आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
FOLLOWER
गुरुवार, 17 जून 2021
उन्मुक्त
मंगलवार, 15 जून 2021
सुंघनी
प्रयागराज के घंटाघर अगर आप आ गये तो समझिये समुद्र में आ गये। एक लहराती नदी मीरापुर-अतरसुईया से आकर मिल जाती है... दूसरी नदी मालवीय नगर-कल्याणी देवी से होते हुये लोकनाथ के तट पर समाप्त होती है...तीसरी नदी मुट्ठीगंज से कई नदियों को समेटे नीम के पेड़, जिसकी गाथा स्वतंत्रता सेनानियों की लहू से लिखी गयी है, पर आकर विलीन हो जाती है... जीरो रोड.. ठठेरी बाजार को आप जूहू बीच समझ सकते है.. इन्ही समुंदर में मै भटक रहा था तम्बाकू की मोटी बड़ी पत्ती के लियें। बोला तो यही गया था कि वही चऊक में ही मिलेगा। मैने पान खाते देखा था लोगो को.. बीड़ी-सिगरेट का सुट्टा लगाते देखा था पर तम्बाकू की पत्ती का क्या। खैर.. बुजुर्गो का आदेश था तो मानना ही था...आखिरकार मुझे एक छोटी सी दूकान पर तम्बाकू के पत्तियों के विभिन्न प्रकारों के विक्रेता दिख ही गये। याद तो नही पर था बड़ा ही सस्ता। ले आया। बड़े चाव से उसको पीसा गया.. मुझे भी देखने में आनन्द आ रहा था.. फिर एक बेलनाकार छोटे सी लकड़ी में उसकों भरा गया। जब मन होता बड़ी तन्मयता व गहरी सांस के साथ उसको खींच कर आनन्द लेते मै देखा करता था। सुंघनी ही था उस चकल्लस का नाम.. जब नाक के पास ले जाकर खींचते थे तो लगता था वे परमतत्व से साक्षात्कार कर रहे हों... स्टाक खत्म होते ही फिर वही चऊक का चक्कर।
हमे इंतजार रहता था सुंघनी खत्म होने का... नशा कम ही भाता था मुझे... एक ही नशा था... लस्स्स्सीसी...का...हमे तो वैसे भी लोकनाथ की लस्सी खींच ले जाती थी!!!!!!!
©️व्याकुल
रविवार, 13 जून 2021
वाह रे रक्त!!!!!
रक्त रक्त बह चले
संकरी सी राह में
बाँधते ये देह को
लौह सा प्यार लिये
ताल ताल मिला रहे
धक् धक् कदम यें
रुके नही थके नही
सरपट से ये दौड़ते
कर्ण से न सीखते
सीख लिये मॉ से
सतत् सिंचित रहे
अथक अंधकार में
चार ये गुण लिये
सुत जैसे सरयु के
बिंध दे वैरी को
रक्त ये उतार के
@व्याकुल
खामोश पहिया
धनंजय को जबर्दस्त पान की लत थी। ऐसा कोई दिन नही जाता था जब वों पान न खाता हों। किस तम्बाकू में नशे की कितनी गहराई है उससे बेहतर कोई बता नही सकता था। मोहल्लें के आस-पास के पान वाले उसका मूड देखकर पान बना देते थे। आज वो कही खोया- खोया था। पान वाले की बक-बक उसकों सुनाई नही दे रही थी। थोड़ी देर बाद पान वाले ने भी धनंजय का मूड देख चुप हो गया था।
सिर्फ उसने पान वाले से यही पूछा, 'गाँधी महाविद्यालय' के आस- पास कोई बेहतरीन दूकान है क्या पान की? पान वाला सिर्फ 'खालिद पान' ही बोल पाया था किं धनंजय पाँच का सिक्का ऊपर की जेब से निकाला और बिना कुछ प्रत्युत्तर किये चला गया।
धनंजय के कपड़ों से लगता था कि आर्थिक स्थिति बहुत ही बेकार है। शक्ल तो भगवान ने ऐसी बना रखी थी किं समाज के अंतिम पायदान का अंतिम व्यक्ति का प्रतिनिधि हो जैसे। पता नही क्या उसके दिमाग में चल रहा था वो 'ठाकुर साईकिल' वाले के सामने खड़ा हो गया। कुछ देर पंचर बनता देखता रहा। तभी वो कुछ सोच अजीब सी भाव-भंगिमा बना मुस्कुराया जैसे उसे कुछ खजाना मिल गया हों। उसने 'ठाकुर साईकिल' वाले से पूछा, 'कोई पुरानी साईकिल मिलेगी क्या?' दुकान वाला बोला, 'हाँ, साहब!मिल जायेगा', '22 इंच की है'। धनंजय ठहरा 5 फिट 5 इंच। कुछ देर सोचने के बाद बोला, 'ठीक है'।
आज वह बहुत दिनों के बाद साइकिल सवारी पर था। पूरे शहर का चक्कर लगाया। तिकोना पार्क का ३ चक्कर लगा दिया। उसे अपने बचपन की एक-एक घटना मन:स्मृति में उभर आई थी।
साईकिल कब 'गाँधी महाविद्यालय' के गेट तक जा पहुँची ध्यान ही नही रहा उसे। एकाएक उसे गेट पर 'खालिद पान' वाला दिख गया। पान की दूकान पर पहुँचते ही याराना अंदाज में बोला, 'खालिद भाई' "पान की तलब लग रही", "दो बीड़ा पान बना दों"। खालिद भी फुर्सत में था। रेडियों पर टेस्ट मैच की कमेंट्री सुन रहा था। तुरंत धनंजय की तरफ देखा और बुदबुदाया, 'जी, साहब'।
दीपक सौम्य व सरल व्यक्तित्व का स्वामी था। खालिद की दूकान पर आते ही हाय हैलो हुआ उससे। पान खाते - खाते काफी बात हुई और उसने बताया कि कैसे उसने इस प्रतिष्ठित महाविद्यालय में प्रवेश लिया था। दिन-प्रतिदिन हमारी दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी। अब तो हमारी बातचीत व्यक्तिगत् स्तर पर भी होती रही।
आज सुबह कॉलेज में पुलिस वालों की काफी भीड़ थी। कई सीनियर छात्र पकड़े जा रहे थे। जूनियर की रैगिंग के आरोप में। पुलिस वाले चुन चुन कर दोषी विद्यार्थियों को शिकंजे में ले रहे थे।
शायद!! खालिद की दूकान मेरे जीवन का अंतिम दिन रहा। मैने साईकिल खालिद को यह कह कर दी थी किं "आऊँगा एक दिन अपनी हवाई जहाज लेने, सम्भाल कर रखना इसको"।
©️व्याकुल
किराये का घर
मसालों का शहर यही तो पढ़ा था इस जगह के बारे में। वास्कोडिगामा भी यही आये थे कालीकट में । भारत की प्राण "मानसून" भी यही जन्म लेती है। साक्षरता भी यही है। देवेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने यही तो आया था। उसके लिए ये नया शहर था। हॉस्टल का खाना उत्तर भारतीयों के लिहाज़ से उसे पसंद नहीं आया। उसने बाहर कही रूम लेकर पढ़ाई करने की ठानी। अनुशासित बहुत था वो। पिता के इकलौते पुत्र। बाहर रहने लगा देवेश। खुद ही खाना भी बनाने लगा। जिस मकान में रहता था वो बहुत ही खूबसूरत था। मकान के पास का चित्रण करने बैठ जाइयें तो यथार्थ में स्वर्ग का गाथा लिख जाए। करीने से नारियल का पेड़ और केले की खेती एक अलग दृश्य उत्पन्न कर रहे थे।
ज्यादा कुछ जानता तो नहीं था मकान मालिक के बारे में। बस आज तक एक भद्र महिला ही दिखी थी। दूरियों की एक वजह भाषा भी थी। महीने एक बार मकान मालकिन आती थी, मुझे समझते देर नहीं लगती थी किं क्यों आयी है वो। किराया दे देता था और वो चली जाती थी। संवाद के लिए इशारों में बात हो जाय करती थी। थोड़ी बहुत टूटी-फूटी अंग्रेजी समझती थी। हिंदी तो बिल्कुल नहीं। मै ठहरा ठेठ उत्तर भारतीय। अंग्रेजी में भी आखिर कितने देर तक पिटर पिटर करता,थोड़ा बहुत में लगता बहुत बात हो गया। माथे की शिकन बताती थी उन्होनें अपने जीवन में बहुत संघर्ष झेला था। सामान्यतः केरल के लोगो की तुलना में साफ़ रंग की थी। ज्यादा कुछ समझने का समय भी नहीं मिलता और कोशिश भी नहीं की।
एक दिन कॉलेज से आने के बाद सोया ही था की वो महिला दौड़ी दौड़ी मेरे पास आयी।
बोली, "सन, मेरी पद्मिनी का पता नहीं कहाँ चली गई"
"पद्मिनी!!!! ये कौन ???? "
विस्मित स्वर में मैंने पूछा था,
"अरे बेटा, मेरी बेटी। "
"ओह " "पर, आंटी मै तो उसको पहचानता नहीं "
उसने तुरंत फोटो लाकर दिखाई। वो को साँवली सी लड़की थी। उम्र कोई 17-18 वर्ष की।
मैंने फोटो हाथ में लिये कपड़े पहन निकलने को ही था किं मकान मालकिन के यहाँ से तेज-तेज आवाज आने लगी। माँ-बेटी का वाक् युद्ध मेरे कानों में निरन्तर पड़ रही थी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था बस दोनों के चेहरे के भाव भंगिमा से कुछ समझने की कोशिश कर रहा था। उस लड़की के पास पिट्ठू बैग था। लग रहा था जैसे वो कही भागने की तैयारी की हो। लड़के ने धोखा दे दिया हो और वो वापस आ गयी हो। ऐसा ही होता है हम हमेशा बहुतों के बारे में ऐसी ही सोच बैठा लेते है।
मै चुप चाप अपने रूम पर आ गया।
उस दिन के बाद से फिर उनके घर से कोई हलचल नहीं दिखी। कभी कभी अब मेरा भी मन हो जाता था किं आखिर उस दिन हुआ क्या था।
मै अब अंतिम वर्ष में था मुझे थोड़ा मलयालम समझ आने लगी थी
वो दोनों अब मुझे पहले की तुलना में ज्यादा दिखने लगे थे। कभी-कभी दोनो मॉ-बेटी से बात भी हो जाया करती थी।
मुझे पद्मिनी अच्छी लगने लगी थी। मैने एक दिन बातों बातों में मकान मालकिन से अपनी इच्छा जाहिर की थी वो कुछ बोली नही मुझे बस देखती रही।
आखिरकार मकान मालकिन ने एक दिन शादी के लिये अपनी हाँ कर दी थी पर इस शर्त के साथ की यही केरल में ही शादी होनी चाहिये। मै अपने घर से किसी को बुला नही पाया था। शादी संपन्न हो गयी। मेरी इंजीनियरिंग की पढाई को भी समाप्त हुये कई महीने बीत चुके थे। मै अपने पिता से कोई न कोई बहाना बना केरल में रुका रहा।उन्हे पता भी नही था किं मै शादी कर चुका हूँ। मैने अब वापस प्रयागराज चलने का मूड बना लिया था। प्रयागराज पहुँचते ही पिता जी का पारा सॉतवें आसमान पर था। वो घर में घुसने ही नही दिये। वो पुरातन सोच व अन्तर्जातीय विवाह के सख्त खिलाफ थें। बहुत दिनों तक हम दोनों घर के बाहर बरामदें मे पड़े रहे।
एक दिन सुबह आँख खुली तो घर पर ताला लगा देखा। पता चला वो मकान बेच चुके है। मै अपनी ही माटी में बेगाना हो चुका था। इस छोटे से शहर में तत्काल नौकरी मिलना टेढ़ा काम था। पद्मिनी को सिलाई अच्छी आती थी। वों कही से किराये की मशीन ले आयी और घर के बाहर प्लास्टिक की शीट डालकर सिलाई करने लगी थी। मै बेरोजगार काम तलाशता रहता। तभी एक दिन कोई नये लोग मेरे अपने ही घर में शिफ्ट होते रहे।
मै अपने ही घर में बेगाना सा उनसे थोड़ी सी जगह व किराये के लिये गिड़गिड़ाता रहा....
©️व्याकुल
शुक्रवार, 11 जून 2021
बोरसी का दूध
रात के दस बज चुके थे। मेरी बड़ी मॉ मुझे उठा रही थी। मै दिन भर का थका हुआ गहरी नींद में सो चुका था। उनींदा हालत में मै एक गिलास दूध हाथ में लिया और गट-गट पी गया। मै बस यहीं पूछ पाया किं चीनी है। उन्होनें हॉ में जवाब दिया था। दूध की मिठास और सोंधपन बता रही थी किं चीनी होना चाहिये।
खैर!!! नींद की हालत में मष्तिष्क तर्क नही करता। मै सों गया। सुबह तक स्वाद बना रहा था। शहर के दूध का स्वाद कुछ अलग हुआ करता है और ये कैसा स्वाद। लग रहा था कुछ अमृत पी गया। गॉवों के हर घर में एक खिड़की हुआ करता है। खिड़की तो सिर्फ नाम का बोलते है वो निकासी का द्वार होता है जहॉ से महिलायें बैठा या निकला करती थी। सुबह देखा तों बोरसी (गॉवों में मिट्टी का पात्र जिस पर आग जला करती है) जो खिड़की के एक कोनें में अड्डा जमाये थी, जिस पर मट्टी का मटका दिखा। झाँक कर देखा तो मलाई की एक परत वो भी हल्कें पीले रंग की थी जों बरबस ही अपने तरफ खींच रही थी। बस फिर क्या था चम्मच लियें कटोरी भरा गया। आज भी उस दूध की मिठास याद करता हूँ तो मन प्रफुल्लित हो उठता है....
©️व्याकुल
गुरुवार, 10 जून 2021
आहट - 6
गतांक से आगे..
वो शाम आज भी नही भूली थी जब साकेत दुःखी था। बोला था," अवनि, तुम कहीं और शादी कर लो।
मेरे घरवाले तैयार नही हो रहे"
अवनि अनुत्तरित थी। अपना सब कुछ समर्पण कर चुकी थी। जिंदगी ठहर गयी थी। समझ नही पा रही थी क्या बोलें। उस दिन घर आकर रात भर रोती रही।
उस दिन के बाद बहुत दिनों तक साकेत फिर कभी नही दिखा था। एक दिन उसके घर के पास चहल-पहल बहुत थी, पता चला उसकी किसी दूसरे शहर में शादी हो गयी। मेरे ऊपर वज्रपात टूट गया हों।
अंदर से बहुत ही टूट चुकी थी। भाई का भी पढ़ने से मन उचट चुका था। जुआ और आवारगी उसका मुख्य धंधा।
गरीबी और बेबसी में ही इंसानों का असली चेहरा सामने आता। कोई सहानूभूति जता मेरे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहता था, कोई सच्चा होने का झूठा नाटक करता।
एक दिन पापा के पुराने मित्र आयें। भावेश का फोटो दिखाकर शादी का प्रस्ताव रखे। बस इतना ही बताये कि लड़का विधुर है। मै, असहाय, सिवाय सहमति के कर भी क्या सकती थी।
मै भावेश के साथ दूसरे शहर आ गयी थी। भावेश बहुत ही खुशमिजाज था।
तभी भावेश ने मेरे आँख बँद कर दिये। बोला, "अवनि, एक सरप्राईज है" "आँखें न खोलना, जब तक न कहूँ"
मेरा प्रोमोशन हो गया। दूसरे शहर शिफ्ट होने की तैयारी करों। मै फिर उदास हो गयी। इस शहर ने मुझे नवजीवन दिया था। रिश्तों की कई उलझनों को पार कर यहॉ तक आ पहुँची थी। मै तो मानती ही नही ईटें, दिवारें और सड़के नही बोलती। इनसे भी हमारा अनवरत संवाद होता रहता है और ये हमारे व्यक्तित्व निर्माण में अहम् भूमिका निभाते है।
मै भावेश से यहीं कह पायीं थी किं "एक बार मेरे मायके घुमा दों"
"कल ही...", इतना कह भावेश नहाने चला गया।
मुझे अपने मॉ-पिता की धरा पर जाने की व्याकुलता हो रही थी।
अगली सुबह मै बस में भावेश के साथ बैठी थी। रास्ते भर जो जगह मेरे जीवन से जुड़ी थी, उसकों दिखातें चली जा रही थी। उत्सुकता थी जल्द पहुँच जाने की।
दुर्योग रहा!!!! मै बस से उतर रही थी और साकेत की पत्नी सफेद साड़ी पहने बस पर चढ़ रही थी। बस इतना ही पता चल पाया कि साकेत अपनी शादी के बाद से बहुत दुःखी रहने लगा था। कुछ दिन पहले रात दों बजे उसने इहलीला समाप्त कर ली थी, जैसे मेरे सपने की वों "खट्" की आवाज उसी की हों।
मै निःस्तब्ध बस को ओझल होते देख रही थी....
समाप्त...
©️व्याकुल
आहट - 5
गतांक से आगे...
एक सुबह तो हद ही हो गयी। घर के ड्राइंग रूम में बैठा साकेत पापा को समझा रहा था, "अंकल, एडमिशन का आप चिंता नही करियेगा। लखनऊ विश्वविद्यालय में मै सब करवा दूँगा"
पापा उस पर बहुत विश्वास कर उसकी हॉ में हॉ मिला रहे थे।
मेरा एडमिशन उसने लखनऊ विश्वविद्यालय में करवा दिया था। हॉस्टल में मै रहने लगी। अब लखनऊ से अपने घर ज्यादातर उसके साथ आने-जाने लगी।
साकेत मेरा बहुत ख्याल रखने लगा। प्रथम वर्ष पूर्ण होने पर एक दिन छुट्टियों में मेरे घर आया। पापा उस पर बहुत विश्वास करने लगे थे।
"अंकल, क्यों न अवनि अगले वर्ष से मेरे चाचा के घर रहे???"
"ठीक है बेटा, जैसा तुम उचित समझों"
फिर क्या था, अब मेरा बसेरा उसके चाचा के घर हो गया। साकेत भी ज्यादातर समय लखनऊ और मेरा ध्यान रखने लगा।
अब तो जैसे मुझे उसकी आदत ही पड़ गयी थी। कब उसके प्यार में आ गयी, पता ही नही चला।
इस बीच साकेत के चाचा का ट्रांसफर हो चुका था। अब उस मकान में सिर्फ मै और साकेत ही थे। मैने अपने घर वालो से चाचा के ट्रांसफर की बात छुपा रखी थी।
मेरे स्नातक तक हम दोनों पत्नी-पति जैसे ही रहे।
मेरा स्नातक पूर्ण हुआ ही था किं एक दर्दनाक घटना घटित हो गयीं। मेरे पापा का देहांत सड़क दुर्घटना में हो गया। भाई छोटा था और कोई कमाने वाला नही। मै वापस अपने शहर एक छोटे स्कूल में टीचिंग करने लगी थी।
साकेत से प्रगाढ़ता बनी रही। वों मुझे ढाढ़स बँधाया करता था।
मेरे घर की माली हालत खराब होती रही। मॉ व पिता दोनों हम भाई-बहन को अनाथ कर बहुत दूर जा चुके थे।
क्रमशः
©️व्याकुल
बुधवार, 9 जून 2021
अन्तर्मन
सूना सूना जग लगे
मोह मोह सा त्यागे..
सन सन से लागे
मन मन ये भागे..
रुके रुके ठगे ठगे
कदम यूँ टँगे टँगे..
भूले भूले अपने लगे
खून खून पानी लगे..
भले भले क्यों लगे
काम तलाशने लगे..
लुटे लुटे मिटे मिटे
सगे सगे मुड़े मुड़े..
बहे बहे अविरल यें
क्यों रहें "व्याकुल" से..
©️व्याकुल
मंगलवार, 8 जून 2021
गिद्धम्
मानस रचयिता तुलसीदास जी का एक दोहा जो मुझे हमेशा से ही प्रिय रहा है:
बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं।
गिरि निज सिरनि सदा तन धरही।।
जलधि अगाध मौलि बह फेन।
सतत धरनि धरत सिर रेनू।।
अपने से छोटों को भरपूर स्नेह व सम्मान दें। यही तो सूत्र या सार, जो शायद सभी बड़े लोंगो को याद रखना चाहिये या उनकों अपने चैम्बर में कैलेंडर के साथ लटका लेना चाहिये।
चित्र: गूगल से
कलयुगी बड़े लोगों की प्रजाति कुछ कुछ गिद्ध जैसी गलत है,पूरा जीवन हवा में उड़ते रहते है। इतनी दूर तक हवा में उड़ जाते है कि जमीन या जमीनीं दोनों को नही दिखायी देते है। वैसे लोग मजाक में कह ही देते है, क्यों भाई दूरबीन लगाये हो क्या??? जो तुम्हे सब दिख गया...
पर एक भाई थे वो तो बड़ें लोगों को टेलीस्कोप से देख रहे थे कि शायद उड़ते-उड़ते दूसरें ग्रह पहुँच गये हो।
मुझे बड़ा रोमांच आता था गिद्धों को ऊँचाइयों पर उड़ान देखते हुयें। क्या खूब लहराते थे वों। कभी-कभी नीचे आ जाते थे। सर्प को पकड़ ले जाते थे... पर अब कलयुगी गिद्धों को कम दिखने लगा है, आते ही नही नीचे। हवा तो खाते नही होंगे, फिर ये कैसा अभिमान। अब तो गिद्ध भी कलयुगी हो गये।
हवा में एकछत्र राज्य का कसम गिद्ध ने खा नही रखा होगा। ठीक है अब वो नही दिखते प्रजाति तो विद्यमान है ही न।
पर्यावरणीय व्यवस्था में मुर्दाखोर पक्षी भी इंसानों जैसे हो गये दोनो को पेटू कहना गलत नही होगा पर ज़मीन पर आते रहने से पंख कमज़ोरी का अहसास नही होगा...
©️व्याकुल
धाकड़ पथ
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...
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वापसी की बेला में वों स्वयं ही रह जाता है उस अहसास के साथ जिसमें दर्द छुपा होता है बहुत सी बातों का कुछ अनकहे व बंद हो जाती है कानें खींच ...
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आज भिखारी ठाकुर जी की जयंती है। भिखारी ठाकुर भोजपुरी के बहुत ही नामचीन और बड़े गायक हैं उन्होंने परदेश पर कई गीत और गाने लिखे हैं इसमें मुझ...