आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
FOLLOWER
मंगलवार, 7 सितंबर 2021
साक्षरता
सोमवार, 6 सितंबर 2021
कुलगुरु
नाम बदलने से क्या शिक्षा व्यवस्था सही हो जायेगी.. गुरु शब्द का अर्थ भारी या वजनदार भी होता है.. ये शब्द जोड़ने से क्या पद वजनदार हो जायेगा???? खैर मेरे कई मित्र एक कुन्तल के है... मै भी हूँ..वर्तमान परिदृश्य में तैरना आना चाहिये... हल्का इतना भी न हो... इधर की उधर करता रहे... नाम बदलने का मुख्य उद्देश्य पुरातनता का बोझ देना होगा.. तभी इतना भारी शब्द लाद दिया... देखते है कौन किसको ढो पाता है... व्यवस्था गुरु को या गुरु व्यवस्था को....!!!!!!!
विश्वविद्यालय में पहले वाले गुरु का कद अब छोटा हो जायेगा... वो कैटेगरी में छोटे गुरु हो जायेंगे... ये वाले बड़े गुरु... सब कहते फिरेंगे बड़े वाले गुरु.. माफ कीजियेगा.. बड़े वाले नही..सिर्फ बड़े गुरु...
किसी ने अगर कह दिया किं "जा रहा हूँ गुरु से मिलने", तुरन्त प्रत्युत्तर आयेगा "कौन वाले????"
अब कुछ लोग गुरु के अलग-अलग अर्थ निकालेंगे... पता नही कौन वाला अर्थ सेट हो जाये...
मुझे तो चिंता "गुरु गोविंद दोऊ खड़े..." की हो रही..
जय हो!!!!!!!!!
@व्याकुल
शनिवार, 4 सितंबर 2021
तपस्वीं
प्रयाग ज्ञानियों का आश्रयस्थल कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी.. न डिगे.. न टरे वाले तपस्वीं जो मेज-कुर्सी ठेले पर लाद लॉज तक बाखुशी लाये होंगे जहॉ बैठ अथक तपस्या कर सके। तौलिया का आश्रय स्थल जरूर कुर्सिया रही होंगी। हाथों की कुहनियॉ को सहारा देते मेज की भी आह निकल गयी होगी। कई बार तो उसने माथों को चूमा होगा जब हताश परेशान मेज पर सर टिका दिया होगा। तपस्या का आलम देखिये किं मेरे एक जानने वाले की कुहनियों पर चटाई का निशान बन गया था।
भारत देश के लोग वैसे भी भरपूर आध्यात्मिक होते है.. किसी पूर्व तपस्वी ने जरूर मार्ग बताया होगा कि यही वो जगह है जहॉ पर तपस्या सफल होती है.. फिर क्या था अनगिनत तपस्वियों ने योग मार्ग अपना लिया।
अल्लापुर हो या दारागंज या एलनगंज या कटरा हो... इलाहाबाद के तपस्वियों के लिये किसी एकांतवास से कम नही.. मन भटक ही नही सकता.. बगल के तपस्वी को देख पूर्णरूपेण दार्शनिकता व उर्जा घर कर जाती है.. मन भटकने का सवाल ही नही...
प्रयाग टेशन पर ट्रेन रुकते ही माघ जैसा दृश्य... साथी द्वारा तुरंत सामान की तलाशी जैसे कोई जड़ी-बूटी ढूंढ़ रहे हो। लईया.. गुड़..गट्टा.. बताशा.. कुछ भी मिल जाये.. ये किसी विटामिन से कम है क्या..लिये नही किं फिर हो जाते है ईश्वर में लीन।
भगीरथ जरूर गंगा धरा पर लाये होंगे.. पर न जाने कितने भगीरथ प्रयास हुये होंगे ज्ञान रूपी गंगा को जन-जन तक पहुँचाने में।
सरस्वती मॉ की रात दिन वन्दना करते इन तपस्वियों को बारम्बार नमन करता हूँ.... और यह श्रृंखला 135 वर्षो से जो आज तक सतत् बनी हुई है.... भविष्य में भी ऐसी ही धारा बनी रहनी चाहिये...
@व्याकुल
बुधवार, 1 सितंबर 2021
व्यथा चश्मे की
सुबह उठते ही
मुझे ही ढूढ़ते थे
कितने धीर हो
जाते थे तुम..
बड़े ही शौक से
तुमने चुना था मुझे
कई थे वहा
मेरे प्रतियोगी में..
जब तुमने मुझे
देखा तो
फिर कोई और
पसंद नही आया..
ध्यान इतना देते
थे कि
थोड़ा सा भी
मैल नही होने
देते थे..
एक दिन
मैं गिरा
डंडा
बदलवाया
फिर तू
लापरवाह
हो गया..
आज
गज़ब कर
दिया
एक हाथ
दिया और
गुस्से में मुझे
गिरा दिया..
पहले भी
मेरे ऊपर
बैठ गए थे
मेरी तो आह!
निकल गयी थी
कभी श्रृंगार
सा था
अब नाज़ायज़
सा..
यही फितरत है
तुम इंसानो की
मतलब ही रिश्ते
निभा रहा है
अन्यथा सब बेकार
है..
@व्याकुल
तुम
सफर थकाने वाला रहा
आप से तुम तक का
कल तक मर्यादाए थी
तुम बोल पाने में...
तुम भी बैचेन थी
लकीर तुम्हे भायी नही थी
वर्जनाओं को
तार-तार तुम्हीं ने की थी..
कल स्वप्न देखा था
लहरों को आगोश में लेते हुए
सुबह शुन्य में
विचरण करता रहा
गुँजता रहा कानों में
तुम का घोल
पिघलते रहे आप
बेसबब....
@व्याकुल
मंगलवार, 31 अगस्त 2021
माटी
अमोल का बहुत दिनों से मन नहीं लग रहा था विदेशी धरती की कुसंस्कृति उसको अंदर तक कचोटती रहती थी। आज दोस्तों के कहने पर क्लब आना पड़ा था उसे। सब मग्न थे पार्टी में पर वह उदास एक तरफ बैठा था।
सुबह से ही मन उद्विग्न था। पिता की तबीयत खराब थी। ठीक से बात नहीं कर पा रहे थे हर एक शब्द के बाद जोर की खांसी उन्हें पूरा वाक्य करने में दिक्कतें दे रहे थे, साथ ही वे कहते जा रहे थे, "बेटा, मैं बिल्कुल ठीक हूं, चिंता की जरूरत नहीं, तुम अपना ख्याल रखना।"
देर रात पार्टी के बाद उदास बैठा था अभी फोन की घंटी बजी। दिल धक से हो गया। जैसे ही फोन उठाकर देखा किसी कम्पनी के विज्ञापन का फोन था। मन गुस्से से बाहर किया। ये उपभोक्तावादी युग जब तक इंसान को मार नही देगा, साँस नही लेने वाला।
सुबह तक अमोल को नींद नहीं आयीं थी। सुबह चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर खिड़की से झांक कर बाहर देखा तो सूर्य देवता अँगड़ाई ले रहे थे। आँखें मलते उनकी लालिमा परिलक्षित हो रही थी।
तुरंत ही फोन मिलाया। 'टू' 'टू' कर फोन कट गया था। चिंता की लकीरें उसके माथे पर घिर आयी थी। तेजी से एक मुक्का मेज पर दे मारा।
गांव से दिल्ली शहर का सफर दिल्ली से कैलिफोर्निया का सफर कैसे समय के साथ गुजर गया, पता ही नही चला। समय की गति भी अनहोनी है। इंसान के पास जब कुछ नहीं होता तब वों हर चीज पाने की आस रखता है। चीजें मिल जाने पर फिर पुरानी यादों की टीस जीवन पर भारी पड़ने लगती है।
अमोल ने फिर से फोन किया। पिता जी का फिर वही खांसी। बात ठीक से नहीं हो पा रही थी उसकी आंखों में आंसू छलक आए थे। आवाज भारी हो गई थी।
सारा दिन अमोल उलझनों में रहा। मन में संकल्प ले लिया था। वों ऑफिस में अपने बॉस से मिला। त्यागपत्र का कारण बॉस ने पूछा था, "सोच लो बहुत बड़ी कंपनी है, लोंग यहां आने के लिए तरसते हैं" वों मूक था। मन में यही चलता रहा किं ऐसे पैसों का क्या करूँगा जब मेरे पालनहार ही नहीं होंगे। गाँव में कोई भी व्यवसाय कर लूंगा कम-से-कम इस दुनिया में मेरे साथ मेरे मां-बाप तो होंगे।
अमोल अमेरिका छोड़ने का मन बना चुका था। अगले दिन शाम की फ्लाइट थी। वों गांव आ गया था। लग रहा था जैसे वों किसी जेल में था या अस्पताल के वेंटिलेटर से मुक्त होकर खुली सांसे ले रहा था।
स्वदेशी माटी ही आपको तराशती है किं आप सारे विश्व में ढल सके। फिर भी वों माटी हतप्रभ रह जाती है जब अपने गले लगाने का संकोच करने लगते हैं।
अमोल ने सारे भ्रमों को तोड़ दिया था। माटी को जैसे पुनर्जीवन मिल गया हो।
@व्याकुल
डंठी
राह पर
रहु
या वजह बनु
छॉव की
खुद जलु धूप
पी कर
या ज्वाला की
ताप
सहूँ
अन्न पकने को..
कपकँपाते हाथ
से सहलाते
ओस से
सिहरते
बदन
बन सकु
राख
किसी का..
बना ही
रहूँ
कृशकाय
अभिलाषा
लिये दधीचीं का
पर
बोझ न बनु
किसी
दीन का...
@व्याकुल
मटकी
चित्र: गूगल से
कल थी जहॉ
आज भी वही
पनघट वही
नीर वही
प्यासे वही
छाले वही
लकीरे वही
मटकी वही....
मटकी बूँद नही
सागर की
हो पेय कन्हैया
की
एक गुलेल मारे
कान्हा
तार दे सुदामा
सी....
@व्याकुल
शनिवार, 28 अगस्त 2021
प्रदूषण
हवायें गुफ्तगु
कर रही
नैनो से
फुसफुसाये यूँ
आँसु न रूके
पलको की..
जलें यूँ जैसे
पेट के लिए
रतिजगा
किये हो
शहर बदहवास है
बैचैन क्यों
दम क्यों घुट रहा
आगोश में
उसके..
ऊँचाइयों का
अर्थ क्या
इतना ही है
जहॉ छलनी हो
जाये तन
व
जीन की
परिष्कृता पर
हो जाये सेंध..
@व्याकुल
शुक्रवार, 27 अगस्त 2021
चाणक्य के जासूस
श्री त्रिलोक नाथ पांडे द्वारा लिखित "चाणक्य के जासूस" उपन्यास, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, एक अत्यंत ही रोचक उपन्यास है जो यह दर्शाता है कि राजनीति रंगमंच में पर्दे के पीछे की कूटनीति कैसे होती है। पढ़ते वक्त कई बार ऐसा लगा कि मैं ईसापूर्व की शताब्दियों में चला गया हूँ। उपन्यास की खूबी यह है कि इसने शुरू से लेकर अंत तक बाँधे रखा। शब्दों का चयन बखूबी किया गया है। पुस्तक गुप्तचर्या का सटीक वर्णन करती है जो कि बहुत ही रोचक था।
आपने अपने उपन्यास में एक जगह उल्लेख किया है "प्रागेव विग्रहो न विधिः" हमेशा से ही ग्राही रही है जो कि आज के माहौल में बड़ी ही समीचीन लगती है।
लेखक ने एक जगह उल्लेख किया है कि व्यक्तिधर्म से बड़ा राजधर्म है। राज धर्म से बड़ा है राष्ट्रधर्म। यह बात भी आत्मसात करने लायक है।
लेखक ने गुप्तचर्या को इतनी बारीकी से वर्णन किया है कि यदि किसी को इस विधा में पारंगत होना है तो उसे इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
चिकित्सा जगत के पितामह चरक को तो हम लोग सुनते आए हैं पर चाणक्य समकालीन थे यह आपके उपन्यास द्वारा ही पता लगा।
एक जगह लेखक द्वारा गणिकाओं के बारे में यह लिखा गया है (जो एक स्त्री अपने मनोभावों को प्रकट करती है) "एक संवेदनशील स्त्री, जो परिस्थितिवश अपना तन बेचने के लिए विवश होती हैं लेकिन, वह अपना मन नहीं बेचती। मन तो वह उसे देती हैं जिसे वह देना चाहती हैं और इसका वह कोई शुल्क नहीं लेती।"
अंत में लेखक की पुस्तक का सर्वश्रेष्ठ वाक्य जो मेरे ह्रदय को छू गया "सम्राट की कृपा साधक की साधना भ्रष्ट कर देती है। वह स्वतंत्र और निर्भीक चिंतक नहीं रह पाता।" यह वाक्य सीख देती है तमाम उन कलयुगी साधकों को जो इनाम या पुरस्कार पाने तिकड़म मे लगे रहते है।
ऐसी पुस्तक बार-बार पढ़ने को क्यों नही दिल करेगा.....जहॉ शोध का निष्कर्ष परिलक्षित होता है...
साधु!!!!!
साधु!!!!!
@व्याकुल
धाकड़ पथ
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...
-
वापसी की बेला में वों स्वयं ही रह जाता है उस अहसास के साथ जिसमें दर्द छुपा होता है बहुत सी बातों का कुछ अनकहे व बंद हो जाती है कानें खींच ...
-
आज भिखारी ठाकुर जी की जयंती है। भिखारी ठाकुर भोजपुरी के बहुत ही नामचीन और बड़े गायक हैं उन्होंने परदेश पर कई गीत और गाने लिखे हैं इसमें मुझ...