बनना तो
चोटी
हिमालय
श्रृंग सा...
पिघल
भी
जाना
तृप्त
करने को...
करके
आत्मसात
छोटे
नीर को...
इठला
कर
भटक
न जाना
राह में...
भर
आना
झोली
हाथ फैलाए
इंसानों की...
दाता
बनना
या
समाये
रखना
बीज
प्रकृति का....
इतना
ही
करना
हिमालय सा
अटल
बने रहना...
@व्याकुल
आस पास तड़पते लोगो को देखना और कुछ न कर पाना कितनी कोफ़्त होती है न। व्याकुलता ऐसे ही थोड़े न जन्म लेती है। कितना तड़प चुका होगा वो। रक्त का एक एक कतरा बह रहा होगा। दिल से कह ले या आँखों से। ह्रदय ग्लानि से कितना विदीर्ण हो चुका होगा। पैर भी ठहर गए होंगे। असहाय इस दुनिया में सिवाय एक निर्जीव शरीर के।
बनना तो
चोटी
हिमालय
श्रृंग सा...
पिघल
भी
जाना
तृप्त
करने को...
करके
आत्मसात
छोटे
नीर को...
इठला
कर
भटक
न जाना
राह में...
भर
आना
झोली
हाथ फैलाए
इंसानों की...
दाता
बनना
या
समाये
रखना
बीज
प्रकृति का....
इतना
ही
करना
हिमालय सा
अटल
बने रहना...
@व्याकुल
घुटने को माथे तक सिकोड़ ली
गरीब की कथरी जब पैरो से सरक गयी...
आँसु बेसुध से बह गये
रोटी की भूख से जब पड़ोसी तड़प गये...
माथे की लकीरे बयाँ कर गयी
खेत की बेहन जब दगा कर गयी...
फंदा तलाशता रहा रात भर
वो भी मुझसे दगा कर गयी...
नजरे चुरा फिरता रहा 'व्याकुल'
खेत रेहन से जो उलझ गयी...
@व्याकुल
अटल दोनो थे
महामना भी..
मालवा की
निशानी भी..
नक्षत्र एक थे
बँटे हुये काल के..
मानक थे
उन विधाओं के..
शिक्षा को
नभ सा
विस्तार देते..
या
नव आयाम
देते
क्षुद्र होती
राजनीति
ऊठा-पटक कों..
नमन उन
धीर नमना को..
करू प्रणाम
अटल युक्त
महामना
व
महामना सा
अटल को...
@व्याकुल
38 वर्ष(1891 से 1929) लगे 12 से 14 वर्ष होने में... 20 वर्ष (1929 से 1949) लगे 15 वर्ष होने में... सिर्फ छः वर्ष यानि 1955 में 18 वर्ष की गयी... 66 वर्ष लग गये 21 होने में... भारतीय समाज में पहले बच्चों की संख्या ज्यादा होने से शादी पर विशेष फोकस होता था जिससे माँ-बाप जल्दी उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाये.. अधिकतर लड़कियाँ प्राथमिक तक ही सीमित हो जाती थी... इसलिये शादी की उम्र सरकार क्या निर्धारण कर रही.. कोई ध्यान नही देता था। दक्षिण भारत का नही पता पर उत्तर भारत में 30-35 वर्ष पहले तक लड़कियाँ 18 वर्ष से पहले तक व्याह दी जाती थी।शिक्षा का प्रसार व ललक बढ़ने के साथ ही घर से बाहर लड़कियों के निकलने की शुरुआत हुई। प्रेम विवाह के ही समय न्यूनतम देखा जाने लगा किं कैसे विवाह को अवैध घोषित किया जायें। अब 21 वर्ष होने से इस उम्र से पहले तक प्रेम विवाह करने वालों पर आफत आयेगी। न्यूनतम उम्र बढ़ने का पता नही समाज में इसका क्या असर होगा...कुछ कह पाना मुश्किल होगा...वैसे अमेरिका, फ्रांस व जर्मनी में न्यूनतम आयु 18 वर्ष है जबकि ब्रिटेन जैसे देश में 16 वर्ष। इन विकसित देशों में इतनी कम आयु (खासकर ब्रिटेन में) होने का मतलब वहाँ कम आयु मेें ही बच्चों का परिपक्वता प्राप्त कर लेना ही दर्शाता है। अच्छी बात ये है कि लड़का या लड़की की न्यूनतम आयु में जेंडर आधारित कोई भेदभाव नही किया गया है।बहुत से एशियाई देशों में आज भी जेंडर के आधार पर आयु में विभिन्नताएं मिल जायेंगी। खैर इससे संबंधित समिति ने 16 विश्वविद्यालय के छात्रों से प्राप्त फीडबैक के आधार पर अपनी संस्तुति दी थी।
@व्याकुल
विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान कभी-कभी चर्चा का विषय सुष्मिता व ऐश्वर्या रहती थी। कई तरह के तर्क सुनने को मिल जाया करते थे। आखिर इन भारतीय सुन्दरियों में क्या खूबी रही जो इनको विश्व स्तर पर पहचान दिला रहा था। ये दोनो 1994 में विश्व सुन्दरियां चुनी गयी थी। भारत भी आर्थिक उदारीकरण के दौर से गुजर रहा था जिसकी शुरुआत 1991 से हो चुकी थी। ये समझने में समय लग रहा था कि आखिर भारतीय बालायें सुन्दर हो रही थी या उपभोक्तावादी संस्कृति की नींव पड़ रही थी। समय के साथ समझने में देर नही लगी कि ये सौन्दर्य प्रशाधन के प्रोत्साहन का भी परिणाम हो सकता है व बाकी लड़कियों के लिये ऐसे प्रोडक्ट का प्रयोग करने हेतु उत्साहवर्धन का भी कार्य कर सकता है जो दिखावे की संस्कृति व भोग की संस्कृति की ओर समाज को ले जाने वाला है।
हरनाज संधु का 2021 में मिस युनिवर्स चुना जाना निःसंदेह 1994 के दौर में जाने- अनजाने में ले गया। दुनिया में महिलाओं की कुल आबादी 387 करोड़ है, जिसमें से 15% महिलाएं युवा हैं। जिनमें 18% भारतीय महिलायें है। अब इससे बड़ा बाजार कहाँ मिलेगा?????
@व्याकुल
पुरानी गलियों या मोहल्लों में जाने पर नजरे कुछ-कुछ झुक जाती है। 45 डिग्री का कोण बना लेती है। निशान ढूंढ़ने लगती है। कुछ तो मिले। सड़क किनारे के चबूतरे ही मिले जहाँ कभी स्कूल से आते बैठकर थकान मिटाते थे। आइसक्रीम वही तो बैठकर खत्म होती थी। घर आकर सिर्फ नाटक करना होता था बहुत तेज भूख लगने की। उसी चबूतरे पर किसी बुजुर्ग को सुबह चाय को अखबार के साथ सिप करते हुये भी देखना सुखद होता था। अब तो शायद ही किसी मोहल्ले में 75 वर्ष से ऊपर के 10 बुजुर्ग मिल जायें नजरे बोझिल हो उठती है जब उसे कुछ नही मिलता। आँखे मला जाता है फिर से नजरों को साफ करने के लिये। याद आता है ये तो वही चबूतरा है जहाँ हीरो फिल्म की कहानी खत्म हुई थी। शोले फिल्म की कहानी तो हनु ने इसी चबूतरे पर किश्तो में सुनाई थी।
भूले से कोई शख्स मिल ही जाये अगर तो जैसे हीरा मिल गया हो। हर बाते होने लगती है। हर शख्स मेें बचपन अपनी परछाई ढूढ़ता है। बुढ़ापे ने तो जैसे खुदखुशी कर रखी हो। सेतू ही न रहेगा तो पीढ़ियाँ जुड़ेंगी कैसे.....
सदियों का सफर दिनों में कैसे कट जाता है। कुछ निशानी तो हो जिसे लपेट लूँ.... कुछ वर्ष पहले पिताजी कोलकाता गये थे.. नीरसता ही हाथ लगी थी.. इंसान तो क्षणिक है भूगोल तो नही.. फ्लाईओवर से कैसे तलाशेंगे जमीं की हकीकत.... नजरे धोखा खाती रही...
डलिया पर मकोई रखे रामू काका ही दिख जाते जिसे खाते ही एक बार मूर्छा आ गयी थी या स्कूल के साईकिल स्टैंड पर बनवारी जिन्होंने कत्था खाते देखते ही बोला था, " गया मर्द जो खाये खटाई"
गलियाँ बड़ी हुआ करती थी... "बोनतड़ी" अब कैसे खेलेंगे....बाहर गाड़ियों ने अड्डा जमा लिया... गलियों के किनारे खड़े पुराने मूक मकान असीम सुख दे जाते है अब जैसे कह रहे हो तुम्हारे नाली से निकले गेंदो के निशानों को मैने अब तक संभाल रखा है.....
@व्याकुल
सदियों
की शोषित
परम्परा
जाल का
खेल
कौन
नही बुनता..
और
शिकारी
टकटकी
लगाये रहता
फिर
मादकता
से
चमक उठता
मांसल से
देह का..
@व्याकुल
शिल्पा शेट्टी पर हुये बवाल के बाद हिन्दुस्तान में बिग ब्रदर जैसे किसी कार्यक्रम की जानकारी आमजन को हुई थी। तब इस तरह के कार्यक्रम विदेशों तक ही सीमित थे। 'बिग बॉस' 'बिग ब्रदर' का भारतीय वर्ज़न है. वहीं 'बिग ब्रदर' में ही एक्ट्रेस शिल्पा शेट्टी को 2007 में रंगभेद का सामना करना पड़ा था। इसका प्रचार प्रसार विश्व के 42 देशों तक फैल चुका है।
2007 में बिग बॉस ने भारत में शुरुआत की। अब ये घर-घर तक घुसपैठ कर चुका है। साल के तीन महीने सब समीक्षा में लग जाते है। कौन कैसा खेल रहा... किसके जीतने की सम्भावनाये है..कौन फाईनलिस्ट होगा.. इत्यादि इत्यादि।
अच्छे खासे पढ़े- लिखे लोगों के रिव्यु करते दिख जायेंगे.. अगर आपकी प्रवृत्ति ताक-झाँक की है तो ये कार्यक्रम निश्चित रूप से पसंद आयेगी जैसे- कौन किसके साथ फ्लर्ट कर रहा... कौन कैसी चुगली कर रहा... कौन नारद की भूमिका में है... कौन शब्दों से पलटी मार रहा.... सामान्य जीवन में ये सब प्रत्यक्ष रूप से देख नही पाते है। यहॉ ये सब कैमरा दिखा देता है।
प्रपंच न हो तो जीवन कैसा- मसाला भरा न हो जीवन में तो जीवन कैसा- प्रपंच ऐसा कि सब दिख रहा पर जैसा जीवन जी आये उससे मुक्ति कैसे हो। प्रवाह में बह ही जाना है...अहं बहता है गाली-गलौज व अपशब्दों में। दर्शक आँखे फाड़ कर खिखियाता है और बच्चों में नये संस्कारों का इंजेक्शन धीरे से घुसपैठ बना लेती है....
@व्याकुल
"दूध का उबलना" एक सटीक बहाना होता था पत्नी को शहर अपने साथ ले जाने के लियें। कुछ लोंग हाथ जला लेते थे। मॉ-बाप पत्नी को साथ ले जाने की अनुमति दे ही देते थे किं ये समझते हुये कि ये बहाना बना रहा।
कुछ तो मुँह ऐसा बना कर घर आते थे जैसे सालों से खाना न खाया हो। ये संकेत होता था लड़का व्याकुल है बाहर साथ ले जाने को।
मूलतः ये समस्या संयुक्त परिवार में ज्यादा होता था। बड़े-बुजुर्गो को भी डर लगा रहता था कहीं बच्चें बाहर जाकर बिगड़ न जायें। पाबंदी होती थी पर अभिनय में सफल में हो गये तो समझिये काम बन गया।
मेरे साथ तो सही में एक घटना हो गयी थी। पत्नी प्रयागराज थी। सुबह दूध गर्म करने को रखा था। अॉफिस निकलने के समय तक याद ही नही रहा। दूध, भगोने सब जलने लगे। मकान मालिक क्या करते बेचारे???तब मोबाइल फोन का चलन भी नही था। टेलीफोन डायरेक्टरी में एच. बी. टी. यू. का नं. खोजा गया। मेरे डायरेक्टर का फोन मिला। उनके पी. ए. को फोन पर सूचना मिला। मुझे व्यंगात्मक लहजे में बताया गया, "क्या गुरु, कहाँ भगोना जला रखे हो" मुझे मामला समझ आ गया। तुरंत घर आया। धुँयें से घर भर गया था।
तभी से लापरवाही का ठप्पा लग गया था। किचेन कार्य से मुक्ति भी मिल गयी थी।
खैर!!!! आप सभी ऐसा जोखिम न लीजियेगा....
@व्याकुल
भैया बम्बई जबसे कमाने गये, भाभी के तो जैसे पंख लग गये। भैया गॉव छोड़कर कही नही जाना चाहते थे। वे खुश थे अपने बाप-दादाओं की जमीन पर। स्वाभिमान की रोटी खाना उन्हे पसंद था। कहते थे जितनी मेहनत हम दूसरों के लिये करेंगे उतना मेहनत अपने गॉव में रहकर करना पसंद करेंगे।
भैया दर्शन शास्त्र से परास्नातक थे। विश्वविद्यालय स्तर पर गोल्ड मेडलिस्ट थे। पढ़ाई के बाद गॉव का मोह उन्हे खींच लाया था।
भाभी को बहुत परेशानी थी। कहती रहती निठल्ले जैसे पड़े रहते हो। मेरे पिता ने किसी निठल्ले से शादी नही की थी। दिन भर ताना मारा करती थी।
अपने दोस्त सुरेश को देखिये। मुम्बई में बच्चे साफ-सुथरे कपड़े पहनते है। बाहर खाना खाते है और आप यही कथरी ढोते रहिये।
भैया मजबूत इच्छा शक्ति वाले थे। कोई फर्क नही पड़ता था उन्हे।पढ़ाई के दौरान प्रो. रामकृष्ण ने कई बार उनसे कहा भी था, "निखिल बेटा, पी. एच. डी. भी कर लो।" पर निखिल कुछ और ही सोचे बैठा था।
आज सुबह से ही भाभी घर सर पर उठा रखी थी। बर्तनों को पटकने का दौर जारी थी। जिद्द पकड़ ली थी बाहर कमाने के लिये। बोली, "मै इतने लोगों का खाना नही बना सकती।" भाभी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। डर के मारे पिता कुछ नही बोले थे। भैया बेचारे क्या करते!!!!!
अगली सुबह ही भैया बैग लटकाये बम्बईया ट्रेन से मुम्बई चले गये थे। भाभी के खुशी का ठीकाना नही था। सुरेश की पत्नी जैसा जीवन जीने का मौका मिलेगा उसे।
निखिल भैया के मुम्बई जाने के बाद भाभी का जो मन होता वही करती।
********************************************
निखिल के मुम्बई जाने के बाद से ही पिता घर की कलह सह न पाने की वजह से चल बसे थे। छोटा भाई अखिल पर जैसे दुःखों का अम्बार टूट पड़ा था। भाभी भैया के एक-एक पैसे का हिसाब रखने लगी थी। पिता के जाने के बाद सारे परिवार की जिम्मेदारी अखिल पर आ गयी थी। भैया का परिवार से कोई मतलब नही रह गया था।
अखिल सुबह 3 बजे उठ कर चौराहे पर पहुंच जाता था जिससे अखबार की फेरी लगा सके। उससे सबसे ज्यादा चिन्ता छोटी बहन के ब्याह की थी।
अखिल सेठ के घर दरवानी (चौकीदारी) की नौकरी करने लगा था। जब मौका मिलता कुछ न कुछ पढ़ता रहता। प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता।
बहन-मॉ का कष्ट देखा नही जाता था अखिल को। जो मेहनत करके कर सकता था करता रहता। निखिल भैया या भाभी से कुछ कह नही सकता था।
********************************************
भैया को मुम्बई से आये चार दिन हो चुके थे। आज तक बात करने को किसी को मौका नही मिला था। भाभी बात करने का मौका ही नही देती थी। निखिल भैया भाभी के सामने आत्मसमर्पण कर चुके थे।मजाल है कोई बात कर ले।
आज सुबह फेरी लगाकर आने के बाद से ही भैया मॉ के पास बैठे थे। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। पर थोड़ी देर बाद मॉ के सुबकने की आवाज सुनाई दे रही थी।
भैया कठोर हो चले थे। थोड़ा बहुत आवाज जो सुनाई पड़ रही थी। कह रहे थे, "अब अलगौझी (बँटवारा) हो जाना चाहिये"
मै हतप्रभ था। घर बँटा नही था पर मानसिक तौर पर दूरी तो पिता के अवसान के बाद से ही बन गया था। भैया अगर न भी कहते अलग होने को तो भी दिल के टुकड़े तो बहुत पहले ही हो गया था। ये घोषणा की क्या जरूरत थी।
आज सुबह से ही सारे घर में शांति थी। सारे घर के सदस्य उदास लेटे हुये थे। बीच-बीच में भाभी के चहकने की आवाज शूल जैसा चुभ जाता था।
********************************************
आज अखिल का चयन बैंक में हो गया था। खुशियाँ किससे बाँटता। खुशियाँ भी अलगौझी का शिकार हो गया था। भैया सुबह से दिख नही रहे थे। पैर छू कर आशीर्वाद लेता पर उनके कमरा का ताला लटका मिला। पड़ोसियों ने बताया था भाभी-भैया मुम्बई चले गये। खुशियाँ बार-बार आँखों पर आँसु बन टपक जाता।
पिता बारम्बार याद आ रहे थे।
मन रो पड़ा था।
हाय रे अलगौझी!!!!!!!
@व्याकुल
धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...