FOLLOWER

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

मटकी


                          चित्र: गूगल से

कल थी जहॉ

आज भी वही

पनघट वही

नीर वही

प्यासे वही

छाले वही

लकीरे वही

मटकी वही....


मटकी बूँद नही

सागर की

हो पेय कन्हैया 

की

एक गुलेल मारे 

कान्हा

तार दे सुदामा 

सी....

@व्याकुल

शनिवार, 28 अगस्त 2021

प्रदूषण



हवायें गुफ्तगु 

कर रही

नैनो से

फुसफुसाये यूँ

आँसु न रूके

पलको की..


जलें यूँ जैसे

पेट के लिए

रतिजगा

किये हो

शहर बदहवास है 

बैचैन क्यों

दम क्यों घुट रहा

आगोश में

उसके..


ऊँचाइयों का

अर्थ क्या

इतना ही है

जहॉ छलनी हो

जाये तन

जीन की

परिष्कृता पर

हो जाये सेंध..


@व्याकुल


शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

चाणक्य के जासूस

श्री त्रिलोक नाथ पांडे द्वारा लिखित "चाणक्य के जासूस" उपन्यास, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, एक अत्यंत ही रोचक उपन्यास है जो यह दर्शाता है कि राजनीति रंगमंच में पर्दे के पीछे की कूटनीति कैसे होती है। पढ़ते वक्त कई बार ऐसा लगा कि मैं ईसापूर्व की शताब्दियों में चला गया हूँ। उपन्यास की खूबी यह है कि इसने शुरू से लेकर अंत तक बाँधे रखा। शब्दों का चयन बखूबी किया गया है। पुस्तक गुप्तचर्या का सटीक वर्णन करती है जो कि बहुत ही रोचक था।



आपने अपने उपन्यास में एक जगह उल्लेख किया है "प्रागेव विग्रहो न विधिः" हमेशा से ही ग्राही रही है जो कि आज के माहौल में बड़ी ही समीचीन लगती है।

लेखक ने एक जगह उल्लेख किया है कि व्यक्तिधर्म से बड़ा राजधर्म है। राज धर्म से बड़ा है राष्ट्रधर्म। यह बात भी आत्मसात करने लायक है।

लेखक ने गुप्तचर्या को इतनी बारीकी से वर्णन किया है कि यदि किसी को इस विधा में पारंगत होना है तो उसे इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।

चिकित्सा जगत के पितामह चरक को तो हम लोग सुनते आए हैं पर चाणक्य समकालीन थे यह आपके उपन्यास द्वारा ही पता लगा।

एक जगह लेखक द्वारा गणिकाओं के बारे में यह लिखा गया है (जो एक स्त्री अपने मनोभावों को प्रकट करती है) "एक संवेदनशील स्त्री, जो परिस्थितिवश अपना तन बेचने के लिए विवश होती हैं लेकिन, वह अपना मन नहीं बेचती। मन तो वह उसे देती हैं जिसे वह देना चाहती हैं और इसका वह कोई शुल्क नहीं लेती।"

अंत में लेखक की पुस्तक का सर्वश्रेष्ठ वाक्य जो मेरे ह्रदय को छू गया "सम्राट की कृपा साधक की साधना भ्रष्ट कर देती है। वह स्वतंत्र और निर्भीक चिंतक नहीं रह पाता।" यह वाक्य सीख देती है तमाम उन कलयुगी साधकों को जो इनाम या पुरस्कार पाने तिकड़म मे लगे रहते है।

ऐसी पुस्तक बार-बार पढ़ने को क्यों नही दिल करेगा.....जहॉ शोध का निष्कर्ष परिलक्षित होता है...

साधु!!!!!

साधु!!!!!


@व्याकुल

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

टेटुआ



जमीं पर 

बिकते

चंद सब्जी

मोल-भाव

करते 

अंतिम

गुंजाइश तक

और

टेटुआ

में

टटोलते

खनकते सिक्कें..


फिर

निरीह से

लौट 

लेते 

फिर न 

सुनायी

देती

हाट की

कोई भी

आवाज

भर जाती

शुन्यता

सें

बच्चे की

आशा भरी

पोर..


@व्याकुल

युवा

मस्त

बेफिक्र

आँखों में

सपने 

लिए

दो-दो हाथ

करने को

सदैव 

तत्पर...


बलिष्ठता

ही ध्येय

जीवन का

अलौकिक

सोच ऎसी 

जो

दिवारों को

गिरा दे

बँधी

मुट्ठी से..


कभी न

रूके

चलते रहते

निर्बाध

अनवरत

थकते नही

जिनके पॉव...


गाथा भरी 

पड़ी है

जिनके 

अनगिनत

अनकहे

सिलसिले 

पराक्रम से...

@व्याकुल

महाराणा प्रताप

रक्त बिघ्न हो रहा 

राष्ट्र दम घुट रहा 

दृग अश्रु बह चला 

धरा बांझ हो चला 

वीर घन चाह रहे 

धीर मन हाथ रहे

स्याह न रहे तन

आग से सना रहे

कण कण उद्विग्न हो

राष्ट्र जब हिल उठे

जन्म ले रहा कोई

अन्त्य अब खिल उठे

रहे न कोई अस्त्र विहीन

मरे न कोई शौर्य हीन

न भूख से डिगा कोई

न हार से भगा कोई

वक्ष अब धधक रहा

फिर तुम्हे पुकारता...

@व्याकुल

प्रयाण

कोई 

कही नही 

जाता  


प्रयाण करता 

है भी तो

ठिकाना बदलने को


ऊब जाता होगा

शायद

वही चेहरे

वही लोग

सब कुछ वही


निकल पड़ता है

अजनबी 

रास्तें की ओर

शायद कुछ

नवीनतम् 

देख सकें...


@व्याकुल

मिज़ाज

मिज़ाज क्या पूछा उनसे

मुस्कुरा दिये वो

मिरे मिज़ाज को

गुलबहार कर गये हो जैसे


मिज़ाज के खातिर

उँगलियां क्या छूई

काँपती हुई सी

कुछ इशारा कर गये हो जैसे


मिज़ाज की नब्ज टटोलने

निगाहें जो फेरी ऊधर

पलक बन्द कर

रूहानियत कर गये हो जैसे


मिज़ाज दरयाफ्त को

गया जो गली तक

होंठ बुदबुदायें ऐसे

सब बयां कर गये हो जैसे


मिज़ाज उनका

बना पैमाना मिरा 'व्याकुल'

जुस्तजू मुसलसल उनकी

हाल नासाज़ कर गये हो जैसे


@व्याकुल

लोकतंत्र बेमानी है!!!!!!

लॉकडाउन में गॉवों की ओर लौटते मजदूरों पर कविता-


हटा दो 

उन बेमानी शब्दों को

जो छद्म  लोकतंत्र की

परिभाषाए गढ़ रहे।


कर्ज क्यो नही अदा

कर पाये

और छोड़ दिये तड़पता हुआ

सडकों पर

या

रेल की पटरियों पर।


क्या 

कदम बढ़े न

अपनी माटी

की ओर

जो लपेटने को

फैलायें है बाँहे...


आत्ममुग्धता नही

हकीकत हूँ

खुशहाली 

का

आधार हूँ

खेतों का

या

ईंटों की

दीवार का..

पसीनें छुपे है

घर की छत हों

या कण आटें का ।


कैसे हो परिशोधन

प्रारब्ध का या 

मान लूँ

गरीब जन्मता ही गरीब है

और मरता भी गरीब है।

@व्याकुल

चींटी

चींटी सा ही चलू

पर चलता ही रहूँ 

नित नये कलेवर में

जन रवायत है ऐसा

करे जतन विस्मृत का


रंग नये हो या

संग नया हो

प्रमाण देते

पुनर्जीवन का


कौन देखे श्वेत श्याम 

खीचें जाये रंगो में

सप्तरंगी हो जाऊ मै

चुन लू जाऊ अपने ढंग से


तिनका हूँ प्रवाह की या

पंक्ति बनू काफिलों की 

चींटी सा ही चलू

पर चलता ही रहूं।

@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...