोनतड़ी" अब कैसे खेलेंगे....बाहर गाड़ियों ने अड्डा जमा लिया... गलियों के किनारे खड़े पुराने मूक मकान असीम सुख दे जाते है अब जैसे कह रहे हो तुम्हारे नाली से निकले गेंदो के निशानों को मैने अब तक संभाल रखा है.....
@व्याकुल
Nice story sir
जवाब देंहटाएंThank you so much
हटाएंNice����
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंप्रणाम... आभार
हटाएंVery Nice history
जवाब देंहटाएंThanks
हटाएंBahut hi touching
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई
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