FOLLOWER

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

माटी


अमोल का बहुत दिनों से मन नहीं लग रहा था विदेशी धरती की कुसंस्कृति उसको अंदर तक कचोटती रहती थी। आज दोस्तों के कहने पर क्लब आना पड़ा था उसे। सब मग्न थे पार्टी में पर वह उदास एक तरफ बैठा था।

सुबह से ही मन उद्विग्न था। पिता की तबीयत खराब थी। ठीक से बात नहीं कर पा रहे थे हर एक शब्द के बाद जोर की खांसी उन्हें पूरा वाक्य करने में दिक्कतें दे रहे थे, साथ ही वे कहते जा रहे थे, "बेटा, मैं बिल्कुल ठीक हूं, चिंता की जरूरत नहीं, तुम अपना ख्याल रखना।" 

देर रात पार्टी के बाद उदास बैठा था अभी फोन की घंटी बजी। दिल धक से हो गया। जैसे ही फोन उठाकर देखा किसी कम्पनी के विज्ञापन का फोन था। मन गुस्से से बाहर किया। ये उपभोक्तावादी युग जब तक इंसान को मार नही देगा, साँस नही लेने वाला।

सुबह तक अमोल को नींद नहीं आयीं थी। सुबह चिड़ियों की चहचहाहट सुनकर खिड़की से झांक कर बाहर देखा तो सूर्य देवता अँगड़ाई ले रहे थे। आँखें मलते उनकी लालिमा परिलक्षित हो रही थी।

तुरंत ही फोन मिलाया। 'टू' 'टू' कर  फोन कट गया था। चिंता की लकीरें उसके माथे पर घिर आयी थी। तेजी से एक मुक्का मेज पर दे मारा।

गांव से दिल्ली शहर का सफर दिल्ली से कैलिफोर्निया का सफर कैसे समय के साथ गुजर गया, पता ही नही चला। समय की गति भी अनहोनी है। इंसान के पास जब कुछ नहीं होता तब वों हर चीज पाने की आस रखता है। चीजें मिल जाने पर फिर पुरानी यादों की टीस जीवन पर भारी पड़ने लगती है। 

अमोल ने फिर से फोन किया। पिता जी का फिर वही खांसी। बात ठीक से नहीं हो पा रही थी उसकी आंखों में आंसू छलक आए थे। आवाज भारी हो गई थी।

सारा दिन अमोल उलझनों में रहा। मन में संकल्प ले लिया था। वों ऑफिस में अपने बॉस से मिला। त्यागपत्र का कारण बॉस ने पूछा था, "सोच लो बहुत बड़ी कंपनी है, लोंग यहां आने के लिए तरसते हैं" वों मूक था। मन में यही चलता रहा किं ऐसे पैसों का क्या करूँगा जब मेरे पालनहार ही नहीं होंगे। गाँव में कोई भी व्यवसाय कर लूंगा कम-से-कम इस दुनिया में मेरे साथ मेरे मां-बाप तो होंगे।

अमोल अमेरिका छोड़ने का मन बना चुका था। अगले दिन शाम की फ्लाइट थी। वों गांव आ गया था। लग रहा था जैसे वों किसी जेल में था या अस्पताल के वेंटिलेटर से मुक्त होकर खुली सांसे ले रहा था।

स्वदेशी माटी ही आपको तराशती है किं आप सारे विश्व में ढल सके। फिर भी वों माटी हतप्रभ रह जाती है जब अपने गले लगाने का संकोच करने लगते हैं।

अमोल ने सारे भ्रमों को तोड़ दिया था। माटी को जैसे पुनर्जीवन मिल गया हो।

@व्याकुल

डंठी

 

राह पर

रहु

या वजह बनु 

छॉव की

खुद जलु धूप 

पी कर

या ज्वाला की

ताप

सहूँ

अन्न पकने को..


कपकँपाते हाथ

से सहलाते

ओस से

सिहरते

बदन

बन सकु 

राख

किसी का..


बना ही

रहूँ

कृशकाय 

अभिलाषा

लिये दधीचीं का

पर

बोझ न बनु

किसी 

दीन का...

@व्याकुल

मटकी


                          चित्र: गूगल से

कल थी जहॉ

आज भी वही

पनघट वही

नीर वही

प्यासे वही

छाले वही

लकीरे वही

मटकी वही....


मटकी बूँद नही

सागर की

हो पेय कन्हैया 

की

एक गुलेल मारे 

कान्हा

तार दे सुदामा 

सी....

@व्याकुल

शनिवार, 28 अगस्त 2021

प्रदूषण



हवायें गुफ्तगु 

कर रही

नैनो से

फुसफुसाये यूँ

आँसु न रूके

पलको की..


जलें यूँ जैसे

पेट के लिए

रतिजगा

किये हो

शहर बदहवास है 

बैचैन क्यों

दम क्यों घुट रहा

आगोश में

उसके..


ऊँचाइयों का

अर्थ क्या

इतना ही है

जहॉ छलनी हो

जाये तन

जीन की

परिष्कृता पर

हो जाये सेंध..


@व्याकुल


शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

चाणक्य के जासूस

श्री त्रिलोक नाथ पांडे द्वारा लिखित "चाणक्य के जासूस" उपन्यास, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित, एक अत्यंत ही रोचक उपन्यास है जो यह दर्शाता है कि राजनीति रंगमंच में पर्दे के पीछे की कूटनीति कैसे होती है। पढ़ते वक्त कई बार ऐसा लगा कि मैं ईसापूर्व की शताब्दियों में चला गया हूँ। उपन्यास की खूबी यह है कि इसने शुरू से लेकर अंत तक बाँधे रखा। शब्दों का चयन बखूबी किया गया है। पुस्तक गुप्तचर्या का सटीक वर्णन करती है जो कि बहुत ही रोचक था।



आपने अपने उपन्यास में एक जगह उल्लेख किया है "प्रागेव विग्रहो न विधिः" हमेशा से ही ग्राही रही है जो कि आज के माहौल में बड़ी ही समीचीन लगती है।

लेखक ने एक जगह उल्लेख किया है कि व्यक्तिधर्म से बड़ा राजधर्म है। राज धर्म से बड़ा है राष्ट्रधर्म। यह बात भी आत्मसात करने लायक है।

लेखक ने गुप्तचर्या को इतनी बारीकी से वर्णन किया है कि यदि किसी को इस विधा में पारंगत होना है तो उसे इस पुस्तक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।

चिकित्सा जगत के पितामह चरक को तो हम लोग सुनते आए हैं पर चाणक्य समकालीन थे यह आपके उपन्यास द्वारा ही पता लगा।

एक जगह लेखक द्वारा गणिकाओं के बारे में यह लिखा गया है (जो एक स्त्री अपने मनोभावों को प्रकट करती है) "एक संवेदनशील स्त्री, जो परिस्थितिवश अपना तन बेचने के लिए विवश होती हैं लेकिन, वह अपना मन नहीं बेचती। मन तो वह उसे देती हैं जिसे वह देना चाहती हैं और इसका वह कोई शुल्क नहीं लेती।"

अंत में लेखक की पुस्तक का सर्वश्रेष्ठ वाक्य जो मेरे ह्रदय को छू गया "सम्राट की कृपा साधक की साधना भ्रष्ट कर देती है। वह स्वतंत्र और निर्भीक चिंतक नहीं रह पाता।" यह वाक्य सीख देती है तमाम उन कलयुगी साधकों को जो इनाम या पुरस्कार पाने तिकड़म मे लगे रहते है।

ऐसी पुस्तक बार-बार पढ़ने को क्यों नही दिल करेगा.....जहॉ शोध का निष्कर्ष परिलक्षित होता है...

साधु!!!!!

साधु!!!!!


@व्याकुल

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

टेटुआ



जमीं पर 

बिकते

चंद सब्जी

मोल-भाव

करते 

अंतिम

गुंजाइश तक

और

टेटुआ

में

टटोलते

खनकते सिक्कें..


फिर

निरीह से

लौट 

लेते 

फिर न 

सुनायी

देती

हाट की

कोई भी

आवाज

भर जाती

शुन्यता

सें

बच्चे की

आशा भरी

पोर..


@व्याकुल

युवा

मस्त

बेफिक्र

आँखों में

सपने 

लिए

दो-दो हाथ

करने को

सदैव 

तत्पर...


बलिष्ठता

ही ध्येय

जीवन का

अलौकिक

सोच ऎसी 

जो

दिवारों को

गिरा दे

बँधी

मुट्ठी से..


कभी न

रूके

चलते रहते

निर्बाध

अनवरत

थकते नही

जिनके पॉव...


गाथा भरी 

पड़ी है

जिनके 

अनगिनत

अनकहे

सिलसिले 

पराक्रम से...

@व्याकुल

महाराणा प्रताप

रक्त बिघ्न हो रहा 

राष्ट्र दम घुट रहा 

दृग अश्रु बह चला 

धरा बांझ हो चला 

वीर घन चाह रहे 

धीर मन हाथ रहे

स्याह न रहे तन

आग से सना रहे

कण कण उद्विग्न हो

राष्ट्र जब हिल उठे

जन्म ले रहा कोई

अन्त्य अब खिल उठे

रहे न कोई अस्त्र विहीन

मरे न कोई शौर्य हीन

न भूख से डिगा कोई

न हार से भगा कोई

वक्ष अब धधक रहा

फिर तुम्हे पुकारता...

@व्याकुल

प्रयाण

कोई 

कही नही 

जाता  


प्रयाण करता 

है भी तो

ठिकाना बदलने को


ऊब जाता होगा

शायद

वही चेहरे

वही लोग

सब कुछ वही


निकल पड़ता है

अजनबी 

रास्तें की ओर

शायद कुछ

नवीनतम् 

देख सकें...


@व्याकुल

मिज़ाज

मिज़ाज क्या पूछा उनसे

मुस्कुरा दिये वो

मिरे मिज़ाज को

गुलबहार कर गये हो जैसे


मिज़ाज के खातिर

उँगलियां क्या छूई

काँपती हुई सी

कुछ इशारा कर गये हो जैसे


मिज़ाज की नब्ज टटोलने

निगाहें जो फेरी ऊधर

पलक बन्द कर

रूहानियत कर गये हो जैसे


मिज़ाज दरयाफ्त को

गया जो गली तक

होंठ बुदबुदायें ऐसे

सब बयां कर गये हो जैसे


मिज़ाज उनका

बना पैमाना मिरा 'व्याकुल'

जुस्तजू मुसलसल उनकी

हाल नासाज़ कर गये हो जैसे


@व्याकुल

धाकड़ पथ

 धाकड़ पथ.. पता नही इस विषय में लिखना कितना उचित होगा पर सोशल मीडिया के युग में ऐसे सनसनीखेज समाचार से बच पाना मुश्किल ही होता है। किसी ने मज...