पतझड़
के मौसम
में
पेड़ से
गिरते
झरते
सूखे पत्ते...
तंद्रा
भंग करती
हर-पल
प्रतिपल
व
अहसास कराती
साथ होने का
जैसे
छाँव दिया था
कभी....
बसंत
भले ही गढ़े
खुद को
नयेे कोपलों
से
पर
ख्वाहिश
रहती
उन सूखे
पत्तों की
जो
गिरते रहे थे
सर पर
जैसे
बुजुर्ग सा
आशीर्वाद
दे रहे हो
काँपते-हिलते
हाथों से.....
@व्याकुल
Bahut sunder
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाईसाहब... प्रणाम
हटाएंसूखे पत्ते...
(कविता)
https://vipinpanday.blogspot.com/2022/02/blog-post_27.html
Nice
जवाब देंहटाएंThank you
हटाएंबहुत सुंदर भाई साहब ।
जवाब देंहटाएंह्रदय से आभार भाई
हटाएंलाजवाब रचना व बेहतरीन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपकों
हटाएं