बिकते
चंद सब्जी
मोल-भाव
करते
अंतिम
गुंजाइश तक
और
टेटुआ
में
टटोलते
खनकते सिक्कें..
फिर
निरीह से
लौट
लेते
फिर न
सुनायी
देती
हाट की
कोई भी
आवाज
व
भर जाती
शुन्यता
सें
बच्चे की
आशा भरी
पोर..
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
बिकते
चंद सब्जी
मोल-भाव
करते
अंतिम
गुंजाइश तक
और
टेटुआ
में
टटोलते
खनकते सिक्कें..
फिर
निरीह से
लौट
लेते
फिर न
सुनायी
देती
हाट की
कोई भी
आवाज
व
भर जाती
शुन्यता
सें
बच्चे की
आशा भरी
पोर..
@व्याकुल
मस्त
बेफिक्र
आँखों में
सपने
लिए
दो-दो हाथ
करने को
सदैव
तत्पर...
बलिष्ठता
ही ध्येय
जीवन का
अलौकिक
सोच ऎसी
जो
दिवारों को
गिरा दे
बँधी
मुट्ठी से..
कभी न
रूके
चलते रहते
निर्बाध
अनवरत
थकते नही
जिनके पॉव...
गाथा भरी
पड़ी है
जिनके
अनगिनत
अनकहे
सिलसिले
पराक्रम से...
@व्याकुल
रक्त बिघ्न हो रहा
राष्ट्र दम घुट रहा
दृग अश्रु बह चला
धरा बांझ हो चला
वीर घन चाह रहे
धीर मन हाथ रहे
स्याह न रहे तन
आग से सना रहे
कण कण उद्विग्न हो
राष्ट्र जब हिल उठे
जन्म ले रहा कोई
अन्त्य अब खिल उठे
रहे न कोई अस्त्र विहीन
मरे न कोई शौर्य हीन
न भूख से डिगा कोई
न हार से भगा कोई
वक्ष अब धधक रहा
फिर तुम्हे पुकारता...
@व्याकुल
कोई
कही नही
जाता
प्रयाण करता
है भी तो
ठिकाना बदलने को
ऊब जाता होगा
शायद
वही चेहरे
वही लोग
सब कुछ वही
निकल पड़ता है
अजनबी
रास्तें की ओर
शायद कुछ
नवीनतम्
देख सकें...
@व्याकुल
मिज़ाज क्या पूछा उनसे
मुस्कुरा दिये वो
मिरे मिज़ाज को
गुलबहार कर गये हो जैसे
मिज़ाज के खातिर
उँगलियां क्या छूई
काँपती हुई सी
कुछ इशारा कर गये हो जैसे
मिज़ाज की नब्ज टटोलने
निगाहें जो फेरी ऊधर
पलक बन्द कर
रूहानियत कर गये हो जैसे
मिज़ाज दरयाफ्त को
गया जो गली तक
होंठ बुदबुदायें ऐसे
सब बयां कर गये हो जैसे
मिज़ाज उनका
बना पैमाना मिरा 'व्याकुल'
जुस्तजू मुसलसल उनकी
हाल नासाज़ कर गये हो जैसे
@व्याकुल
लॉकडाउन में गॉवों की ओर लौटते मजदूरों पर कविता-
हटा दो
उन बेमानी शब्दों को
जो छद्म लोकतंत्र की
परिभाषाए गढ़ रहे।
कर्ज क्यो नही अदा
कर पाये
और छोड़ दिये तड़पता हुआ
सडकों पर
या
रेल की पटरियों पर।
क्या
कदम बढ़े न
अपनी माटी
की ओर
जो लपेटने को
फैलायें है बाँहे...
आत्ममुग्धता नही
हकीकत हूँ
खुशहाली
का
आधार हूँ
खेतों का
या
ईंटों की
दीवार का..
पसीनें छुपे है
घर की छत हों
या कण आटें का ।
कैसे हो परिशोधन
प्रारब्ध का या
मान लूँ
गरीब जन्मता ही गरीब है
और मरता भी गरीब है।
@व्याकुल
चींटी सा ही चलू
पर चलता ही रहूँ
नित नये कलेवर में
जन रवायत है ऐसा
करे जतन विस्मृत का
रंग नये हो या
संग नया हो
प्रमाण देते
पुनर्जीवन का
कौन देखे श्वेत श्याम
खीचें जाये रंगो में
सप्तरंगी हो जाऊ मै
चुन लू जाऊ अपने ढंग से
तिनका हूँ प्रवाह की या
पंक्ति बनू काफिलों की
चींटी सा ही चलू
पर चलता ही रहूं।
@व्याकुल
आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ... इस अवसर पर मेरी रचना जो राष्ट्र को समर्पित है..
बात हो आन की
या घट रहे शान की
बलि जाये परार्थ में
घटोत्कच सा रण में
अंत हो दंभ का या
नारी की लाज का
दुर्योधन सी मौत दे
जंघा भी चीर जाये
पुनः एक प्रयास हो
लघु का विस्तार हो
प्यार से जो दे न सके
खींच ले शस्त्र से
रणभेरी बजे काषल से
जैसे शंकरा ने उठायी
संकल्प हो परास्त का
अखंडता उन्मूलन का
मर्यादा क्यों अब लांघना
विदेशियों से क्यो याचना
लोधी क्यो जो बन गये
परायी धरा कर गये
आग सर पर रहे
भरत घर-घर रहे
भुजायें फड़कती रहे
आग धधकती रहे
मना ले ये दिवस खूब
खोज ले एक मंत्र ये
कराग्रे से जो ताल हो
करे जाप राष्ट्र का
@व्याकुल
आत्मसात् करुँ कैसे
इष्ट देव को अपने
पन्नें उलटू हरिवंश का
जो वर्णित करे
ग्वाल को
या भागवत पुराण के
लीला को
या विष्णु पुराण के
रहस्य को
मनाऊँ किस रूप को
आठवें अवतार विष्णु को
या आठवें वसुनंदन को
धन्य हो मथुरा जन्म से जिनके
इठलायें गोकुल बाल क्रीड़ा से जिनके
मोहें मनमोहक कान्हा
रेंगते घुटनों पर
बंशी बजाते नृत्य से
या माखन चोर से
पाप का नाश कर
कंस का वध कर
सारथी बन जीवन तारे
कर्मयोगी का पाठ
पढ़ाकर
पथ दिखाये पार्थ को
पुकारूँ किस नाम से
कृष्ण मोहन गोविन्द
गोपाल
माधव केशव
कन्हैया श्याम
उलझता ही जाऊ
हर-पल प्रतिपल
नटवर बन छकाते
खूब हो
कभी जगन्नाथ बन या
या विट्ठल या श्रीनाथ
या द्वारिकाधीश बन
रूला गये गोपियो
ग्वाल बाल को
त्याग गये भालका मृत्यलोक
चल पड़े वैकुंठ को
@व्याकुल
चार दिनों से उसने खाना पीना बंद कर दिया था। दमयंती जब से ससुराल गयी थी वों अपने आप को तन्हा पा रहा था। यश के घर वालों ने उसे बहुत समझाया पर वों मौन था।
पूरे गॉव में इनके चर्चे थे। दमयंती के घर वाले एक ही बिरादरी व एक ही गॉव के नाते शादी को तैयार नही थे।
शादी दमयंती के ही साथ करने को यश ने कसम खायी थी। दोनों का प्रेम गहरा था। दमयंती के घर वाले सामंती प्रथा के पोषक थे जबकि यश का परिवार सामान्य किसान।
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दमयंती का पति विजय नशेड़ी था। शराब पी कर पड़ा रहता था। पुश्तैनी जमीन-जायदाद बहुत सारी थी उसके पास। कभी-कभी सारी रात घर से गायब रहता था।
दमयंती के नसीब में शायद यही लिखा था। रोते रहने के सिवा और कोई चारा भी न था। यही सोचती रहती क्या स्त्री का जन्म सिर्फ कष्ट भोगने के लिये ही हुआ है.... कुछ समझ न आता उसकों... मन यही कहता लौट जाऊ अपने पीहर जहाँ यश था जो उसकी भावनाओं को समझता था।
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यश उदास रहने लगा। घर वाले उसकी शादी के दबाव बनाने लगे पर उसने शादी नही करने के लिये स्पष्ट कह दिया था। सब निरूत्तर थे।
यश का गौर वर्ण.. रौबीला चेहरा.. मांसल देह व सबके मन को मोह देने वाला व्यक्तित्व था... फुर्तीला गजब का था.. गॉव में जब भी कबड्डी या कोई खेल होता.. उम्दा तरीके से अपनी टीम को विजयी बनाता। साहस तो कूट-कूट कर भरा हुआ था। गॉव में एक बार डकैतों का हमला हुआ था। उसने अकेले दम पर डकैतों के छक्के छुड़ा दिये थे, उस दिन तो सारे गॉव में उसकी जय-जय होने लगी थी। दमयंती के आँखों में बस गया था वों।
वो मौके की तलाश में रहती कैसे यश से मुलाकात हो जाये। गॉव की एक शादी में दोनों के नैन मिले फिर क्या था दमयंती का चेहरा शर्म से लाल हो गया था।
दोनो की मुलाकात अनवरत् होने लगी थी। दोनों के मकान के बीच में कोलिया (मकानों के बीच पतली गली) थी। वहॉ किसी का भी आना-जाना नही होता था। यश को याद है उसने पहली मुलाकात में दमयंती को कस कर अपनी बाहों में भींच लिया था। दमयंती तो पिघल गयी हो उसके बाहों में।
मेला हो या कोई भी सार्वजनिक कार्यक्रम कोई मौका नही चूकते थे दोनों मिलने का।
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जाति-धर्म-कुनबा और न जानें कितनी शब्दावलियाँ है जो प्रेम में आड़े आती रही है। न जाने कितने दिल टूट कर बिखर गये होंगे। समाज की बंदिशें प्रेम पर ही इतना ज्यादा क्यो हैं....
दमयंती की स्थिति पिंजड़े में बंद एक चिड़ियाँ जैसी हो गयी थी। आकाश देख तो सकती है पर छू नही सकती।
आज शादी को एक वर्ष हो गये थे। शादी की वर्षगाँठ ससुराल में बड़ी ही धूमधाम से मनाने की परम्परा थी। विजय कों घर के बड़ो ने ताकीद की थी शाम को समय से घर आने का। मै बहुत खुश थी।
घर बहुत अच्छे ढंग से सजाया गया था। उत्सव जैसा माहौल था घर पर। मेहमानों के आने का क्रम शुरू हो गया था।
विजय को छोड़ सभी आ गये थे।
तभी पुलिस की एक गाड़ी आयी। उस गाड़ी में सफेद कपड़ो में लिपटा कोई मृत शरीर भी था। तभी हवा का एक झोंका आया सफेद कपड़ा आधा उड़ गया था। दमयंती के पॉवों से जैसे ज़मीन ही खिसक गयी थी। वो विजय था। घर में मातम मच गया था।
कुलक्षणी के आरोप लगने लगे। दमयंती को मायके पहुँचा दिया गया।
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यश को मुझसे भरपूर सहानुभूति थी।
मै एक दिन मंदिर की परिक्रमा कर रही थी.. तभी वों मुझे वही मिल गया। उसी कोलिया में मिलने के लिये बोल कर निकल गया था।
थोड़ी देर बाद मै भी पहुँच गयी थी। उसने मुझे जैसे ही पकड़ा। मै अपने आपे में नही रही थी। बहुत देर तक एक दूसरे में खोये रहे।
बारिश का मौसम था। मेरे घर कोई नही था। सिर्फ मै अकेली। यश एकाएक किसी बहाने आ गया था। दोनों अपने आपे में नही थे....
घर में कोहराम मच गया था..
"रे नाशपीटी!!!!! किसका पाप ले आयी....."
आज फिर एक डोली उठ रही थी सफ़ेेद कपड़ो में.....
@व्याकुल
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...